नजला-जुकाम आचार्य अविनाश सिंह आम तौर पर हर एक व्यक्ति नजला-जुकाम रोग से कभी न कभी प्रभावित होता ही है। मामूली-सा दिखने वाला यह रोग कभी-कभी कष्टदायक हो जाता है। ऐसे में नजला-जुकाम से कैसे राहत मिले, पढ़िए इस लेख में। रोग परिचय शीत ऋतु का एक रोग है जो शीत के कारण होता है जिसमें नाक से पानी बहने लगता है।
मामूली दिखने वाला यह रोग, कफ की अधिकता के कारण अधिक कष्टदायक होता है। ऋतु परिवर्तन के प्रभाव से दोष संचित होकर अपने प्रकोप-काल में ही कुपित होते हैं। परंतु दोषों के प्रकोप के कारणों की अधिकता या प्रबलता के कारण तत्काल भी कुपित हो जाते हैं, जिसमें जुकाम हो जाता है अर्थात् नजला-जुकाम कभी-कभी शीतकाल के अतिरिक्त भी हो सकता है। आयुर्वेद में नजला जुकाम छः प्रकार के कहे गये हैं। वायुजन्य, पित्तजन्य, कफजन्य, त्रिदोषज, रक्तजन्य और दूषित।
1. वायुजन्य: वायु से उत्पन्न जुकाम में नाक में वेदना, सुई चुभने जैसी पीड़ा, छींक आना, नाक से पतला स्राव आना, गला, तालु और होंठो का सूख जाना, सिर-दर्द और आवाज बैठ जाना आदि लक्षण होते हैं।
2. पित्तजन्य: नाक से गर्म और पीेले रंग का स्राव आना, नाक का अगला भाग पक जाना, ज्वर, मुख शुष्क हो जाना, बार-बार प्यास लगना शरीर दुबला और त्वचा चमकरहित होना इसके लक्षण हैं। नाक से धुआं निकलता महसूस होता है।
3. कफजन्य: आंखों में सूजन, सिर में भारीपन, खांसी, अरूचि, नाक द्वारा कफ का स्राव और नाक के भीतर गले और तालु में खुजली होती है।
4. त्रिदोषज: ऊपरी तीनों दोषों से उत्पन्न जुकाम बार-बार हो जाता है। साथ ही तीनों दोषों के मिले-जुले लक्षण दिखाई देते हैं। शरीर में अत्यधिक पीड़ा होती है।
5. रक्तजन्य: नाक से लाल रंग का स्राव होता है। रोगी की आंखे लाल हो जाती है। मुंह से बदबू आती है सीने में दर्द, गंध का ठीक तरह से पता न चलना आदि लक्षण होते हैं।
6. दूषित: नज़ला जुकाम के सभी दोषों की अत्यंत वृद्धि हो जाने से बार-बार नाक बहना, सांस में दुर्गंध, नाक का बार-बार बंद होना खुलना,सुगंध-दुर्गंध पता न चलना आदि लक्षण होते हैं।
नजला-जुकाम के प्रमुख कारण: नजला - जुकाम मस्तिष्कजन्य रोग होते हुए भी इस रोग का मूल कारण अग्नि है; अर्थात् जब जठराग्नि मंद होती है तो इसमें अजीर्ण हो जाता है। पाचन क्रिया बिगड़ जाती है और भोजन ठीक से पच नहीं पाता एवं कब्ज हो जाने के कारण अपचय पदार्थ का विसर्जन नहीं होता, जिसके कारण जुकाम की उत्पत्ति होती है क्योंकि शरीर में एकत्रित विजातीय तत्व जब अन्य रास्तों से बाहर नहीं निकल पाता, तो वे जुकाम के रूप में नाक से निकलने लगते हैं। यह जुकाम अत्यधिक कष्टदायक होता है। इससे सिर, नाक, कान, गला, आंखों में विकार उत्पन्न होने लगते हैं।
जुकाम का कारण मानसिक गड़बड़ी भी देखा गया है। इसके अतिरिक्त अन्य कारण भी हैं। मल, मूत्र, छींक, खांसी आदि वेगों को रोकना, नाक में धूलि कणों का प्रवेश होना, अधिक बोलना, क्रोध करना, अधिक सोना, अधिक जागना, शीतल जल और ठंडे पेय पीना, अति मैथुन करना, रोना, धुएं आदि से मस्तिष्क में कफ जम जाना। साथ ही साथ मस्तिष्क में वायु की वृद्धि हो जाती है। तब ये दोनों दोष मिलकर नज़ला-जुकाम व्याधि उत्पन्न करते हैं। जुकाम को साधारण रोग मानकर उसकी उपेक्षा करने से अति तकलीफदेह हो जाता है। जुकाम बिगड़ने पर वह नज़ले का रूप धारण कर लेता है। नज़ला हो जाने पर नाक में श्वास का अवरोध, नाक से हमेशा पानी बहना, नाक पक जाना, बाहरी गंध का ज्ञान न होना, मुख की दुर्गंध आदि विकार उत्पन्न हो जाते हैं। जुकाम के बिगड़ जाने की अवस्था के बाद मस्तिष्क की अनेक व्याधियां होती हैं जो कष्टदायी होती है। इस रोग के कारण बहरापन, कान के पर्दें में छेद तथा कान, नाक, तालु, श्वास नलिका में कैंसर होने की संभावना रहती है। अंधापन भी उत्पन्न हो जाता है। कहा जाता है कि नजले ने शरीर के जिस अंग में अपना घर बना लिया, वही अंग खा जाता है। दांतों में घुसा तो दांत गये, कान में गया तो कान, आंख में गया तो आंखे गयी, छाती में जमा तो दमा और कैंसर जैसी व्याधियां उत्पन्न कर देता है। सिर पर गया तो बाल गये।
चिकित्सा: प्रथम रोग उत्पन्न करने वाले कारणों को दूर करें। कफ वर्द्धक, मधुर, शीतल, पचने में भारी पदार्थ न खाएं। दिन में सोने, ठंडी हवा का झोका सीधे शरीर पर आने देने, अति मैथुन आदि से दूर रहें। पचने में हल्का, गर्म और रूखा आहार लें। सौंठ, तुलसी, अदरक, बैंगन दूध, तोरई, हल्दी, मेथी दाना, लहसुन, प्याज आदि सेवनीय पदार्थ हैं। सोंठ के एक चम्मच को चार कप पानी में पका कर बनाया गया काढ़ा दिन में 3-4 बार पीना लाभदायक है।