कुंडली में भाव 6, 8 और 12 को निकृष्ट स्थान की संज्ञा दी गई है। इन भावों के स्वामी और इन भावों में स्थित ग्रह अपने गुण खोकर अपनी दशा या अंतर्दशा में जातक के लिए कष्ट उत्पन्न करते हैं। इन भावों के अतिरिक्त भाव 2 और 7 यश, धन, पद और संपŸिा दायक होने पर भी मारक स्थान कहलाते हैं, क्योंकि इन भावों के स्वामी और इनमें अधिष्ठित ग्रह अपनी दशा या अंतर्दशा में मृत्यु या मृत्यु तुल्य कष्ट प्रदान करते हैं। भाव 6, 8 और 12 के स्वामी जिस भाव में स्थित होते हैं, उस भाव के फल को भी नष्ट कर देते हैं। इसलिए इन सभी भावों को बाधक स्थान कहते हैं और इनके निकृष्ट स्वभाव को बाधक दोष कहते हैं। उदाहरणार्थ सौंदर्य और यौवन का प्रतीक शुभ ग्रह शुक्र मेष लग्न की कुंडली में भाव 2 और 7 के स्वामी तथा धनु लग्न की कुंडली में षष्ठ और एकादश भावों के स्वामी के रुप में धनप्रद होने पर भी रोग, ऋण, शत्रुओं के द्वारा मृत्यु जैसा दुख देने वाला है। अतः क्रूर भावों 6, 8 और 12 के लिए कुंडली में इनके स्वामियों का स्वगृही होना अपेक्षित है।
ऐसी अवस्था में इन भावों के स्वामी अपने ही भावों की दुष्टता को नष्ट करके शुभ योग बनाकर शुभफलप्रद हो जाते हैं। जैसे स्वगृही षष्ठेश से हर्ष योग, स्वगृही अष्टमेश से सरल योग और स्वगृही द्वादशेश से विमल योग बनता है। यहां हम बाधक दोष को किसी और रुप में अध्ययन करेंगे। कंुडली अध्ययन हेतु केंद्र दोष और मारक दोष की भांति बाधक दोष का विशेष प्रचलन नहीं है, किंतु इसके आकलन से सटीक फल प्राप्त होते हैं। महान ज्योतिर्विद् वराहमिहिर, पराशर, कालिदास, मंत्रेश्वर, ढुंढीराज, कल्याणवर्मा और गणेश के ग्रंथो में इस दोष का वर्णन नहीं है, मगर वेंकटेश और उनके पुत्र वैद्यनाथ द्वारा रचित सर्वार्थ चिंतामणी, अध्याय 17, श्लोक 2, जातक पारिजात, अध्याय 2, श्लोक 48 और हरिहर नंबूदरी के ग्रंथ प्रश्नमार्ग, अध्याय15, श्लोक 111, 112 और 113 में इस दोष का वर्णन है। बाधक क्या है? किसी कार्य में बाधा या रुकावट उत्पन्न करने वाला बाधक कहलाता है।
जन्मपत्री अध्ययन के समय कोई ग्रह योगकारी, लाभकारी और पद-प्रतिष्ठाकारी प्रतीत होता है, परंतु यथार्थ के धरातल पर वह अनिष्टकारी सिद्ध होता है, तब ग्रह की ऐसी अवस्था बाधक कहलाती है। ग्रहाणां स्थानवशेन परस्पर बाधकत्वमाह। क्रमाच्च रागद्विशरीरभनामुपान्त्य धर्मस्मर गास्तदीशाः। खरेशमांदीस्थित राशिनाथा अतीव बाधाकर खेचराः स्यु।। - सवार्थ चिंतामणी और जातक पारिजात। जन्म लग्न चर स्वभाव की राशि (मेष, कर्क, तुला या मकर) हो तो एकादश स्थान, इसका स्वामी और इसमें स्थित ग्रह। जन्म लग्न स्थिर स्वभाव की राशि (वृष, सिंह, वृश्चिक या कुंभ) हो तो नवम स्थान, इसका स्वामी और इसमें स्थित ग्रह। ंजन्म लग्न द्विस्वभाव की राशि (मिथुन, कन्या, धनु या मीन) हो तो सप्तम स्थान, इसका स्वामी और इसमें स्थित ग्रह बाधक होते हैं। खर या मांदी से युक्त राशि के स्वामी भी अतीव बाधाकारी होते हैं।
बाधक दोष केवल जन्म लग्न के लिए ही नहीं है, बल्कि प्रत्येक भाव के लिए होता है। जैसे, मेष लग्न की कुंडली में चर स्वभाव की मेष लग्न राशि के लिए बाधक स्थान एकादश भाव, द्वितीय भाव (जहां स्थिर स्वभाव की वृष राशि है) के लिए बाधक स्थान दशम भाव (जो कि द्वितीय से नवम स्थान पर है) और तृतीय भाव (जहां द्विस्वभाव की मिथुन राशि है) के लिए बाधक स्थान नवम भाव (तृतीय से सप्तम स्थान पर) है। एक उदाहरण स्थिर सिंह लग्न राशि का देखते हैं। मानलो सिंह लग्न में बृहस्पति और पंचम भाव में मांदी हैं। स्थिर सिंह राशि के लिए नवम भाव, नवमेश मंगल और उसमें स्थित ग्रह बाधक होंगे। इसी प्रकार तृतीय भावगत चर तुला राशि के लिए तृतीय से एकादश स्थान अर्थात् लग्न भाव, लग्नेश और इसमें स्थित ग्रह बाधक होंगे। मांदी स्थित धनु राशि का स्वामी बृहस्पति जो कि तृतीय से एकादश स्थान पर स्थित है, तृतीय भाव के लिए बाधक होगा, जिसकी दशा या अंतर्दशा में तृतीय भाव के फल प्राप्ति में बाधा उत्पन्न होगी।
धनु लग्न की कुंडली 1 में सप्तम भाव और सप्तमेश बुध बाधक हैं। स्वगृही और भद्रयोग होने के कारण इस बुध को हम विद्या-बुद्धि, नौकरी-व्यापार और यश-धन हेतु योगकारी और लाभकारी मानते हैं। किंतु ऐसा नहीं है। धनु और मीन लग्न वालों के लिए स्वगृही बुध की दशा या अंतर्दशा में अभीष्ट फल नहीं मिलते। ज्योतिषी और जातक दोनों चिंतित होते हैं कि ऐसे बलवान ग्रह के फल क्यों नहीं मिल रहे? यही बाधक दोष है। फिर भी, ऐसे जातक का विवाह शीघ्र हो जाता है, बशर्ते कि सप्तम भाव शनि से दृष्ट न हो। इसी प्रकार मिथुन और कन्या लग्न वालों के लिए सप्तम भाव और सप्तमेश बृहस्पति बाधक हैं। सप्तम भावगत स्वगृही बृहस्पति से हंस योग बनने पर भी इसका सर्वाधिक दोष वैवाहिक सुख का नाश होना है। इसका उदाहरण जयललिता की कुंडली है, जिसके सप्तम भावगत बृहस्पति सप्तम भाव के लिए बाधक होने के कारण वह अविवाहित है। ज्योतिष ग्रंथों में बाधक दोष का विस्तृत वर्णन न होने के कारण यह व्यापक शोध का विषय है।
एक प्रश्न है कि बाधक स्थान के स्वामी के लिए कुंडली में कौन सा उपयुक्त स्थान है? हम जानते हैं कि कुंडली में केंद्र और त्रिकोण भाव उन्नयन के स्थान हैं, मगर भाव 3, 6, 8 और 12 अवनयन के, जिसके कारण केंद्र और त्रिकोण के स्वामी की बलवान अवस्था अभीष्ट है, किंतु दुष्ट भाव के स्वामी की निर्बल अवस्था अभीष्ट है। इस तथ्य के आधार पर हम कह सकते हैं कि बाधक स्थान के स्वामी की अपने भाव से केंद्र या त्रिकोण स्थान में स्थिति बल वृद्धि कारक होने के कारण बाधक दोष युक्त होगी, किंतु अपने भाव से 3, 6, 8 और 12 वें स्थान में स्थिति बलहीन होने के कारण बाधक दोष से मुक्त होगी। धीरु भाई की कुंडली 2 में बाधक ग्रह बुध द्वादश भावगत है, जो सप्तम से षष्ठ स्थान पर होने के कारण बाधक दोष से मुक्त है और यश, धन एवं व्यापार वृद्धि के लिए लाभकारी है।
किंतु, कुंडली 1 में यही बुध शुभ ग्रह बृहस्पति से युक्त और स्वगृही होने पर भी व्यापारिक कार्यों के लिए प्रबल बाधक है। बुध के अतिरिक्त सप्तम भावगत बृहस्पति और केतु भी बाधक हैं। इन ग्रहों की अंतर्दशा में जातक को यश, धन, विद्या-बुद्धि और वैवाहिक सुख हेतु कोई शुभफल नहीं मिला। ऐसी अवस्था में जातक के लिए नौकरी उपयुक्त है, व्यापार करना नहीं। सूर्य-बृहस्पति की दशा में जातक की पत्नी सिर दर्द, बदन दर्द, जोड़ों के दर्द और चक्करों के आने से बहुत बीमार हो गयी थी, जिनसे वह अब तक परेशान है। बाधक ग्रह की एक और परिभाषा है कि जिस भाव में खर और मांदी उपस्थित हों, उस भाव का स्वामी भी बाधक दोष युक्त होता है। 22 वें द्रेष्काण को खर कहते हैं। स्व. वी. एस. शास्त्री और डाॅ. एस. जगन्नाथ राव जैसे विद्वान यह मानते हैं कि बाधक स्थान का स्वामी खर या मांदी से युक्त होने पर ही बाधक दोष से युक्त होता है।
इसके अतिरिक्त स्व. आर. लक्ष्मण के अनुसार जिन स्थिर लग्न राशियों की कुंडलियों में दीर्घायु का अभाव है, उनमें बाधक नवमेश मारक स्थान (3, 6, 7, 8 या 12 वें स्थान) में स्थित होकर मारक हो जाता है। इस प्रकार एक योगकारक ग्रह योगमारक हो जाता है। इस अवस्था में यह प्रश्न है कि क्या वृष लग्न वालों के लिए नवमेश शनि नवम से तृतीय स्थान पर मीन राशि में, नवम से सप्तम स्थान पर कर्क राशि में, नवम से अष्टम स्थान पर सिंह राशि में और नवम से द्वादश स्थान पर धनु राशि में मारक होगा? क्या सिंह लग्न वालों के लिए नवमेश मंगल नवम से अष्टम स्थान पर स्वराशि वृश्चिक में मारक होगा? क्या कुंभ लग्न वालों के लिए नवमेश शुक्र नवम से अष्टम स्थान पर स्वराशि वृष में मारक होगा? विद्वानों का एक विचार यह भी है कि बाधक ग्रह का दोष तब प्रकट होता है, जब वह षष्ठेश से युक्त हो।
ऐसी अवस्था में जातक शत्रुओं के द्वारा आर्थिक, दैहिक, सामाजिक और राजनैतिक रुप से कष्ट भोगता है। अनेक पंच सितारा होटलों के मालिक मोहनसिंह ओबराय की वृष लग्न की कुंडली 3 में नवमेश शनि नवम से द्वादश स्थान पर धनु राशिस्थ है। उनकी आयु 90 वर्ष से अधिक थी और उन्होंने अपने जीवन में बहुत यश, धन एवं संपŸिा एकत्र की। उनके जीवन में अनेक बार शनि की अंतर्दशा आने पर भी उन्हें कोई हानि नहीं हुई। अतः उपर्युक्त तथ्य शोध का विषय है। प्रश्नमार्ग में बाधक स्थान की परिभाषा आरुढ लग्न की स्थिति के आधार पर दी गई है। श्लोक 111 के अनुसार आरुढ लग्न चर, स्थिर और द्वि स्वभाव की राशि में स्थित होने पर उस आरुढ से क्रमशः 11, 9 और 7वां स्थान बाधक होता है।
बाधक स्थान से केंद्र स्थान भी बाधक दोष युक्त होते हैं। श्लोक 112 के अनुसार सभी चर राशियों के लिए कुंभ राशि बाधक होती है, सिंह, कन्या, वृश्चिक और धनु राशियों के लिए वृश्चिक बाधक होती है, वृष राशि के लिए मकर, कुंभ के लिए कर्क और मिथुन तथा मीन के लिए धनु राशि बाधक होती है। बाधकस्थानाधिपति और उससे युक्त ग्रह अपनी दशा में रोग, शोक और दुखदायक होते हैं। इनकी दशा में विदेश जाना पड़ता है। आरुढ राशौ चर आयराशौ, स्थिरे तु बाधा नवमे विचिन्तया। तथोभये कामगृहे, त्रयाणां केन्द्रेशु चैषामिति केचिदाहुः।।
चरस्थिरोभये लग्ने लाभधर्माः तपै क्रमात्। त्रयाणां केन्द्रसंस्थैश्च ग्रहैर्बाधकमुच्यते।। उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि सभी चर राशियों के लिए स्थिर राशि अधिष्ठित स्थान बाधक हैं। सभी स्थिर राशियों के लिए चर राशि अधिष्ठित स्थान बाधक हैं। सभी उभय राशियों के लिए उभय राशि अधिष्ठित स्थान बाधक हैं। कंुडली 4 कर्क लग्न की है, जिसका चर स्वभाव होने के कारण एकादश स्थान और इसका स्वामी शुक्र बाधक दोष से युक्त हैं। एकादश भावगत केतु भी बाधक है। शुक्र चतुर्थ और एकादश का स्वामी होने के कारण एक योगप्रद और शुभफलप्रद ग्रह है।
इस कुंडली में शुक्र स्वगृही होने के कारण मालव्य योग का निर्माण कर रहा है, जिसके शुभ फलों की ज्योतिष के सभी ग्रंथों में बहुत महिमा है। किंतु व्यवहारिक रुप में यह केवल शुभफलप्रद ही नहीं है, बल्कि दुखप्रद भी है। इस व्यक्ति के जीवन में शुक्र की महादशा मई 1991 से मई 2011 तक है। शुक्र-राहु की दशा (जुलाई 1998 से शुरु) में इस व्यक्ति की आर्थिक स्थिति निर्बल होने लगी। आय के साधन सीमित होने लगे। मार्च 2000 में बाधक केतु का प्रत्यंतर शुरु हुआ जो ऐसा दुखप्रद रहा कि इस समय में इसका पुत्र एक दुर्घटना में बुरी तरह घायल हो गया जिसके बचने की उम्मीद धूमिल हो गई थी।
इसके इलाज में लाखों रुपया खर्च हो गया। शुक्र की दशा के अंतर्गत गुरु, शनि और बुध की अंतर्दशाएं भी विशेष सुखदायी नहीं रही, जिनमें पग-पग पर बाधाएं आती रही हैं। इस प्रकार शुभ और योगप्रद प्रतीत होने वाले ग्रह भी बाधक दोष उत्पन्न करते हैं।