तंत्र और शक्तिपात
तंत्र और शक्तिपात

तंत्र और शक्तिपात  

आचार्य अतुल्यनाथ
व्यूस : 5574 | जुलाई 2017

जीव का परम उद्देश्य है जीवत्व से मुक्त होकर शिवत्व में प्रवेश करना। यह तभी संभव है जब जीव वस्तु स्थिति का ज्ञान का लेता है, वह अपनी आत्म स्थिति का अनुसंधान करते हुए उसमें अवस्थित हो जाता है। स्वरूप स्थिति में स्थायित्व प्राप्त करना ही मुक्ति द्वार तक पहुंचने का लक्षण है। इसके अभाव में यह सफलता प्राप्त करना असंभव है। इस स्वरूप स्थिति तक पहुंचने के लिए जो उपाय काम में लाया जाता है, उसे शक्तिपात कहते हैं। तंत्राचार्यों का मत है कि मुक्ति मार्ग अवरूद्ध करने वाले मलावरण हैं जिन्हें दूर करने के लिए तंत्रों में परम शिव का अनुग्रह ही बताया गया है। इस कृपा अथवा भगवद्नुग्रह को ही शक्तिपात कहा जाता है। यह एक ऐसी आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से सद्गुरु अपनी शक्ति को शिष्य में संचरित करता है ताकि उसकी सुप्त आध्यात्मिक शक्तियों का जागरण हो जाए अथवा उसकी बुद्धि अतीन्द्रिय विषय को समझ सके। गुरु कृपा शक्तिपात गुरु कृपा पर निर्भर करती है। सद्गुरु सर्वतत्त्व वेत्ता और अध्यात्म विद्या के जानने वाले होते हैं। ‘मालिनी विजय’ में भी कहा है- स गुरुमंत्समः प्रोक्तो मंत्रवीर्य प्रकाशकः। अर्थात् वही गुरु मेरे समान कहा गया है जो तंत्रों के वीर्य का प्रकाश करने वाला हो।

सिद्धि प्राप्त करने के लिए शक्तिपात आवश्यक माना गया है जिसके लिए गुरु ही एकमात्र साधन है। शक्तिपात के न होने से सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती। माहात्म्य सूत संहिता में शक्तिपात की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है- तत्वज्ञानेन मायवा बाधो नान्येन कर्मणा। ज्ञ नं वेदान्तवाक्योत्थं ब्रह्मात्मैकत्वगोचरम्।। तच्च देवप्रसादेन गुरौः साक्षात्रिनीक्षणात्। जायते शक्तिपातेन वाक्यादेवधिकारिणाम्।। तत्त्व ज्ञान के अतिरिक्त और किसी उपाय से माया का निरास नहीं हो सकता। यह तत्त्व ज्ञान ब्रह्म और आत्मा की अभेद सिद्धि का निरूपण करने वाले वेदान्त वाक्यों से प्राप्त होता है। इसका अधिकार गुरु द्वारा शिष्य को शक्तिपात से ही दिया जाता है। संत ज्ञानेश्वर ने लिखा है कि शक्तिपात होने पर, होने को तो वह जीव ही रहता है। परंतु महेश्वर के समान माना जाता है। लाभ: शिष्य के परिश्रम तथा गुरु कृपा से ही शक्ति का जागरण होता है। इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए शिष्य को बहुत कष्ट सहने पड़ते हैं और साधना में सावधानी भी बरतनी पड़ती है। इसके हो जाने पर यौगिक क्रियाओं की अपेक्षा नहीं रहती। वह साधक की प्रकृति के अनुरूप स्वरूप होने लगती है। प्रबुद्ध कुंडलिनी ब्रह्मरन्ध्र की ओर प्रवाहित होने के लिए छटपटाती है, इसी से सभी क्रियाएं होने लगती हैं।

शक्तिपात के द्वारा साधक के आत्मिक क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाता है। उसमें भगवद्भक्ति का विकास, चिदात्मा का प्रकाश होता है, मंत्र सिद्धि होती है जिससे श्रद्धा विश्वास का जागरण होता है, सब शास्त्रों का अर्थज्ञान हो जाता है, सब तत्वों को स्वायत्त करने का सामथ्र्य प्राप्त होता है। शरीर भाव जाता रहता है, शिवत्व लाभ होता है। कृष्ण के शक्तिपात से किस तरह अर्जुन को आत्मानुभूति हुई, इसका हृदयानुग्राही वर्णन ज्ञानेश्वरी गीता में किया गया है। लक्षण शक्तिपात का मुख्य लक्षण है- साधक में भगवद्भक्ति का उन्मेष होना तथा सभी प्राणधारियों को अपने अनुकूल बनाने की योग्यता होना। उसके प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जाते हैं, उनके बिना भोगे ही उसकी मुक्ति हो जाती है। ऐसा तब तक होता रहता है, जब तक शरीर रहता है। सुख दुःख की परिस्थिति में भी आनंद की मुद्रा रहती है। साधक पर समस्त शास्त्रों का ज्ञान प्रकट हो जाता है और उसे कविता रचने का सामथ्र्य प्राप्त हो जाता है। शास्त्रों में शक्तिपात के लक्षण इस ्रकार से वर्णित किये गये हैं: देहपातस्तथा कम्प परमानन्दहर्षणे। स्वेदो रोमांच इत्येतच्छक्तिपातस्य लक्षणम्।। शिष्यस्य देहे विप्रेन्द्राः धरण्या पतितेसति। प्रसादः शांकरस्तस्य द्विज संजात एव हि।। यस्य प्रसादः संजातो देहपातावसानकः। कृतार्थ एव विप्रेन्द्रा न स भूयोऽभिजातयते।।

शक्तिपात होते ही शरीर भूमि पर गिर जाता है, कंपन होने लगते हैं, मन में अपार प्रसन्नता का उदय होता है और परम आनंद की प्राप्ति होती है, जिससे रोमांच होता है, प्रस्वेद होता है। इस तरह से शक्तिपात से देहपात के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगें तो यह जानना चाहिए कि शिव कृपा हुई। शक्तिपात से देहपात के लक्षण आने पर कृतार्थता का भाव आना चाहिए, क्योंकि इसके बाद फिर जन्म ग्रहण करने की संभावना नहीं रहती। घटनाएं: कहा जाता है कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने स्वामी विवेकानंद पर शक्तिपात कर उनकी शक्ति का जागरण किया था। तभी नास्तिक नरेंद्र स्वामी विवेकानंद बन सके। संत ज्ञानेश्वर के अनुसार भगवान् कृष्ण ने अर्जुन पर शक्तिपात किया था। संत एकनाथ ने भागवत टीका में अपने जनार्दन स्वामी का भी उदाहरण दिया है कि उन्हें किस प्रकार दत्तात्रेय द्वारा शक्तिपात का अनुग्रह प्राप्त हुआ। वह अपने गुरु को दत्तात्रेय की शिष्य परंपरा में मानते हैं। गुरु ने शिष्य के मस्तक पर हाथ रखा और शक्ति का जागरण हो गया। प्रकार शक्तिपात तीन प्रकार का होता है - तीव्र, मध्य और मंद। जैसे विद्युतचालित पंखें में मंद, मध्य और तीव्र गति का प्रभाव तुरंत प्रभाव की गति से परिलक्षित होने लगता है।

तीव्र शक्तिपात से तो शरीर का नाश होता है, परंतु मध्य तीव्र में ऐसा नहीं होता, उसमें अज्ञान का नाश और ज्ञान का उदय होता है। मंद तीव्र शक्तिपात से मन में विवेक के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होती है, सद्गुरु की प्राप्ति की इच्छा जागृत होती है। तत्त्व को जानने की उत्कंठा ही इसका लक्षण है। इच्छा होने पर सद्गुरु की प्राप्ति भी होती है। गुरु की प्राप्ति होने पर जिज्ञासाओं का शमन होता है तथा शिष्य मुक्ति पथ की ओर अग्रसर होता है। गीता के शब्दों में: यथेधं स समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा।। अर्थात् हे अर्जुन ! तेजी से जली हुई अग्नि जिस तरह ईंधनों को जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार ज्ञान रूपी अग्नि भी समस्त कर्मों को भस्मसात् कर दिया करती है। अधिकार शक्तिपात के लिए गुरु के सामथ्र्य का होना तो आवश्यक है, परंतु शिष्य को इसके लिए कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती। तैयारी की आवश्यकता न होने पर भी उसका अधिकार तो उसे प्राप्त होना ही चाहिए अन्यथा शक्तिपात तो एक खेल मात्र बनकर रह जायेगा। इस अधिकार के लिए शास्त्र ने कुछ मर्यादाएं नियत की हंै, उनका पालन व विकास आवश्यक है। तभी वह सद्गुरु का पात्र बन जाता है।

जो इन्द्रियों को जीने वाला, ब्रह्मचारी, गुरुभक्त हो उसी के सम्मुख यह रहस्य प्रकट करना उचित है। तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक् प्रश्अन्तय चित्ताय शमान्विताय। येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच तां तत्वतो ब्रह्म विद्याम्।। -मुण्डक वह ज्ञानी गुरु उस श्रद्धापूर्ण, शान्तिचित्त एवं तितिक्षा और साधनानिष्ठ शिष्य को ब्रह्म-विद्या का उपदेश करे, जिससे वह अविनाशी सत्स्वरूप आत्मा को जान लें। यह भी ध्यान रखने की बात है कि सत्पात्र, श्रद्धालु और विश्वासी शिष्य ही गुरु कृपा का लाभ उठा सकता है। जिसमें यह गुण नहीं, उस पर भूमि में किसी भी गुरु का बोया गया ज्ञान बीज नहीं जम सकता है। गुरु के एकपक्षीय प्रयत्न से भी शिष्य का कल्याण नहीं हो सकता। दोनों ही पक्षों की श्रेष्ठता से गुरु-शिष्य संयोग का सच्चा लाभ मिलता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिससे गुरु शक्ति का संचार शिष्य में करता है। गुरु का आध्यात्मिक शक्तियों से ओत-प्रोत होना आवश्यक बताया गया है। उनके षट्चक्र और कुंडलिनी का जागरण होना आवश्यक है। तभी वह शिष्य के इन महत्त्वपूर्ण केंद्रों को प्रभावित कर सकता है। शिष्य की यह शक्तियां सुप्त अवस्था में होती हैं, जिन्हें जगाना होता है।

शक्तिपात वही व्यक्ति कर सकता है जो अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को एकत्रित करना जानता है। साधारणतः हाथ के स्पर्श से शक्तिपात किया जाता है। आधुनिक विज्ञान की भी यही मान्यता है कि हाथ के पोरूओं में विद्युत का संचार रहता है और अपनी प्राण विद्युत को दूसरे के शरीर में प्रवेश करके उसके शरीर व मन में परिवर्तन लाये जा सकते हैं। वे हाथ के स्पर्श व मार्जन आदि क्रियाओं से कष्टसाध्य रोगों का निवारण तक करते देखे गये हैं। प्राण शक्ति तो सारे शरीर में रहती है, परंतु उसका संचार प्रमुख रूप से हाथों से ही किया जा सकता है। सामथ्र्यवान् गुरु के सारे शरीर में शक्ति की विद्युत का प्रवाह चलता है जो भी उससे स्पर्श करता है, उस शक्ति से लाभान्वित होता है परंतु यदि उसका संचार एक विशेष विधि-विधान और प्रबल इच्छा शक्ति से किया जाए तो उसका प्रभाव विशेष होता है। शक्तिपात जिन परिस्थितियों में किया जाता है, दोनों पक्षों की ओर से पवित्र और अनुकूल भावनाओं का आदान-प्रदान होता है, इससे उस प्रक्रिया को और अधिक बल प्राप्त होता है। शक्तिपात में निष्कामता परिलक्षित होती है।

जिसके पास शक्ति का भंडार एकत्रित हो गया है, वह उसे अपने तक सीमित नहीं रखना चाहता वरन् योग्य पात्रों में वितरण करना चाहता है। आजकल स्थिति विपरीत है। अपने अहं की पुष्टि और विस्तार के लिए वह अपनी विद्या को अपने तक ही सीमित रखना चाहता है। प्राचीन काल में ऐसा न था। शिष्य की शक्तियों को विकसित करने के लिए गुरु प्रयत्नशील रहते थे, चाहे वे विद्या भौतिक हांे या आध्यात्मिक। शक्तिपात तो उदार हृदय का प्रत्यक्ष प्रमाण है, जिससे गुरु अपनी शक्ति का व्यय करके शिष्य के सामथ्र्य को बढ़ाता है। अपने तप की पूंजी में से खर्च करके शिष्य अपने सामथ्र्य को बढ़ाता है। अपने तप की पूंजी में से खर्च करके शिष्य को देना परमार्थ और निस्वार्थ भावनाओं का परिणाम है। यह परंपरा निरंतर चलती रहती है। जब शिष्य की शक्तियों का पूर्ण विकास हो जाता है, तो वह अपने से कम विकसित व्यक्तियों को ऊंचा उठाने का प्रयत्न करता है। वह इसे अपना नैतिक उत्तरदायित्व समझता है। अतः शक्तिपात एक ऐसा वैज्ञानिक और आध्यात्मिक साधन है जिससे गुप्त शक्तियों का जागरण किया जाता है।



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