बीते हुए दशकों में, पश्चिमी देशों में हृदय रोग एवं उससे मृत्यु में महत्वपूर्ण गिरावट आई है। यह कमी बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा, रहन-सहन एवं अधिक शारीरिक क्रियाशीलता के कारण आई है। इसके विपरीत प्रगतिशील देश जैसे भारत में स्थिति बिल्कुल उलट है तथा यहां हृदय रोग बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। भारत में इसका मुख्य कारण शहरी जीवनशैली है और काॅलेस्ट्रोल युक्त खाद्य पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन करना है। ग्रामीण क्षेत्रों में हृदय रोग से पीड़ित रोगी 4 प्रतिशत और बड़े शहरी क्षेत्रों में 10 प्रतिशत हंै जबकि संसार में यह आंकड़ा 3 प्रतिशत से 4 प्रतिशत तक ही है।
इसके अलावा हृदय रोग संबंधित बीमारियां 35 से 55 वर्ष की उम्र के लोगांे में तेजी से बढ़ रही है जबकि पश्चिमी देशों में यह रोग 55 से 60 वर्ष की आयु में देखा जा रहा है। अतः हमारे देश के लोगों के लिए यह एक चिंता का विषय बन गया है। हमारे देश में अब भी यही महसूस किया जाता है कि हार्ट अटैक तो एक ऐसा रोग है जो सेवानिवृत्त होने के बाद होता है। वातादि दोष अपने कारण से कुपित होकर रक्तधातु को दूषित कर हृदय में प्रवेश करके जो पीड़ा उत्पन्न करते हैं उस पीड़ा को हृदय रोग कहते हैं। हृदय में होने वाले सभी रोगों को हृदय रोग कहा जाता है। आधुनिक मतानुसार, हृदय से संबंधित रोग एवं उसमें पाये जाने वाले रक्त कणिका तंत्र से संबंधित रोगों को हृदय रोग कहा जाता है।
कारण: आयुर्वेद के अनुसार अति उष्ण, अति शीत पदार्थों और अति कषाय अम्ल-तिक्त रस वाले पदार्थों के अति सेवन से, अत्यंत परिश्रम से, आघात से, भोजन पर भोजन करने से, अति मैथुन तथा अति चिंता से मल मूत्रादि वेगों को धारण करने से हृदय दूषित होकर हृदय रोग हो जाता है।
भेद: आयुर्वेद के अनुसार हृदय रोग के पांच भेद होते हैं:
1. वातिक हृदय रोग: इसमें हृदय फैल जाता है, हृदय में सुई सी चुभती है, चीरने, फाड़ने व तोड़ने के समान पीड़ा होती है।
2. पैतृक हृदय रोग: इस रोग में तृषा, उष्णता, दाह, चूसने के समान पीड़ा और क्लान्ति होती है। ऐसा प्रतीत होता है मानो मुख से धुआं निकल रहा हो, मूच्र्छा, स्वेद और मुख सूखता है।
3. श्लैष्मिक हृदय रोग: इसमें हृदय में भारीपन, मुख जड़ता, मंदाग्नि और मुख में माधुर्य प्रतीत होता है।
4. त्रिदोषज हृदय रोग: इसमें तीनों दोषों के मिले-जुले लक्षण होते हैं। इसमें जो दुरात्मा तिल, दूध, गुड़ आदि का अधिक सेवन करता है उसके हृदय के मर्म के एक स्थान में गांठ उत्पन्न हो जाती है जिसमें क्लेद और रस भी जाता रहता है। हृदय में तीव्र पीड़ा होती है। सुई सी चुभती है।
5. कृमिज हृदय रोग: इसमें उबकाई, वमन की इच्छा हो पर रूक जाती है, मुख से थूक अधिक निकलता है, सूई चुभने जैसी पीड़ा, शूल, हृल्लास, आंखों के आगे अंधेरा, अरूचि, नेत्र श्याम वर्ण के और शोथ हो जाता है। आधुनिक मतानुसार 50 से अधिक विभिन्न प्रकार के रोग हृदय रोग के अंतर्गत आते हैं जिसमें कुछ महत्वपूर्ण रोग निम्न प्रकार से हैं-
- जन्मजात रोग: जन्म से अगर हृदय में कुछ समस्या है और उसकी बनावट में कोई दोष है तो इस तरह की दिल की बीमारी को जन्मजात होना कहते हैं। जन्मजात हृदय रोग वाले व्यक्तियों में बहुत ही कम या कोई लक्षण नहीं पाये जाते हैं। गंभीर रोग में लक्षण दिखाई देते हैं विशेषकर नवजात शिशुओं में। इन लक्षणों मंे सामान्यतः तेजी से सांस लेना, त्वचा, होंठ और उंगलियों के नाखूनों में नीलापन, थकान और खून का संचार कम होना शामिल है। बड़े बच्चे व्यायाम करते समय जल्दी थक जाते हैं या तेज सांस लेने लगते हैं।
- हार्ट अटैक: हार्ट अटैक एक परिणाम है जिसमें अचानक हृदय की मांसपेशियों को रक्त आपूर्ति में कमी आ जाती है और ऐसा हृदय की रक्त की आपूर्ति करने वाली धमनियों में थक्के (क्लोट) द्वारा रूकावट पैदा होने के कारण हाता है। इसके कारण प्रचुर मात्रा में आॅक्सीजन हृदय के उस भाग में नहीं पहुंच पाता है जिसके कारण हृदय का वह भाग नष्ट हो जाता है।
अगर समय से उचित इलाज हो तो नष्ट भाग हृदय के पुनः सामान्य कार्य को नहीं रोकता है। परंतु एक बार हार्ट अटैक पड़ने के बाद जीवन में दुबारा अटैक पड़ने की संभावना अधिक रहती है। हार्ट अटैक सामान्य लोगों द्वारा बोला जाने वाला शब्द है। परंतु चिकित्सा शास्त्र के अनुसार इसे दो निम्न वर्गों में विभक्त किया जाता है।
- इस्किमिक हार्ट डिजीज - इसमें रक्त की आपूर्ति हृदय की मांसपेशियों को कोरोनरी धमनी में रूकावट पैदा होने के कारण कम हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप हृदय के मांसपेशियों को कम आॅक्सीजन की आपूर्ति होने लगती है। इससे हृदय की मांसपेशियां ठीक ढंग से कार्य नहीं कर पाती हैं जिसके परिण्मस्वरूप हल्के हार्ट अटैक के लक्षण दिखाई देते हैं।
- मायोकार्डियल इन्फार्कशनः इसमें रक्त आपूर्ति करने वाली धमनियों में गंभीर रूकावट पैदा होने के कारण हृदय का वह विशेष भाग कार्य करने में पूर्णतः अक्षम एवं मृत हो जाता है और हार्ट अटैक के लक्षण जैसे- सीने में दर्द, भारीपन, तेज पसीना निकलना, अत्यधिक कमजोरी महसूस होना, उल्टी आना, सांस फूलना आदि प्रकट होने लगते हैं। हार्ट अटैक आने पर 90 मिनट के भीतर यदि टा्रंबोलाइसिस तकनीक की मदद से दवाएं देकर हार्ट की नालियों की रूकावट को खोल दिया जाए तो मरीज की जान को बचाया जा सकता है।
- हृदय शूल: छाती के मध्य क्षेत्र में किसी श्रम के करने पर उत्पन्न होने वाली तथा वाम बाहु की ओर जाने वाले दर्द को हृदय शूल या अन्जाईना पेक्टोरिस कहते हैं। यह रोग हृदय की मासंपेशियों को रक्त आपूर्ति करने वाली कोरोनरी धमनियों के कठोरतर हो जाने के कारण हृदय को कार्य करने के लिए प्रचुर मात्रा में आॅक्सीजन न मिलने के कारण होता है।
इसमें सीने के मध्य में दर्द के साथ-साथ भारीपन, तनाव, श्वांस रोध, अप्रिय पसीना आदि लक्षण दिखाई देते हैं।
- कार्डियोमायोपैथी: यह हृदय और उसकी मांस पेशियों से संबंधित एक ऐसी बीमारी है जिसमें हृदय की मांस पेशियां कठोर और मोटी हो जाती हैं जिसके कारण इनके रक्त पंप करने की क्षमता कमजोर हो जाती है। कार्डियोमायोपैथी के कारण हृदय में आई कमजोरी की वजह से फेफड़ों, टखनों, पैरों और पेट में तरल भी इकट्ठा होने लगता है तथा गंभीर स्थिति में हृदय के वाॅल्व में भी खराबी आनी शुरू हो जाती है।
- आर्टिªयल फाइब्रलेसन - आट्र्रियल फाइब्रलेसन या आंलिद विकम्पन में हृदय में तेजी से होने वाले इलेक्ट्रिक आवेग के कारण हृदय की धड़कन और तंतु गड़बड़ा जाते हैं। इसमें हृदय के ऊपरी कक्ष अटरिया और निचले कक्ष वैन्ट्रकल्स का ताल-मेल बिगड़ जाता है। - दिल में सूजन: वाइरल (विषाणु) संक्रमण की वजह से हृदय के ऊतक क्षतिग्रस्त हो जाते हैं जिसके कारण हृदय के कार्यप्रणाली पर असर पड़ता है और यह कभी-कभी घातक भी होता है।
- हार्ट फेल्योर: किसी भी कारण से हृदय की क्षमता में कमी आ जाती है और हृदय ठीक से रक्त को पंप करने में सक्षम नहीं होता है तो उसे रक्त आपूर्ति भी ठीक से नहीं हो पाती है जिसकी वजह से हृदय काम करना बंद कर देता है और इस हार्ट फेल्योर या हृदय दौर्बल्य कहते हैं। हृदय रोग के परीक्षण: हृदय रोग निदान के निम्न विभिन्न प्रकार के परीक्षण किये जाते हैं:
- इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफी: यह परीक्षण हृदय की इलेक्ट्रिक क्रियाशीलता को मापता है, हृदय की एक महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है कि आपका हृदय सामान्य है अथवा तनाव (स्ट्रेन) में है। यह पिछले पड़े हृदय आघात (अटैक) की जानकारी प्रदान करता है। प्रत्येक व्यक्ति को 40 वर्ष की आयु के बाद वर्ष में एक बार में इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफी कराना चाहिए।
- इकोकार्डियोग्राफी: यह जांच हृदय में पाये जाने वाले वाॅल्व, रक्त पंप करने की क्रियाशिलता में आई कमी या विकृति की जानकारी प्रदान करता है। यह हृदय के चारों ओर किसी प्रकार के द्रव के पाये जाने की भी जानकारी प्रदान करता है।
- हृदय का दबाव जांच या टी. एम. टी.: इसे स्ट्रेस ईसी. जी. भी कहते हैं। इसे हृदय रोग के होने का संदेह होने पर कराया जाता है। इस जांच में यह देखा जाता है कि हृदय दबाव में कैसे कार्य करता है तथा रक्त धमनी में कोई रूकावट तो नहीं है।
- कोरोनरी एंजियोग्राफी: इस तकनीक का प्रयोग रक्त हृदय की रक्त वाहिकाओं में अवरोध होने की स्थिति में या ऐसी आशंका होने पर किया जाता है। इसकी सहायता से हृदय की धमनी में किसी रूकावट या सिकुड़न की जानकारी का तुरंत पता चल जाता है।
- प्रयोगशाला टेस्ट: हृदय रोग में लिपिड प्रोफाइल टेस्ट के द्वारा लिपिड अर्थात वसायुक्त पदार्थ जो शरीर में कोलेस्ट्राॅल के रूप में मौजूद होता है इसकी जानकारी प्राप्त होती है। रक्त में लिपिड की मात्रा सामान्य से अधिक होने पर यह रक्त वाहिनी में जमकर रूकावट या ब्लाॅकेज पैदा करता है, जिससे रक्त संचार प्रभावित होते हैं। - रक्त दाब: उच्च रक्त दाब धमनियों के रक्त दाब को बढ़ा देते हैं जिससे उनकी अंतः परत को क्षति पहुंचती है तथा वहां पर आसानी से वसा का जमाव हो जाता है। ये धमनियों को संकरा और मोटा तथा कठोर बना देते हैं जिसके कारण रक्त संचार बाधा उत्पन्न होती है।
चिकित्सा: हृदय रोगी को जरा भी परिश्रम न करने दें। यदि हृदय की दुर्बलता बहुत अधिक हो, तो बिस्तर पर ही रखें। टट्टी -पेशाब भी बिस्तर पर ही करने का बंदोबस्त करें। हृदय रोगी को सीढ़ियां चढ़ना और दौड़ाना सख्त मना है। नीचे लिखी दवाइयां सेवन कराकर रोगी का हृदय मजबूत करने पर, फिर भय नहीं रहता है।
- मकरध्वज 125 मि.ग्रा., सोना भस्म 30 मिलीग्राम, मोती पिष्टी 125 मिलीग्राम और कपूर 60 ग्राम मिलाकर दिन रात में दो-तीन बार रोगी को चटाएं। यह हृदय के रोगों को ताकत पहुंचाने की उत्तम दवा है।
- मोतियों को गुलाब -जल के साथ घोंटकर मोती पिष्टी बना लें। यह मोती पिष्टी हृदय को अच्छी ताकत पहुंचाती है।
- हृदय रोग से होने वाले छाती के दर्द में बारह सिंगा या हिरण के सींग की भस्म 250 मि. ग्राम को शहद के साथ चाटने से बहुत लाभ होता है।
- 240 ग्राम दूध में 240 ग्राम पानी मिलाकर, 12 ग्राम अर्जुन की छाल डाल दें। औटाने से जब दूध मात्र शेष रह जाये, तब छानकर मिश्री मिलाकर पिलाएं। यह हृदय रोग में लाभकारी है।
- अर्जुन घृत और च्यवनप्राश का सेवन भी गुणकारी है। - हृदयार्णव रस की एक-एक गोली सुबह-शाम भोजन उपरांत लेने से तथा ऊपर से अर्जुनारिष्ट का 20 मिली. बराबर मात्रा में पानी मिलाकर सेवन करने से अच्छा लाभ मिलता है।
पथ्यापथ्य: हृदय रोग में हल्का सुपाच्य भोजन देना चाहिए।
घी के स्थान पर तेल का प्रयोग करना चाहिए। परिश्रम बंद, आराम अधिक तथा वात शामक दवाओं का प्रयोग करना चाहिए। हृदय दौर्बल्यता दूर होने पर सुबह खुली हवा में टहलना चाहिए तथा खाने में नमक का प्रयोग कम करना चाहिए।