मानसागरी में लिखा है - ललाट पहे लिखिता विधाता, षष्ठी दिने याऽक्षर मालिका च। ताम् जन्मत्री प्रकटीं विधŸो, दीपो यथा वस्तु धनान्धकारे। (मान सागरी) अर्थात् ईश्वर ने भाग्य में जो लिख दिया, उसे भोगना ही पड़ता है। जन्मपत्री के अध्ययन से इस बात का आसानी से पता चल जाता है कि उसने पूर्व जन्म में कैसे-कैसे कर्म किये हंै और इस जन्म में उसे कैसा क्या सुख भोग मिलेगा। मातुलो यस्य गोविन्दः पिता यस्य धनंजयः। सोऽपित कालवशं प्राप्तः कालो हि बुरतिक्रमः।। अर्थात् अभिमन्यु युवा था, सुंदर था, स्वस्थ था, वीर था, नवविवाहित था। भला क्या उसकी मरने की आयु थी या स्थिति? भगवान श्री कृष्ण उसके मामा थे,
उसके पिता अर्जुन महाभारत के अप्रतिम योद्धा थे। किंतु अभिमन्यु काल से न बच सका। तब साधारण जन कैसे बच सकता है। मृत्युर्जन्मवतां वीर देहेन सह जायते। अथ वाष्दशतान्ते वा मृत्युवै प्राणिनां धु्रवः।। देहे पंचत्वमापन्ने देहि कर्मानुगोऽवंशः। देहान्तरमनुप्राप्य प्राक्तनं त्यजते वपुः।। (श्रीमद् भागवत् 10/013/8-39) अर्थात कंस वासुदेव-देवकी को स्नेह से पहुंचाने जा रहा था। मार्ग में आकाशवाणी हुई ‘अस्यास्त्वाभस्तमा गर्भो हन्ता यां वहसेऽबुध।’ हे मूर्ख! जिसे तुम पहुंचाने जा रहे हो इसका आठवां गर्भ तुम्हंे मार डालेगा।’ क्रुद्ध कंस देवकी के केशों को पकड़कर उसकी जीवन लीला ही समाप्त कर रहा था, तभी वासुदेव जी ने उसे समझाया - हे वीर! जन्मधारण करने वालों के साथ ही उनकी मृत्यु भी उत्पन्न हो जाती है। आत्म कर्मानुसार देहान्तर प्राप्त कर पूर्व देह छोड़ देता है। कहने का अर्थ यही है
कि जीव को कर्मानुसार विविध देहांे की विभिन्न प्रकार के सुखों की रोगों की, अभावों की प्राप्ति होती है। तब जन्म पत्री को देखकर कैसे समझा जाए कि ग्रह एक साथ जीवन के कितने क्षेत्रों को प्रभावित करता है। इस तथ्य की सत्यता हेतु कुछ कुण्डलियों का अध्ययन करते हैं। यह सोनीपत शहर में रहने वाली एक ऐसी स्त्री की कुंडली है, जिसके विवाह को सात वर्ष बीत गए लेकिन इसे संतान नहीं हुई। इस औरत की कुंडली जन्म लग्न, चंद्र लग्न, सूर्य लग्न, शुक्र लग्न से मंगली है। लग्न सिंह है और प्रथम भाव में ही मंगल है और चंद्रमा भी सिंह राशि में ही है। लग्नेश सूर्य लग्न से छठे भाव में है। परंतु मंगल सूर्य से अष्टम भाव में है। पंचमेश एवं पंचम कारक गुरु संतान भाव (पंचम भाव) से द्वादश है तथा बृहस्पति पर पाप ग्रह मंगल की चतुर्थ दृष्टि है।
संतान भाव पर किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि नहीं है। कुंटुंब भाव (द्वितीय) पाप कर्तरी योग में है यानी इस भाव के एक ओर मंगल है व द ूसरी ओर केतु पाप ग्रह है, लग्न पर राहु का तथा कुंटुंब भाव पर शनि का दुष्प्रभाव है। इसी कारण संतान नहीं हो पायी। इस व्यक्ति को उठने बैठने चलने-फिरने आदि में अत्यंत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है क्योंकि यह पुट्ठे की क्षीणता से ग्रस्त हो गया है। देखते हैं ऐसा किन ग्रह स्थितियों के कारण हुआ। यदि कोई ग्रह षष्ठ, अष्टम या द्वादश स्थानों में स्थित हो और इस पर शुभ दृष्टि न हो तो वह अत्यंत निर्बल हो जाता है। ऐसा ग्रह जिस धातु का कारक होता है, वह उसमें रोग उत्पन्न कर देता है। उपरोक्त कुंडली में मंगल पुट्ठों का कारक है जो मृत्यु भाव अर्थात अष्टम स्थान में स्थित है। वह नीच (कर्कस्थ) भी है।
मंगल पर राहु की पंचम की दृष्टि है। इसके अलावा मंगल पर शुभ ग्रह शुक्र की दृष्टि है, परंतु शुक्र भी षष्ठेश तथा एकादशेश होकर मारक भाव में स्थित है शुक्र षष्ठ से षष्ठ अर्थात् एकादश भाव का स्वामी होने से भी रोगदायक है। यही नहीं शुक्र दो पाप ग्रहों शनि तथा सूर्य के बीच भी है जो उसकी निर्बलता बढ़ा रहे हैं। इसी कारण पुट्ठों की क्षीणता अत्यंत कठिनाइयों को पैदा कर रही है। यह पुरुष जातक व्यभिचारी है। यह अपनी पत्नी को उत्पीड़ित करता रहता है। उसे कई बार मारने की कोशिश भी कर चुका है। दो बार पुलिस केस भी हो चुका है। इसके अन्य महिलाओं के साथ भी यौन संबंध हैं। इ
जन्मकुंडली की ग्रह स्थितियों का अध्ययन कर इन कारणों को जानने का प्रयास करते हैं। यदि लग्नेश चतुर्थ भाव में हो, चतुर्थ एवं सप्तम भाव मंगल या राहु से पीड़ित हो, चतुर्थेश, सप्तमेश एक साथ हो तथा राहु से प्रभावित हो तो जातक व्यभिचारी, बहुस्त्री भोगी, कलंकित होता है। उपरोक्त कुंडली में लग्नेश-चतुर्थेश बुध चतुर्थ भाव में है तथा सप्तमेश गुरु शत्रु राशिस्थ होकर लग्नेश के साथ सुखेश बुध त्रिक भाव के स्वामी सूर्य के साथ है। इसके अतिरिक्त धनेश चंद्रमा केमुद्रम योग बना रहा है तथा शत्रु राशीस्थ होकर द्वादश भाव में है। भोग कारक शुक्र रोग, ऋण व शत्रु भाव में गृहस्थ भाव से द्विद्र्वादश योग बना रहा है। सप्तम भाव पापकर्तरी योग में है। पंचम भाव में शनि से दृष्ट है। लग्न एवं पंचम भाव पर राहु की दृष्टि है। चंद्रमा पर मंगल की दृष्टि भी है। इसी कारण यह व्यभिचारी है। यह कुंडली एक ऐसे व्यक्ति की है, जिसको कई वर्षों से पेट में गैस की तकलीफ रही है। बिना दवाइयों के यह शौच तक नहीं कर सकता। इसकी जन्मकुंडली में पंचमेश और पंचम भाव और पेट का कारक गुरु दोनों इकट्ठे हैं और साथ में शुक्र भी विराजमान है और वह भी सूर्य से पंचमेश है। इन सब पेट के द्योतक ग्रहों पर शनि की पूर्ण तृतीय दृष्टि भी पड़ रही है
और फिर शनि चूंकि सूर्य और केतु अधीष्ठित राशि का स्वामी है, इसमें केतु तथा सूर्य का प्रभाव भी सम्मिलित है। इस प्रकार जहां लग्न, चंद्र लग्न और सूर्य लग्न से पंचमेश होने के कारण पेट के द्योतक हैं वहां पीड़ित करने वाले ग्रह भी बहुत क्रूर हैं। इसका फल बहुत देर तक पेट में कष्ट उत्पन्न करता है। गैस इसलिए कि शनि का प्रभाव मुख्य है और शनि वायु का ग्रह है। यह कुंडली एक ऐसे विवाहित जोड़े की है जिनका विवाह बिना गुण मिलान के सम्पन्न हुआ। विवाह के सप्ताह बाद ही दोनों में कलह शुरु हो गया। यह विवाह दो वर्षों तक चलता रहा, फिर ये दोनों एक-दूसरे को तलाक देकर अलग हो गए। देखते हैं इनका ववाह क्यों नहीं निभ पाया। वर की जन्मकुंडली के लग्न में केतु और सप्तम में राहु विवाह में असफलता का सूचक है।
साथ ही भोग कारक शुक्र भोग स्थान अर्थात गृहस्थ भाव से द्वादश, लग्न से षष्ठ तथा राशि से चतुर्थ अशुभ ग्रह इसके अतिरिक्त शुक्र सूर्य द्वारा अस्त भी है तथा अष्टमेश मंगल के साथ है। पराक्रमेश बुध जहां षष्ठ भाव में है, वहीं लग्नेश मंगल शत्रु भाव में शत्रु राशि में है, इतना ही नहीं सभी ग्रह राहु-केतु के मध्य कालसर्प योग भी बना रहे हैं। गृहस्थ भाव से भी कालसर्प योग बन रहा है, सूर्य, बुध, मंगल तथा शुक्र पर शनि की पाप दृष्टि भी है। वधू की जन्मकुंडली में गृहस्थ भाव से द्वादश राहु है तथा उस पर शनि की अशुभ दृष्टि है। अष्टमेश सूर्य शनि द्वारा दृष्ट है। सप्तमेश चंद्र केमदु्रम योग बना रहा है, षष्ठेश बुध के साथ अष्टमेश सूर्य सर्वथा अशुभ है।
इसके अलावा राशि एवं मंगल की पाप दृष्टि है। पराक्रमेश गुरु के दोनों ओर पाप ग्रह सूर्य, शनि व मंगल पापकर्तरी योग बना रहे हंै। गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरित मानस में इसका स्पष्ट उल्लेख किया है- जो जस करई सो तस फल चाखा; क्योंकि कर्म प्रधान विश्व करि राखा। अर्थात इस संसार में कर्म ही प्रधान है और जैसे कर्म वह करता है उसी के अनुसार मनुष्य के जीवनकाल में न तो आकस्मिक रूप से कुछ होता है और न अनायास ही। बल्कि हमें जो कुछ अप्रत्याशित लगता है वह कर्म विधान के अंतर्गत दुर्भाग्य अथवा सौभाग्य के रूप में पूर्व निश्चित क्रमानुसार हमारे सामने आता है। जन्मकुंडली में ग्रह स्थिति के अनुसार हम उस कर्म फल को जान पाते हैं।