पिछले लेख में बतलाया गया है कि पापी, मारक एवं पूरक ग्रह निरंकुश होते हैं। इनकी निरंकुशता को नियमानुकूल बनाने के लिए अपवाद नियमों का लघुपाराशरी में प्रतिपादन किया गया है। क्योंकि शास्त्र परस्पर विरोधी तत्वों एवं तथ्यों को समन्वय के सूत्र से बांध कर अनुशासित करता है। अतः प्रत्येक नियम, वाद एवं सिद्धांत का अपवाद भी होता है।
इस विषय में लघुपाराशरीकार का मंतव्य है कि मारक ग्रह अपनी दशा में अपने संबंधी शुभ ग्रह की अंतर्दशा में मृत्यु नहीं देता किंतु अपने असंबंधी पापग्रह की अंतर्दशा में मृत्यु देता है। इस विषय में श्लोक शतककार का मत भी यही है। केवल एक बात विशेष है कि उनके मतानुसार मारक ग्रह की दशा में संबंधी पाप ग्रह की भुक्ति में निश्चित रूप से मृत्यु होती है। महर्षि पराशर का भी यही मत है। लघुपाराशरी की श्लोक संख्या 30 में बतलाया गया है कि दशाधीश अपने संबंधी ग्रह की अंतर्दशा में अपना स्वाभाविक फल देता है।
यहां मारक ग्रह एवं उसके फल का निरूपण करते हुए ग्रंथकार ने एक अपवाद-नियम बतलाया है कि मारक ग्रह अपनी दशा में संबंध न होने पर भी पाप ग्रह की अंर्तदशा में मृत्यु देता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि मारक-फल निरूपित करने के लिए यह नियम श्लोक संख्या 30 का अपवाद है। दशाफल के प्रसंग में ‘संबंधी’ एवं ‘सधर्मी’ इन दोनों का विचार एवं मनन गंभीरतापूर्वक करना चाहिए। यहां मारक ग्रह की दशा में संबंधी शुभ ग्रह की अंतर्शा में मृत्यु न होना अपवाद नियम है
क्योंकि यहां संबंध होने पर भी मृत्यु, जो कि मारक ग्रह का स्वभाविक फल है, का न मिलना अपवाद है। यहां एक और बात ध्यानव्य है कि संबंध होने पर शुभ ग्रह की भुक्ति में मृत्यु का निषेध किया गया है, जो योगकारक की भुक्ति में मृत्यु नहीं हो सकती। शुभ ग्रह से योगकारक के अधिक शुभफलदायक होने के कारण और जब संबंधी शुभ या योगकारक की भुक्ति में मृत्यु का निषेध किया गया है तब असंबंधी शुभ या योगकारक की भुक्ति में मृत्यु का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।
यद्यपि मारक एवं पाप ग्रह पूर्वरूपेण सधर्मी नहीं होते, किंतु उनमें ‘अशुभता’ नामक एक धर्म समान रूप से पाया जाता है। इसलिए संबंध न होने पर भी मारक ग्रह अपनी दशा में पाप ग्रह की भुक्ति में मारक फल देता है। यहां यह बात ध्यान रखने योग्य है कि यदि मारक ग्रह का पाप ग्रह से संबंध हो, तो ऐसे पापग्रह की भुक्ति में निश्चित रूप से मृत्यु होती है। निष्कर्ष: इस विषय में लघुपाराशरी की श्लोक संख्या 39 का गंभीरतापूर्वक विचार करने पर निष्कर्ष इस प्रकार निकलता है।
ग्रह की महादशा में-
Û संबंधी शुभ ग्रह की अंतर्दशा में मृत्यु नहीं होती।
Û असंबंधी शुभ ग्रह की अंतर्दशा में मृत्यु की संभावना भी नहीं होती।
Û संबंधी योगकारक ग्रह की अंतर्दशा में भी मृत्यु नहीं हो सकती।
Û संबंधी योगकारक ग्रह की अंतर्दशा में भी मृत्यु का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।
Û असंबंधी पाप ग्रह की अंतर्दशा में मृत्यु होती है।
Û संबंधित पाप ग्रह की अंतर्दशा में निश्चित रूप से मृत्यु होती है।
Û संबंधी या असंबंधी सम ग्रह की भुक्ति परिस्थिति के अनुसार मृत्यु संभव है।
Û संबंधित या असंबंधित मारक ग्रह की दशा में मृत्यु अवश्य होती है- दोनों के सधर्मी होने के कारण। वस्तुतः मारक की दशा में शुभ ग्रह की अन्तर्दशा, चाहे वह संबंधी हो या असंबंधी, में मृत्यु नहीं होती। योगकारक ग्रह शुभ ग्रह से भी शुभतर होता है। अतः उसकी अंतर्दशा में भी मृत्यु का प्रश्न नहीं उठता- चाहे वह संबंधी या असंबंधी कैसा भी हो। शुभ ग्रह एवं योगकारक कभी-कभी अनिष्ट कर सकते हैं।
किंतु जीवन या मृत्यु करना शुभ या योगकारक के धर्म के विरुद्ध है। किंतु पाप ग्रह एवं मारक ग्रह में आंशिक रूप से अशुभता की समानता होने के कारण तथा मारक ग्रह के सधर्मी होने के कारण पाप ग्रह या मारक ग्रह की अंतर्दशा में मृत्यु होती है। यदि पाप या मारक ग्रह असंबंधी हो तब भी और यदि संबंधी हो, तो निश्चित रूप से मृत्यु होती है।
दशाफल में शनि एवं शुक्र की विशेषता: शुक्र एवं शनि की अभिन्न मित्रता को ध्यान में रखते हुए लघुपाराशरीकार का मत है कि शनि की दशा में जब शुक्र की अंतर्दशा आती है, तब वह विशेष रूप से अपना फल न देकर शनि का ही शुभ या अशुभ फल देता है। इसी प्रकार शुक्र की दशा में जब शनि की अंतर्दशा आती है तब वह अपना फल न देकर शुक्र का ही शुभाशुभ फल देता है। सुश्लोक शतककार का भी यही मत है। जैसे पाप एवं मारक ग्रह निरंकुश होते हैं वैसे ही अभिन्न मित्र या पूरक ग्रह भी निरंकुश होते हैं।
अतः वे दशाफल के नियमों का उल्लंघन करते हैं। अनुच्छेद 53 में बतलाया गया है कि ग्रह अपना स्वाभाविक फल अपने संबंधी या सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा में देता है। किंतु शनि एवं शुक्र की नैसर्गिक मित्रता, अभिन्नता एवं पूरकता को ध्यान में रखते हुए ग्रंथकार ने इन दोनों को संबंधी या सधर्मी होने की शर्त से मुक्तकर यह अपवाद नियम बतलाया है कि शनि एवं शुक्र एक दूसरे की दशा और अपनी भुक्ति में एक-दूसरे का शुभ या अशुभ फल देते हैं।
वस्तुतः शनि एवं शुक्र नैसर्गिक या अभिन्न मित्र ही नहीं अपितु एक-दूसरे के पूरक भी हैं। यहां पूरक का अर्थ है एक दूसरे को समग्र या परिपूर्ण बनाने वाला। जैसे स्त्री एवं पुरुष एक दूसरे के पूरक होते हैं, क्योंकि वे एक-दूसरे को तन, मन एवं धन से परिपूर्णता देते हैं। इसलिए व्यक्ति का व्यक्तित्व विवाह के बाद ही परिपूर्णता की ओर अग्रसर है। शनि एवं शुक्र की इस पूरकता का साक्ष्य है शुक्र के लग्नों में शनि का तथा शनि के लग्नों में शुक्र का योगकारक होना।
ग्रहों की शुभता के विकास की प्रक्रिया में दोषयुक्त-त्रिकोणेश से त्रिकोणेश और उससे स्वयं योगकारक उŸारोŸार बली होते हैं। स्वयं योगकारक ग्रह केंद्र एवं त्रिकोण दोनों का एक मात्र स्वामी होने के कारण योगकारक और योगकारक होने से अति शुभ हो जाता है। शनि शुक्र को और शुक्र शनि को अपने लग्नों में योगकारक बनाता है।
अतः ये दोनों एक-दूसरे के पूरक माने जाते हैं। जैसे वृष लग्न में शनि नवमेश एवं दशमेश तथा तुला लग्न में चतुर्थेश एवं पंचमेष होने के कारण योगकारक होता है, उसी प्रकार मकर लग्न में शुक्र पंचमेश एवं दशमेश तथा कुंभ लग्न में चतुर्थेश एवं नवमेश होने के कारण योगकारक होता है। शनि एवं शुक्र में केवल नैसर्गिक मित्रता ही नहीं है। वे एक दूसरे को अपने लग्नों में पूर्ण शुभता देते हैं। यह उनकी एक-दूसरे के लिए पूरक-प्रवृŸिा है।
इसे ध्यान में रखकर आचार्य ने इन्हें संबंधी या सधर्मी होने की शर्त से मुक्त करने के लिए यह अपवाद नियम बतलाया है। राजयोग: लघुपाराशरी के अंत में श्लोक संख्या 41 एवं 42 में दो-दो अर्थात कुल मिलाकर चार राजयोगों का प्रतिपादन इस प्रकार किया गया है। दशमेश एवं लग्नेश एक दूसरे के स्थान में हों, तो दो राजयोग होते हैं और इन राजयोगों में उत्पन्न व्यक्ति विख्यात एवं विजयी होता है।
इसी प्रकार नवमेश एवं लग्नेश एक दूसरे के स्थान में हों, तो दो राजयोग होते हैं और इन राजयोगों में उत्पन्न व्यक्ति विख्यात एवं विजयी होता है। लघुपाराशरी की हिंदी टीकाओं में श्लोक संख्या 42 में ‘‘धर्मकर्माधिनेतारौ’’ तथा ‘‘धर्मलग्नाधिनेतारौ’- ये दो पाठ मिलते हैं। यदि प्रथम पाठ ‘‘धर्मकर्माधिनेतारौ’’ मान लिया जाए तो इसका अर्थ होगा कि नवमेश एवं दशमेश एक-दूसरे के स्थान में हों, तो राजयोग होता है।
किंतु यह बात लघुपाराशरी की श्लोक संख्या 14-16 में बतलायी जा चुकी है। अतः द्वितीय पाठ ‘‘धर्मलग्नाधिनेतारौ’’ मानना उचित रहेगा। वस्तुतः बृहदपाराशर होराशास्त्र में लग्न को केंद्र एवं त्रिकोण स्थान स्वीकार कर विशेष शुभ माना गया है। अतः लग्नेश का बलवान केंद्रेश-दशमेश तथा बलवान त्रिकोणेश-नवमेश के साथ संबंध के अनुसार राजयोगों का प्रतिपादन यहां किया गया है। हिंदी टीकाकारों ने प्रायः मानते हैं कि लग्नेश दशम में और दशमेश लग्न में तथा लग्नेश नवम में और नवमेश लग्न में हो, तो राजयोग होता है।
किंतु मूल श्लोक में ‘‘राजयोगौ-इति प्रोक्तम्’’ इस पद में द्विवचन का प्रयोग है। अतः प्रत्येक श्लोक में दो-दो राजयोग होने चाहिए। यह तभी संभव है जब ‘‘अन्योन्याश्रयसंस्थितौ’’ का अर्थ-एक दूसरे के स्थान में साथ-साथ स्थित माना जाए। तब इन श्लोकों का इस प्रकार अर्थ होगा। यदि दशमेश एवं लग्नेश साथ-साथ लग्न या दशम स्थान में स्थित हों, तो दो राजयोग होते हैं। इसी प्रकार यदि नवमेश एवं लग्नेश साथ-साथ नवम या लग्न स्थान में स्थित हों, तो दो राजयोग होते हैं। इन चारों योगों में उत्पन्न व्यक्ति सुविख्यात एवं विजयी राजा होता है। कुछ लोगों का कहना है कि लग्नेश एवं दशमेश दोनों केंद्रेश होते हैं।
अतः उनके अन्योन्याश्रय संबंध से राजयोग नहीं बन सकता। इस विषय में यह बात ध्यान रखने योग्य है कि महर्षि पराशर ने अपने होराशास्त्र मंे लग्न को केंद्र एंव त्रिकोण दोनों मानते हुए विशेष शुभ फलदायक माना है। लघुपाराशरी के परवर्ती उसकी परंपरा में प्रणीत ग्रंथों में भी ये योग यथावत मिलते हैं। अतः इस बात को हनीं माना जा सकता कि लग्नेश एवं दशमेश के अन्योन्याश्रय संबंध से राजयोग नहीं बन सकता, क्योंकि लग्नेश को केंद्राधिपत्य दोष न होना, पाराशरी होरा में लग्न को कंेद्र एवं त्रिकोण दोनों प्रकार का भाव मानना आदि ऐसे तथ्य हैं जो इस योग को सुदृढ़ आधार प्रदान करते हैं।
लघुपाराशरी के मराठी टीकाकार श्री रघुनाथ शास्त्री पटवर्धन, श्री ह. नेकाटवे तथा श्री वि. गो. नवाथे और गुजराती टीकाकार श्री उŸाम राम मयाराम ठक्कर एवं श्री तुलजाशंकर धीरज राम पंड्या ने श्लोक 41 एवं 42 को प्रक्षिप्त माना है। इन टीकाकारों का कहना है कि इन श्लोकों का प्रतिपाद्य राजयोग है। यदि ये दोनों योग लघुपाराशरीकार के होते, तो इनका उल्लेख योगाध्याय में होता न कि मिश्रफलाध्याय में। दूसरी बात यह है कि इन दोनों श्लोकों में ऐसी कोई नई बात नहीं बतलायी गयी है
जो पहले योगाध्याय में न कही जा चुकी हो। उक्त पहले बतलायी गयी बातों की पुनरुक्ति के लिए लघुपाराशरीकार ग्रंथ की समाप्ति के मय पिष्टपेषण के लिए इन श्लोकों में लिख नहीं सकते। अतः लगता है कि उक्त दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं। यद्यपि मराठी एवं गुजराती टीकाकारों का कथन युक्तिसंगत है, किंतु इस विषय में कुछ तथ्य ऐसे हैं जो इन श्लोकों को लघुपाराशरी का मूल पाठ सिद्ध करते हैं। ये तथ्य इस प्रकार हैं।
Û हिंदी, संस्कृत एवं बांगला की सभी टीकाओं में इन श्लोकों का मिलना।
Û जातक चंद्रिका के मद्रास संस्करण में इन श्लोकों का होना।
Û लघुपाराशरी की परंपरा में विरचित सुश्लोक शतक में इन योगों का यथावत होना। इस विषय में सज्जनरंजिनीकार ने अपनी टीका में एक प्राचीन वचन उद्धृत किया है-
‘‘धर्मकर्मेशसंबंधो लग्नेशेनाथता भवेत्। केवलं वा तयोर्वापि राजयोगाऽयमीरितः।।’’ अर्थात नवमेश एवं दशमेश में संबंध हो या नवमेश अथवा दशमेश का लग्नेश से संबंध हो अथवा नवमेश, दशमेश एवं लग्नेश में से किन्हीं दो का संबंध हो तो यह राजयोग कहलाता है। इस प्रकार प्राचीन वचनों में इन योगों का मिलना तथा हिंदी, संस्कृत एवं बांगला के सभी टीकाकारों का इन्हें मूलपाठ मानकर अपनी-अपनी टीका करना तथा परवर्ती सुश्लोक शतक में भी इन योगों का ज्यों का त्यों मिलना आदि इस बात को सिद्ध करते हैं कि ये श्लोक लघुपाराशरी के मूल पाठ हैं, प्रक्षिप्त नहीं हैं।
‘‘सत्यपि स्वेन संबंधे न हन्ति शुभभुक्तिषु। हन्ति सत्यप्यसम्बन्धे मारकः पापभुक्तिषु।’’ -लघुपाराशरी श्लोक 39 ‘‘मारकस्य दशायां तु शुभसंबंधिनो भवेत्। अन्तर्दशा तदा नैव मृत्युः पाराशरं मतम्।। असंबंधिखलस्यान्तर्दशेह मरणप्रदा। संबंधिनः पुनः किं स्यादिति निश्चयमीरितम्।।’’ -सुश्लोकशतक दशाध्याय श्लोक 27-28 ‘‘परस्परदशायां स्वभुक्ततौ सूर्यजभार्गवौ। व्यत्ययेन विशेषेण प्रदिशेतां शुभाशुभम्।।’’ -लघुपाराशरी श्लोक 40 ‘‘शुक्रमध्ये गतो मन्दः शौक्रं शुक्रोऽपि मन्दगः। मान्दं शुभाशुभं दत्ते विशेषेण न संशयः।। -सुश्लोक शतक दशाध्याय श्लोक 29
‘‘कर्मलग्नाधिनेतारावन्योन्याश्रयसंस्थितौ। राजयोगाविति प्रोक्तं विख्यातो विजयी भवेत्।। धर्मलग्नाधिनारावन्योन्याश्रयसंस्थितौ। राजयोगाविति प्रोक्तं विख्यातो विजयी भवेत्।।’’ -लघुपाराशरी श्लोक 41-42 ‘‘लग्नं केन्द्रत्रिकोणत्वाद् विशेषेण शुभप्रदम्’’ -योगकारकाध्याय श्लोक 3 ‘‘जन्म लग्नेश्वरः खेटो दशमे दशमेश्वरः। लग्ने विख्यात कीर्तिः स्याद्विजयी च धराधिपः।।’’ -सुश्लोकशतम-राजयोगाध्याय-श्लोक 14