मकर संक्रांति : सूर्य साधना
मकर संक्रांति : सूर्य साधना

मकर संक्रांति : सूर्य साधना  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 11416 | जनवरी 2012

मकर संक्रांति: सूर्य साधना का महापर्व (61 वर्षों के बाद मकर संक्रांति पुण्यकाल, रविवार व भानु सप्तमी का अति दुर्लभ महासंयोग) पं. लोकेश द. जागीरदार सूर्य जब मकर राषि में प्रवेष करते हैं तो सूर्य के इस संक्रमण को मकर संक्रांति कहा जाता है। वेदों में सूर्य उपासना को सर्वोपरि बताया गया है।

शास्त्रो की मान्यता है कि कलियुग में सूर्य भगवान का पूजन, अर्चन, आराधना, उपासना शीघ्र फलदायी होती है। सम्पूर्ण जगत में सूर्य भगवान ही एकमात्र ऐसे देवता हैं जिनका हम साक्षात रूप में प्रतिदिन दर्षन करते हैं। समस्त संसार के सूर्य उपासक भगवान सूर्य की आराधना किसी न किसी रूप में करते हैं। सूर्य ही समस्त ज्ञान का आधार है। सूर्य भगवान का एक नाम सविता भी है, सविता अर्थात् उत्पन्न करने वाला। सूर्य सम्पूर्ण विष्व को एकता के सूत्र में बांधने वाले विष्वदेव हैं, वे भुवन भास्कर हैं।

महर्षि कष्यप व अदिति के पुत्र आदित्य अज्ञान रूपी अंधकार का नाष करने वाले हैं। भगवान सूर्य वैदिक देवता हैं। अति प्राचीनकाल से भक्तगण इनकी साध् ाना करते आ रहें हैं। सौरमण्डल में सूर्य ही ग्रहों के राजा एवं सर्वाधिक प्रकाषवान हैं। ये स्वयं के प्रकाष से प्रकाषित है, सौरमण्डल के सभी सदस्य सूर्य की परिक्रमा करते हैं। सूर्य की उपासना से ही समस्त ग्रहों के दोषों का पूर्णतः शमन होता है।

मार्कण्डेय पुराण में सूर्य की उत्पत्ति, उनकी दोनों पत्नियां संज्ञा व छाया तथा 6 संतानों का वर्णन है। वेदों में यह कहा गया है कि उदय और अस्त होते हुए सूर्य की आराधना करने वाला विद्वान ब्राह्मण सभी प्रकार के कल्याण को प्राप्त करता है। प्रत्येक भारतीय पंचाग में सूर्योदय से ही तिथि, वार, नक्षत्र, योग आदि का काल लिखा जाता है। इष्टकाल भी सूर्यउदय के समय से ही माना जाता है।

मकर संक्रांति का महत्व सूर्य प्रत्येक माह में एक राषि पर भ्रमण करते हुए 12 माह में सभी 12 राषियांे का भ्रमण कर लेते हैं। फलतः प्रत्येक माह की एक संक्रांति होती है। सूर्य जब मकर राषि में प्रवेष करते हैं तो सूर्य के इस संक्रमण को मकर संक्रांति कहा जाता है। इसका महत्व इस लिए अधिक है कि इस दिन सूर्य उत्तरायण हो जाते हैं।

उत्तरायण काल को ही प्राचीन ऋषि मुनियों ने साधनाओं का सिद्धिकाल व पुण्यकाल माना है। भीष्म पितामह ने भी उत्तरायण काल आने पर ही प्राण त्यागे थे। मकर संक्रांति सूर्यदेव की अगवानी का पर्व है क्योंकि कहा जाता है कि कर्क संक्रांति के समय सूर्य का रथ दक्षिण की ओर मुड़ जाता है। इससे सूर्य का मुख दक्षिण की ओर तथा पीठ हमारी ओर होती है। इसके विपरीत मकर संक्रांति के दिन सूर्य का रथ उत्तर की ओर मुड़ जाता है अर्थात् सूर्य का मुख हमारी ओर (पृथ्वी की तरफ) हो जाता है।

फलतः सूर्य का रथ उत्तराभिमुख होकर हमारी ओर आने लगता है। सूर्यदेव हमारे अति निकट आने लगते हैं। इससे बड़े उत्सव का अवसर और कोई हो ही नहीं सकता। मकर संक्रांति सूर्य उपासना का अत्यंत महत्वपूर्ण, विषिष्ट एवं एकमात्र महापर्व है। यह एक ऐसा पर्व है जो सीधे सूर्य से संबंधित है। मकर से मिथुन तक की 6 राषियों में 6 महीने तक सूर्य उत्तरायण रहते हैं तथा कर्क से धनु तक की 6 राषियों में 6 महीने तक सूर्य दक्षिणायन रहते हैं।

कर्क से मकर की ओर सूर्य का जाना दक्षिणायन तथा मकर से कर्क की ओर जाना उत्तरायण कहलाता है। सनातन धर्म के अनुसार उत्तरायण के 6 महीनों को देवताओं का एक दिन और दक्षिणायन के 6 महीनों को देवताओं की एक रात्रि माना गया है। संक्रांति के प्रकार संक्रांतियों का वर्णन दो प्रकार से किया जाता हैः-

1 सायन,

2 निरयन।

जिस संक्रांति में अयनांष जुड़े होते हैं वह सायन संक्रांति कहलाती है। फलित ज्योतिष के अनुसार निरयन सूर्य संक्रांति को माना गया है। चल सम्पात पर आधारित गणना को सायन एवं अचल सम्पात की गणना को निरयन कहते हैं। ऋतु, अयन व गोल परिवर्तन की गणना सायन संक्रांति के अनुसार होती है। जबकि स्नान, दान, पुण्यकर्म, मलमास, अधिकमास, मुहूर्त, धर्म व ज्योतिष आदि में निरयन संक्रांति को महत्व दिया गया है। सूर्य सायन गति के कारण 21 दिसम्बर को ही उत्तरायण हो जाते हैं।

सायन और निरयन में अयनांष परिवर्तन के कारण 23-24 दिन का अंतर पड़ता है। अयन चालन गति के कारण ही मकर संक्रांति निरयन पद्धति के अनुसार 14-15 जनवरी को पड़ती है। ठीक इसी प्रकार सायन पद्धति से सूर्य 21 जून को दक्षिणायन होते हैं एवं निरयन पद्धति से कर्क संक्रांति 15-16 जुलाई को पड़ती है। मकर संक्रांति को सूर्य उत्तरायण हो जाते है तथा 21 जून को साल का सबसे बड़ा दिन व 22 दिसंबर को साल का सबसे छोटा दिन माना जाता है।

मकर संक्रांति का निर्णय मकर संक्रांति का यह महापर्व सम्पूर्ण भारतवर्ष में मनाया जाता है। अयन गति के कारण आज से 145 वर्ष पूर्व मकर संक्रांति 12-13 जनवरी को पड़ती थी, इसका प्रमाण स्वामी विवेकानंद की कुण्डली से प्राप्त होता है जो इस प्रकार है:-

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 ई. में हुआ था। उनकी जन्मकुण्डली में सूर्य 9/0/0/15 राष्यादि लिखा गया है जो इस बात का स्पष्ट सूचक है कि उस दिन अर्थात 12 जनवरी को मकर संक्रांति थी। परम्परा से रामकृष्ण मिषन वाले भी यही मानते है।

अतएव मकर संक्रांति के विषय में यह स्पष्ट है कि 19वीं सदी मे मकर संक्रांति 12-13 जनवरी को पड़ती थी वहीं 20 वीं सदी में मकर संक्रांति 13-14 जनवरी को पड़ती थी एवं अब वर्तमान में 21 वीं सदी में मकर संक्रांति 14-15 जनवरी को मनाई जाती है। 21वीं सदी के समाप्त होते होते मकर संक्रांति 15-16 जनवरी को मनाने लग जायेंगे। सूर्य का प्रत्येक महीने में राषि परिवर्तन होता है। एक राषि की गणना 30 अंष होती है। सूर्य एक अंष को 24 घंटे में पूर्ण करता है।

अयनांष गति के अंतर के कारण लगभग 72-73 वर्ष में एक अंष की दूरी में अंतर आ जाता है। इस अयनांष गति में परिवर्तन के कारण ही प्रतिवर्ष सूर्य का मकर राषि में प्रवेष 25-30 मिनट देर से होता है। हर तीसरे वर्ष मकर संक्रांति के प्रवेष का समय एक घंटे बाद होता है। इसी परिवर्तन के चलते ही हर 72-73 वर्षों में मकर संक्रांति एक दिन बाद हो जाती है। प्रत्येक चैथा वर्ष लीप ईयर के नाम से जाना जाता है। क्योंकि फरवरी माह 29 दिन का होता है। यह इसलिए कि एक वर्ष 365 दिन व 6 घंटे का होता है। चैथे वर्ष में ये 6-6 घंटे जुड़कर चैबीस घंटे अर्थात् एक दिन बढ़ जाता है। लीप ईयर होने पर मकर संक्रांति भी एक दिन बाद मनाई जाती है।

मकर संक्रांति के संबंध में यह परिवर्तन अयन गति में परिवर्तन के कारण होता है। मकर संक्रांति का पुण्यकाल मुहूर्त चिंतामणी के अनुसार सूर्य के संक्रांति समय से 16 घटी पहले और 16 घटी बाद तक पुण्यकाल होता है। यह पुण्यकाल कर्क व मकर संक्रांति के अतिरिक्त सभी संक्रांतियों के लिये भी माना जाता है। अर्द्ध रात्रि के पूर्व संक्रांति हो तो पहले दिन का उत्तरार्द्ध पुण्यकाल होता है और अर्द्ध रात्रि के बाद संक्रांति हो तो दूसरे दिन का पूर्वार्द्ध पुण्यकाल होता है।

यदि संक्रांति ठीक मध्य रात्रि में घटित हो तो दोनों दिन पुण्यकाल होता है। सूर्यास्त के बाद मकर संक्रांति हो तो पुण्यकाल दूसरे दिन माना जाता है। धर्मसिंधु के अनुसार मकर संक्रांति का पुण्यकाल संक्रांति समय से 16 घटी पहले या 40 घटी बाद तक माना गया है। निर्णय सिंधु के अनुसार मकर संक्रांति का पुण्यकाल संक्रांति समय से 20 घटी बाद तक होता है एवं सूर्यास्त के पश्चात्, प्रदोषकाल, रात्रिकाल, अर्द्धरात्रि एवं इसके पश्चात् यदि सूर्य मकर राषि में प्रवेष करते हैं तो पुण्यकाल दूसरे दिन होता है। सन् 2013 से 2044 तक मकर संक्रांति का पुण्यकाल प्रति दो-दो वर्ष के अंतराल पर 14 और 15 जनवरी को रहेगा।

इसके पश्चात् 2045 से 2085 तक मकर संक्रांति का पुण्यकाल प्रति एक-तीन वर्ष के अंतराल पर 14 व 15 जनवरी को रहेगा। इसके पश्चात् वर्तमान शताब्दी पूर्ण होते-होते हम मकर संक्रांति का पर्व पूर्णतया 15 जनवरी को मनाने लग जायेंगे। मकर संक्रांति का महापर्व 15 जनवरी को मकर संक्रांति का महापर्व इस वर्ष 15 जनवरी को मनाया जायेगा। इसका कारण यह है कि दाते पंचांग के अनुसार सूर्य का मकर राषि प्रवेष दिनांक 14 जनवरी शनिवार को रात्रि में 12 बजकर 57 मिनट पर हो रहा है। सूर्य का मकर राषि प्रवेष अर्द्ध रात्रि के पश्चात् हो रहा है।

मुहूर्त चिंतामणी के अनुसार यदि अर्द्ध रात्रि के पश्चात् संक्रांति प्रवेष हो तो पुण्यकाल दूसरे दिन होता है। अतएव मकर संक्रांति का पुण्यकाल व सिद्धि काल दूसरे दिन अर्थात 15 जनवरी रविवार को सूर्योदय से प्रारंभ होकर सूर्यास्त तक रहेगा। मकर संक्रांति का महापर्व पूर्णतया 15 जनवरी को ही मनाया जावेगा। मकर संक्रांति पुण्यकाल, रविवार व भानु सप्तमी का अति दुर्लभ महासंयोग इस वर्ष मकर संक्रांति महापर्व 15 जनवरी रविवार को मनाया जावेगा।

इस दिन मकर संक्रांति पुण्यकाल, रविवार व भानु सप्तमी का महायोग बन रहा है। जो सप्तमी तिथि रविवार को होती है उसे भानु सप्तमी कहा जाता है। मकर संक्रांति , रविवार व भानु सप्तमी ये तीनों ही उत्सव सूर्योपासना के लिये अति सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त बताये गये हैं। अतएव इन तीनों का एक साथ आना दुर्लभ महायोग है। 61 वर्षों के बाद इस वर्ष मकर संक्रांति पुण्यकाल, रविवार व भानु सप्तमी का अति दुर्लभ महासंयोग बन रहा है। श्री वेंकटेष्वर शताब्दी पंचांग के अनुसार 14 जनवरी 1951 को रविवार के दिन सूर्य का मकर राषि प्रवेष प्रातःकाल 9 बजकर 45 मिनट पर हुआ था।

उस दिन भी भानु सप्तमी तिथि थी। मकर संक्रांति पुण्यकाल रविवार व भानु सप्तमी का यह अति दुर्लभ महासंयोग था। उस दिन भी पुण्यकाल सूर्योदय से सूर्यास्त तक था। 14 जनवरी 1951 के पश्चात् अर्थात 61 वर्षों के बाद 15 जनवरी 2012 को यह अति दुर्लभ महासंयोग बन रहा है। इस दिन भी मकर संक्रांति का पुण्यकाल, रविवार व भानु सप्तमी सूर्य उपासना के तीनों ही सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त एक साथ आ रहे हैं। श्री वेंकटेष्वर शताब्दी पंचांग सन 2043-44 तक है।

इस पंचांग के अनुसार वर्ष 2012 के बाद के वर्षों में ऐसा अति दुर्लभ महासंयोग नहीं बन रहा है। मकर संक्रांति का फल सूर्य की 12 संक्रांतियां चार श्रेणियों में विभक्त हैं। मकर व कर्क संक्रांति अयन परिवर्तन के कारण अयन संक्रांति, मेष व तुला की विषुव संक्रांति, मिथुन, कन्या, मीन व धनु की षडषीति संक्रांति , वृषभ, सिंह, कुंभ व वृष्चिक की विष्णुपदी संक्रांति होती है। मकर संक्रांति अयन संक्रांति होने के कारण अति महत्वपूर्ण है। रविवार को घोरा, सोमवार को ध्वांक्षी, मंगलवार को महोदरी, बुध को मंदाकिनी, गुरू को मंदा, शुक्र को मिश्रा एवं शनि को राक्षसी नामक संक्रांति होती है। रविवार को उग्र संज्ञक नक्षत्र पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपद, भरणी एवं मघा नक्षत्र हो तो संक्रांति शूद्रों, सेवा, नौकरी, मजदूरी करने वालों के लिए अनुकूल होती है। सोमवार के दिन लघु संज्ञक नक्षत्र अष्विनी, पुष्य, हस्त नक्षत्र हो तो संक्रांति वैष्य, व्यापार, उद्योगों से जुड़े लोगों के लिये अनुकूल होती है। मंगलवार के दिन चर संज्ञक नक्षत्र स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा नक्षत्र होने पर संक्रांति चोरों व तस्करों के लिये अनुकूल होती है।

बुधवार को मृदु संज्ञक नक्षत्र मृगषिरा, चित्रा, अनुराधा, रेवती नक्षत्र हो तो संक्रांति क्षत्रिय, राजकार्य से जुड़े लोगों के लिये अनुकूल होती है। गुरूवार को धु्रव संज्ञक नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी नक्षत्र होने पर संक्रांति विप्र तथा षिक्षा से जुड़े लोगों के लिए अनुकूल होती है। शुक्रवार को मिश्र संज्ञक नक्षत्र विषाखा, कृतिका नक्षत्र होने पर संक्रांति दूध व पशु व्यापार, चित्रकार, संगीतज्ञ, कलाकार आदि लोगों के लिये अनुकूल होती है।

शनिवार को तीक्ष्ण संज्ञक नक्षत्र आद्र्रा, आष्लेषा, ज्येष्ठा, मूल नक्षत्र हो तो संक्रांति वर्णसंकर, शराब विक्रेता, अन्त्यज लोगों के लिये अनुकूल होती है। यदि संक्रांति दिन में हो तो प्रथम तृतीयांष में क्षत्रियों को, दूसरे तृतीयांष में ब्राह्मणों को, तीसरे तृतीयांष में वैष्यों को और सूर्यास्त के समय की संक्राति शूद्रों को कष्टप्रद होती है। इसी प्रकार रात्रि के प्रथम प्रहर की संक्रांति घृणित कर्म करने वालों को, दूसरे प्रहर की संक्रांति राक्षसी प्रवृत्ति के लोगों को, तीसरे प्रहर की संक्रांति संगीत से जुड़े लोगों को, चैथे प्रहर की संक्रांति किसान, पशुपालक, मजदूरों के लिये दुखदायिनी होती है।

मकर संक्रांति -एक ऋतुपर्व सूर्य के राषि परिवर्तन से दो दो माह में ऋतु बदलती है। मकर संक्रांति एक ऋतु पर्व है, यह दो ऋतुओं के संधिकाल का द्योतक है। एक ऋतु की विदाई का तो दूसरी ऋतु के आगमन का संकेत है। यह सूर्य के अर्थात् गर्म दिनों के आगमन का प्रतीक पर्व है। यह शीत ऋतु की समाप्ति एवं बसंत ऋतु के आगमन की सूचना देता है। इस दिन शीत ऋतु होने के कारण खिचड़ी, तिलगुड़ आदि का सेवन किया जाता है। यह अन्न शीतऋतु में हितकर होता है।

मकर संक्रांति पूरे भारतवर्ष में किसी न किसी रूप में मनाया जाती है। दक्षिण भारत में यह पर्व पोंगल के रूप में मनाया जाता है। यहां पर प्रत्येक घर में पोंगल नामक चावल के खाद्य पदार्थ का भोग व सेवन किया जाता है, अनेक प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। उत्तरप्रदेष में यह पर्व खिचड़ी के रूप में मनाया जाता है। इस दिन यहां पर खिचडी दान करने व खाने की परम्परा है। पंजाब में यह पर्व लोहड़ी के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व में यहां पर सभी लोग गोलाकार समूह में एकत्र होकर मध्य में अग्नि जलाकर उसमें तिल, गुड़ आदि डालकर इन वस्तुओं का भोग लगाते हैं एवं सभी में बांटकर एक दूसरे की भावनाओं को समझकर इस त्यौहार को मनाते है।

राजस्थान में यह पर्व पतंग उत्सव के रूप में मनाते हैं। इस दिन यहां पर तिल, मोतीचूर के लड्डू, घेवर आदि 14 प्रकार के पदार्थों को ब्राह्मण या सुहागिन स्त्रियों में बांटा जाता है। पूरा आसमान इस दिन पतंगों से आच्छादित होता है। इस दिन आकाष में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि पक्षियों से ज्यादा पतंगें दिखाई देती हैं। महाराष्ट्र में यह पर्व भोगी, संक्रांति, करिदिन तीन रूपों में मनाया जाता है। भोगी अर्थात् संक्रांति के एक दिन पहले खिचड़ी व गुड़ की रोटी का सेवन किया जाता है। संक्रांति के दिन सभी लोग एक दूसरे को तिलगुड़ बांटते हैं और कहा जाता है तिळ-गुड़ घा आणि गोड गोड बोला।

करिदिन अर्थात् संक्रांति के बाद वाले दिन घिरडे (ताएँ) का सेवन किया जाता है। मध्यप्रदेष में यह पर्व मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व के अंतर्गत यहां पर सुहाग सामग्री, बर्तन, तिल के लड्डू या चकती, कपास, नमक आदि का दान ब्राह्मण, सौभाग्यवती महिला या मंदिरों में किया जाता है। केरल में यह पर्व ओणम के रूप में मनाते हैं। इस पर्व पर यहां प्रत्येक घर के सामने बड़ी बड़ी रंगोलियां बनाई जाती है एवं तिल, घी, कम्बल आदि वस्तुओं का दान किया जाता है। असम में यह त्यौहार बिहू के रूप में मनाया जाता है।

यहां पर इस दिन पानी में तिल डालकर स्नान करने के पश्चात् तिल दान करने का प्रचलन है। अतएव मकर संक्रांति का त्यौहार सम्पूर्ण भारतवर्ष में मनाया जाता है। मकर संक्रांति का दान मकर संक्रांति के दिन स्नान, दान का अति विषेष महत्व है। मकर संक्रांति प्रायः माघ मास में आती है। माघ शब्द संस्कृत के मघ शब्द से उत्पन्न है जिसका अर्थ धन, स्वर्ण, चांदी, वस्त्र एवं विविध प्रकार के धान्य पदार्थ से है। इन सभी के दान-पुण्य के विधान के कारण ही इस पर्व को माघी संक्रांति कहा जाता है। इस दिन शीत ऋतु होती है। अतएव इस ऋतु के अनुकूल वस्तुओं, पदार्थों के दान का विधान है। इस दिन तिल, गुड, खिचड़ी, मिष्ठान्न, बर्तन, कपास, ऊनी वस्त्र आदि वस्तुओं के दान का विधान है।

पद्मपुराण के अनुसार इस संक्रांति में दान करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। इस दिन भगवान सूर्य को लाल वस्त्र, गेहूं, गुड़, मसूरदाल, तांबा, स्वर्ण, सुपारी, लालफल, लालफूल, नारियल, दक्षिणा आदि सूर्य दान का शास्त्रों में विधान है। इस संक्रांति के पुण्यकाल में किये गये दान-पुण्य सामान्य दिन के दान-पुण्य से करोड़ गुना फल देने वाले होते हैं। मकर संक्रांति पर्व पर कटुवचन बोलना, पेड़ पौधे तोड़ना, पशुओं का दूध निकालना, स्त्री संभोग तथा दातून आदि कार्य वर्जित है। अतः इन्हें नहीं करना चाहिए। मकर संक्रांति सूर्य भगवान का अतिप्रिय महापर्व है। मकर संक्रांति पर्व का सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्वरूप सूर्यसाधना है। सूर्य साधना से ब्रह्मा, विष्णु, महेष तीनों की साधना का फल मिलता है।

सूर्य को संक्रांति का देवता व संसार की आत्मा कहा गया है। मकर संक्रांति एवं सूर्य साधना मकर संक्रांति सूर्य भगवान का अतिप्रिय महापर्व है। मकर संक्रांति पर्व का सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्वरूप सूर्यसाधना है। सूर्य साधना से ब्रह्मा, विष्णु, महेष तीनों की साध् ाना का फल मिलता है। सूर्य को संक्रांति का देवता व संसार की आत्मा कहा गया है। सूर्य के प्रकाष के बिना जीवन असंभव है। ज्ञान, विवेक, विद्वत्ता, यष, सम्मान, आर्थिक समृद्धि, राजा के समान फल आदि प्रदान करने वाले भगवान सूर्य ही हैं। सूर्य समस्त ग्रहों के राजा हैं, अतएव इनकी उपासना से सभी ग्रहों का कुप्रभाव स्वतः ही कम होने लगता है। इनकी उपासना से हमारे तेज, बल, आयु व नेत्रज्योति में वृद्धि होती है।

पुराणों में कहा गया है कि सूर्य समस्त रोगों से मुक्ति दिलाता है। मकर संक्रांति वह समय होता है जिस दिन भगवान सूर्य पृथ्वी के अत्यंत निकट होकर अपनी किरणों के माध्यम से समस्त रष्मियों का पूर्ण प्रभाव पृथ्वी के सभी प्राणियों पर बिखेरते हैं। अतएव समस्त मानव, विशेषतः सूर्य के समस्त श्रद्धालुजन व भक्तगण इस प्रयास में रहते हैं कि भुवन भास्कर सूर्य भगवान की इस कृपा को कैसे ग्रहण किया जाये। हमारे वेद, पुराण, शास्त्रों में सूर्य भगवान की पूजा, अर्चना, उपासना, वंदना, आराधना के अनेक विधान दिये गये हैं। जप, तप, व्रत व दान के अनेक उपाय हैं

जिनके माध्यम से सूर्य साधना सम्पन्न की जा सकती है। उनमें से संक्षेप में कुछ उपाय दिये जा रहे हैं:-

(1) मकर संक्रांति के दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल अभ्यंग, स्नान करना चाहिए। लाल वस्त्र पहनकर एवं लाल आसन बिछाकर सूर्य साधना, सूर्योदय से सूर्यास्त तक सम्पन्न करना चाहिए। निम्न मंत्रों का जाप श्रद्धानुसार कुल 28 हजार संख्या में करना चाहिए।

बीज मंत्र:- ऊँ घृणि सूर्याय नमः तांत्रिक मंत्र:- ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः

वैदिक मंत्र:- ऊँ आकृष्णेन रजसा व्वर्तमानो निवेषयन मृतम्मत्र्यंष्च हिरण्येन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।

पुराणोक्त मंत्र:- जपाकुसुम संकाषं काष्यपेयं महाद्युतिम। तमोऽरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्।।

कलष में पवित्र जल भरकर उसमें चंदन, अक्षत व लाल फूल डालकर दोनों हाथों को ऊंचा करके पूर्वाभिमुख होकर निम्न मंत्र से उदयमान सूर्य भगवान को अघ्र्य प्रदान करें:-

एहि सूर्य सहस्त्रांषो तेजोराषे जगत्पते। अनुकम्पयमां भक्तया गृहाणाघ्र्यं दिवाकर।। सूर्य से संबंधित स्तोत्र, कवच, सहस्त्र नाम, द्वादषनाम, सूर्य चालीसा आदि का पाठ करना चाहिए। सौर सूक्त, सूर्य अथर्वषीर्ष, सूर्याष्टकम्, आदित्यहृद्य स्तोत्र का पाठ अति उत्तम है। सत्यनारायण व्रत कथा पाठ एवं हरिवंषपुराण का पाठ करना या कराना हितकर है। यदि संक्रांति रविवार को पड़े तो रविवार का व्रत रखना चाहिए। इस दिन इस व्रत में नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इस महापर्व पर अपने पूजाघर में सिद्ध सूर्य यंत्र को स्थापित करें।

सूर्य रत्न माणिक व उपरत्न पहनने का तथा सूर्य के अंक यंत्र को गले में धारण करने का यह सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है। सूर्य मंदिर जाकर सूर्य मूर्ति के दर्षन करना पूजन-अर्चन करना एवं दान आदि करना कल्याणकारी है। मकर संक्रांति का स्वरूप शास्त्रों के अनुसार संक्रांति के वाहन, उपवाहन, वस्त्र, उपवस्त्र, आयुध, भोज्यपदार्थ, लेपन पदार्थ, जाति, पुष्प, आभूषण, अवस्था एवं दिषा आदि निष्चित किये गये हैं। दाते पंचांग के अनुसार इस वर्ष मकर संक्रांति का मुख्य वाहन भैंस एवं उपवाहन ऊंट है। नीले वस्त्र धारण करके हाथों में तोमर नामक अस्त्र लिये हुए वृद्धावस्था में बैठी हुई एवं दही भक्षण करते हुए प्रतीत होती है।

रूई की सुगंध से अभिभूत होकर आभूषण के रूप मे नील रत्न धारण किये हुए एवं मृग जाति की है। संक्रांति उत्तर दिषा में गमन करके ईषान कोण में देख रही है। वार नाम राक्षसी एवं नक्षत्र नाम नंदा होकर यह संक्रांति सम्पूर्ण जगत में सुख समृद्धि प्रदायक एवं कल्याणकारक है।

संक्रांति राशि फल इस वर्ष मकर संक्रांति मेष राषि के लिये अनिष्ट, वृषभ, मिथुन, कर्क राषि के लिये शुभ, सिंह, कन्या राषि के लिये कष्टप्रद, तुला, वृष्चिक, धनु, मकर राषि के लिये हानिप्रद एवं कुंभ और मीन राषि के लिये लाभदायक है।

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