ज्योतिष में अनुसंधान की आवश्यकता
ज्योतिष में अनुसंधान की आवश्यकता

ज्योतिष में अनुसंधान की आवश्यकता  

प्रमिला गुप्ता
व्यूस : 5662 | अकतूबर 2013

यह परिवर्तन और प्रयोगशीलता का युग है। परिवर्तन और प्रयोगपूर्ण विकास की प्रक्रिया इसकी पृष्ठभूमि है। ब्रह्माण्ड के गूढ़ रहस्यों को समझना और उसकी शक्ति को पहचानना ही ज्योतिष विद्या है। ज्योतिष अगम्य विद्या है। आकाशीय गणित, खगोलशास्त्र और ज्योतिष फलादेश का संबंध जल में कमल के समान है। अज्ञानता का घना अंधेरा ज्ञान के उज्ज्वल प्रकाश से ही छंटता है। किसी उपलब्ध ज्ञान की उपयोगिता मानव जाति के लिए तभी सिद्ध होती है जब वह अपने जीवन में इसका व्यावहारिक प्रयोग करता है।

भारतीय ज्योतिष को आज जो स्थान प्राप्त है, उसको इस स्तर तक पहुंचने में सैकड़ों वर्ष लगे हैं। समय-समय पर जिन विद्वानों ने नई खोजों, आविष्कारों तथा गणित के नियमों द्वारा इसकी प्रगति में सहयोग किया है, इतिहास सदा इनका ऋणी रहेगा। प्राचीन हिंदु राजाओं के राज्य काल में भारतीय ज्योतिष ने शिखर को छूने तक की यात्रा प्रारंभ की, किंतु इस्लामी और ईसाई धर्मावलंबियों के शासन काल में हमारी इस प्राचीन संस्कृति का उत्थान तो क्या हमारे प्राचीन ग्रंथों एवं उनके आश्रय स्थलों का संहार किया गया।

इसके जानकार एवं विद्वानों की संख्या में निरंतर कमी होती गई। विदेशी प्रभाव के फलस्वरूप जनमानस का इन प्राचीन विद्याओं पर विश्वास कम होने लगा। इसमें स्वार्थी, ठग व अज्ञानी ज्योतिषियों के व्यवहार ने भी जन मानस में इन विद्याओें के प्रति अरूचि एवं अविश्वास में वृद्धि की। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद धर्म-निरपेक्ष संविधान के अंतर्गत अन्य धर्मों एवं संस्कृतियों के समान हमें भी अपने लुप्त गौरव एवं संस्कृति और महान विद्याओं को फिर से उजागर करने की स्वतंत्रता प्राप्त हुई।

संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार एवं स्वतंत्रता, आज भी विभिन्न प्रवृत्तियों एवं लोलुपताओं के कारण हमारा विलुप्त ज्ञान, वैभव, ग्रंथ एवं मानसिकता का प्रचार एवं शोध जो कि कालांतर में प्रायः लुप्त हो गया था आज भी अनेक अवरोधों के कारण अपने शिखर पर पहुंचने में अनेक संकटों को भोग रहा है। यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि विवेकानंद जैसे महापुरूष को भी अपनी विद्वत्ता का परिचय देने के लिए पश्चिम का सहारा लेना पड़ा।


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आज भी जब तक किसी शोध या विद्वान पर पश्चिम का लेबल नहीं लगता, अपने देश में उसमान्यता मिलने में बहुत कठिनाई होती है। आवश्यकता है लुप्तप्राय इस विज्ञान को सरकारी, सामाजिक और धनाढ्य भामाशाहों का प्रोत्साहन प्राप्त हो। संचारक्रांति के इस युग में ज्योतिष का व्यापारीकरण इतना बुरा है नहीं जितना प्रतिपादित किया जा रहा है। इस चकाचैंध में तिरस्कृत विद्वान भी अपना भविष्य तलाशने लगे हैं जो आने वाले समय में ज्योतिष को उसके तिमिर तक प्रज्ज्वलित करने में समर्थ होंगे।

ज्योतिषशास्त्र का उद्भव सुख और धन लाभ जानने के लिए नहीं अपितु दुःख का पूर्वानुमान करके उसका धैर्यपूर्वक प्रतिकार करने के लिए हुआ है। समस्त भारतीय ज्ञान की पृष्ठभूमि दर्शनशास्त्र है। भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा अमर है। इसका कभी नाश नहीं होता। केवल यह कर्मों के अनादि प्रवाह के कारण पर्यायों को बदला करती है। वैदिक दर्शन में कर्म के संचित, प्रारब्ध एवं क्रियामाण ये तीन भेद कहे गये हैं।

प्राणी द्वारा वत्र्तमान क्षण तक किया गया कर्म चाहे वे इस जन्म में किया गया हो या पूर्व जन्म में वह सब संचित कर्म कहलाता है। संचित में से जितने कर्मों के फल को पहले भोगना आरंभ होता है उसे ही प्रारब्ध कहते हैं या जो अभी किया जा रहा है उसे क्रियामाण कहते हैं। इन तीनों प्रकार के कर्मों के कारण आत्मा अनेक जन्मों को धारण कर संस्कार अर्जन करती चली आ रही है। इस स्थूल भौतिक शरीर की विशेषता है कि इसमें प्रवेश करते ही आत्मा जन्म-जन्मांतरों के संस्कारों की स्मृति निश्चित ही खो देती है।

आत्मा मनुष्य के वर्तमान स्थूल शरीर में रहते हुए भी एक से अधिक जगत के साथ संबंध बनाये रखती है। मनोवैज्ञानिकों ने आत्मा की इस क्रिया की विशेषता के कारण ही मनुष्य के व्यक्तित्व को बाह्य और आंतरिक दो भागों में विभक्त किया है। आकर्षण की प्रवृत्ति बाह्य व्यक्तित्व को और विकर्षण की प्रवृत्ति आंतरिक व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। इन दोनों के बीच में रहने वाला अंतःकरण इन्हें संतुलित करता है।

मनुष्य की उन्नति और अवनति इस संतुलन पर निर्भर है। अनन्त परमाणुओं के समाहार का एकत्र स्वरूप हमारा शरीर है। भारतीय दर्शन में यदा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे का सिद्धांत प्राचीन काल से ही प्रचलित है। सौरमंडल में स्थित ग्रह शरीर में स्थित अवयव के प्रतीक हैं। बाह्य व्यक्तित्व के प्रथम रूप का विचार प्रतीक गुरु दूसरा मंगल और तीसरा चंद्रमा है। आंतरिक व्यक्तित्व के प्रथम रूप का प्रतीक शुक्र है दूसरा बुध तीसरा सूर्य है तथा अंतःकरण का प्रतीक शनि है जो बाह्य चेतना और आंतरिक चेतना को मिलाने में पुल का काम करता है।


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इस प्रकार आकाशमंडल के सात ग्रह मानवजीवन के विभिन्न अवयवों के प्रतीक हैं। इसी प्रकार ऋषि, दिन, समुद्र, पर्वत, रंग, सुर आदि भी सात ही हैं। राहु-केतु को आध्यात्मिक गणितीय मान्यता है तथा अनुभव में इनके फल घटित होते हैं, क्योंकि ये बिंदु है, जिनमें चुंबकीय तरंगें प्रसारित होती हैं। राहु से हमारे ऋषियों ने विगत जीवन का विवरण एवं केतु से भविष्य के बारे में फलकथन कहा है।

अतः विगत जन्मों के समस्त कर्मों का प्रतिनिध् िात्व राहु करता है। राहु की स्थिति पिछले जन्म के कर्मों की यात्रा का विवरण करती है। किसी जातक के धनी, यशस्वी एवं भाग्यशाली होने का अर्थ यह नहीं है कि समस्त उपलब्धियां उसके वर्तमान जीवन की है। इसमें विगत जन्मों का फल भी समाहित है। इसी प्रकार केतु भविष्य एवं निर्वाण का कारक है। प्रश्न ज्योतिष के शोध एवं विकास में समाहित है। शोध एवं विकास मानव मन की सतत एवं प्रगतिशील परिकल्पना है।

आज भी ज्योतिष जानने वाले यह नहीं जान पाते कि ज्योतिषी कितनी गलती कर सकता है इतना बता पाना ही समयाचीन होगा कि एक दैवज्ञ भी 60 प्रतिशत ही ठीक-ठीक भविष्यवाणी कर पाता है। अतः सटीकता के लिए मार्गदर्शन एवं बिखरे हुए सिद्धांतों का समायोजन आवश्यक है। ज्योतिषी दैवज्ञ है, सर्वज्ञ नहीं। दूसरी ओर दैवज्ञ अल्पज्ञ भी हो सकता है।

फिर भी हमारे पास ऐसी विद्या है जिसमें सज्जनता के द्वारा सच्चा मार्गदर्शन एवं दुर्जनता के द्वारा ठगी की जा सकती है। ज्योतिष को ठगी से बचाने के लिए अन्धश्रद्धा के स्थान पर सटीकता एवं सटीक फलादेश जो इष्ट कृपा एवं ज्ञान के बिना अधूरा है उसकी प्राप्ति का निरंतर प्रयास किया जाए। यही समय की आवश्यकता है।



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