प्राणियों केलिए काम (सेक्स) के दो मुख्य उद्देश्य हैं प्रथम विषयानंद तथा इूसरा वंश वृद्धि। संतति अर्थात् वंश वृद्धि काम का मुलभूत प्रायोजन है। जिसे ज्योतिष शास्त्र जन्मांग के सप्तम भाव सप्तमेश एवं शुक्र के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। गीता का कथन है कि जैसे मानव फटे वस्तों का त्याग कर नये धारण करता है उसी प्रकार जीवात्मा भी पुराने शरीर को त्याग कर नई देह को धारण करता है। प्रत्येक जीवात्मा अपने पूर्व कर्मों के अनुसार निश्चित माता-पिता के यहां जनम लेती है और जनम लेते समय आकाश में ग्रहों और नक्षत्रों की जो स्थिति होती है उस आकाशीय स्थिति के अनुसार ही व्यक्ति का जीवन निर्धारित होता है।
प्राचीन सामाजिक व्यवस्था में पितृ ऋण, भातृ ऋण एवं देव ऋण को विशेष महत्व दिया गया है। धर्म शास्त्रों के अनुसार संतानोत्पति के द्वारा पितृ ऋण को चुकाया जा सकता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जीवन के चार प्रमुख सेतु हैं, जिस प्रकार जीवन यापन के लिए धन, ईश्वर प्राप्ति अर्थात् मोक्ष आत्म शुद्धि धर्म का प्रमुख लक्ष्य है, ठीक उसी प्रकार सृष्टि विकास के लिए काम अर्थात सेक्स भी जीव मात्र की भ्रूण भूत अभिवृति है। प्राणियों केलिए काम (सेक्स) के दो मुख्य उद्देश्य हैं प्रथम विषयानंद तथा इूसरा वंश वृद्धि। संतति अर्थात् वंश वृद्धि काम का मुलभूत प्रायोजन है।
जिसे ज्योतिष शास्त्र जन्मांग के सप्तम भाव सप्तमेश एवं शुक्र के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। संतान का कारक कुंडली का पंचम भाव, पंचमेश तथा चंद्र, शुक्र, सूर्य, गुरु एवं मंगल है। चंद्र और मंगल स्त्री के मासिक धर्म और अंड निर्माण के कारण ्रह तथा गुरु और चंद्रमा पुरूष के वीर्य और शुक्राणुओं के कारक है। स्त्री के अंड एवं पुरुष के शुक्राणु के सहयोग से गर्भ धारण होता है। अतः इनका बलवान एवं ऊर्जावान होना परमावश्यक है।
किसी महिला के मासिक धर्म के समय स्त्री के जन्मांग में जन्मकालीन चंद्रमा से जब गोचर का चंद्रमा 3,6,10 एवं 11वें भाव को छोड़कर अर्थात लग्न, द्वितीय, चर्तुाि, सप्तम, अष्टम, नवम एवं बारहवें भाव से गोचर करता है तथा उसे मंगल देखता है तथा पुरुष की जन्म कुंडली में जन्मकालीन चंद्रमा से गोचर का चंद्रमा 3,6,10,11 में से किसी एक भाव में हो तथा गुरु से चंद्रमा दृष्ट हो तब स्त्री पुरूष के संयोग से गर्भ धारण होता है। यदि पंचम भाव को सूर्य मंगल एवं गुरु ेखे तथा पंचम पर किसी ग्रह का दुष्ट प्रभाव न हो तो पुत्रोत्पति होता है।
यदि पंचमेश पुरुष ग्रह होकर पाप दृष्ट या युत न हो तऔर जब चंद्र या शुक्र पचम या पंचमेश को देखे तथा पाप प्रभाव में पंचम या पंचमेश न हो तो ऐसी अवस्था में अधिकतर कन्या संतति उत्पन्न होती है। जो दम्पति मेडिकल जांच में ठीक है किंतु संतान उत्पति में असफल है ऐसे समय का उपयोग कर संतानोत्पति कर सकते हैं। किंतु जो दम्पति मेडिकल जांच में ठीक नहीं किंतु उनकी कुंडलियों में संतान योग के कारण दिखाई दे ऐसे दम्पतियों को उचित चिकित्सा करवाना ही श्रेष्ठ है।
संतानोत्पति योग: यदि लग्नेश, लग्न, द्वितीय या तृतीय भावस्थ हो तो प्रथम संतान पंत्र और लग्नेश चतुर्थ भाव में हो तो द्वितीय संतान पुत्र होती है। यदि पंचमेश एवं पंचम भाव पर गुरु की दृष्टि तथा पंचम एवं पंचमेश पापत्व प्रभाव से रहित हो तो ऐसी स्थिति में अधिकांशतः पुत्रोत्पति होती हैं पंचम भाव शुभ प्रभाव में हो तो संतान योग होता है किंतु शुभ ग्रह का पंचमेश से दृष्ट न होने पर संतान की अभाव रहता है।
सप्तम में शुक्र दशम में चंद्रमा तथा चतुर्थ में पापग्रह होने से संतानहीन योग बनता है। पंचमेश जिस भाव में स्थित है वहीं से 5,6,12वें भाव में दुष्ट ग्रह होने पर संतान अभाव रहता है। यदि संतान हो भी जाये तो उसके जीवित रहने में संदेह है। किसी जातक के जन्मांग में पंचम भाव पर पापी ग्रह शनि, राहु, केतु अथवा नीच ग्रह की दृष्टि या युति, पंचम भाव में पंचमेश नीचस्थ हो, द्वादशेष, अष्टमेश, षष्ठेश से दृष्ट या युत होने पर संतानोत्पति में बाधक है क्योंकि दुष्ट ग्रह के प्रभाव से अंडे के विकास में बाधा आती है तथा प्रोजस्टीरोन हारमोन की कमी हो जाती है।
गर्भाशय की मांसपेशियां कमजोर होती है। मंगल की दृष्टि आदर्शन का कारण बनती है। पंचम भाव के उपाधिपति के नक्षत्र के उपनक्षत्र में स्थित ग्रह की दशा, अंतरदशा और प्रत्यंतर में संतान उत्पति होती है। प्रस्तुत कुंडली में दम्पति ने तृतीय संतान की अभिलाषा के साथ पुत्रोत्पति की कामना की। जन्मांग में प्रथम संतान पंचम द्वितीय सप्तम एवं तृतीय संतान का अवलोकन नवम भाव से किया जाता है इस जन्म चक्र के नवम भाव का अवलोकन करने पर नवम भावारंभ का नक्षत्रपति शनि एवं उपनक्षत्रपति सूर्य है।
नवमेश मंगल गुरु के नक्षत्र और शनि के उप में है। प्रश्न समय जातक गुरु की दशा शनि का अंतर केतु का प्रत्यंतर और सूर्य के सूक्ष्म से गतिशील था। यहां पर गुरु, शनि, केतु, सूर्य गोचर देखा गया। सूख्म में गहराई पर जाने से यह प्रकट हुआ कि सूर्य मीन राशि और बुध के नक्षत्र में गोचरस्थ थे। जिससे कन्सोल तिथि 25-26 मार्च 2010 निर्धारित की गई। इस दिन दशानाथ गुरु शनि की राशि गुरु के नक्षत्र शनि के उप में और शनि के उप-उप में विचरीत था।
अंतर दशानाथ शनि बुध की राशि में सूर्य के नक्षत्र और गुरु के उप और शनि के उप-उप में गोचरस्थ था। 2 जनवरी 2011 को इन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। द्वितीय जनमांग में नवम भाव का नक्षत्र स्वामी शुक्र उप स्वामी शुक्र तथा उप-उप केतु है। नवम का राशि पति गुरु शनि के नक्षत्र केतु के उप में और केतु के ही उप-उप में है यह केतु पंचम और नवम से जुड़ाव बनाता है।
जो संतान प्राप्ति का संकेत है। प्रश्न समय इन्हें गुरु की दशा राहु का अंतर चंद्र का प्रत्यंतर गतिशील था तथा चंद्र मंगल के नक्षत्र में होने के कारण पुत्र संतान होने की संभावना व्यक्त की गई। ज्योतिष गणना अनुसार 18 अप्रैल 2008 कन्सीव तिथि निर्धारित की गई 25 जनवरी 2009 को इनहें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
इच्छित संतान प्राप्ति के अभाव में एक योग्य ज्योतिष का कर्तव्य है कि वह जानें कि इच्छित संतान प्राप्ति क्यों नहीं हो रही। किस श्राप या देवी-देवता के प्रकोप के कारण संतति योग नहीं है इन कारणों को जानकर ज्योतिषी को इनका निवारण करना चाहिए।
हरिवंश पुराण का स्मरण, संतान गोपाल स्तोत्र का जाप, दुर्गा सप्तशती का पाठ, शिवलिंगाभिषेक आदि करने से संतान प्राप्ति के सारे अवरोध दूर हो जाते हैं तथा जातक को संतान सुख मिलता है।