प्राचीनकाल के विद्वानों ने अपनी दूरदर्शिता और अनुभूति के आधार पर तथा जन्मकुंडली में ग्रह-राशियों के विन्यास से यह आकलन करने का प्रयास किया कि किस रत्न के प्रयोग से मनुष्य की दैहिक और मानसिक विसंगतियां दूर होती हैं। ज्योतिष शास्त्र के अतिरिक्त आयुर्वेद शास्त्र में भी रत्न प्रयोग से दैहिक रोग मुक्ति का विधान है। रत्न सिद्धांत: आकाश, अग्नि, जल, वायु और पृथ्वी नामक पंचमहाभूतों से प्राणी देह का ही नहीं, बल्कि संपूर्ण प्रकृति का निर्माण हुआ है। समन्वित पंचमहाभूतों के स्थापन से हमारी देह स्वस्थ रहती है, मगर इनमें समन्वय के अभाव से देह अनेक व्याधियों से प्रकुपित होने लगती है।
भौतिक शास्त्र का नियम है कि इस ब्रह्मांड में सभी चेतन और अचेतन पदार्थ एक-दूसरे को आकर्षित करने की अद्भुत क्षमता रखते हैं, जिसे गुरुत्वाकर्षण बल कहते हैं। इसी बल के कारण राशि, नक्षत्र और ग्रहों के रुप में सभी आकाशीय पिंडों की निश्चित स्थिति बनी हुई है। इन पिंडों में समाहित ऊर्जा का प्रकाश और चुंबकत्व के रूप में हमेशा विकिरण होता रहता है, जिससे इस पृथ्वी पर उपस्थित जीव जंतु और वनस्पति चेतन स्वरुप अर्थात् क्रियाशील होकर अपना जीवन यापन कर रहे हैं। देहांतर्गत पंचमहाभूतों की अवस्था में न्यूनाधिक्य असंतुलन होना स्वाभाविक है।
किसी अवस्था विशेष में शरीर में उपस्थित सत्, रज और तम गुणों में से एक या दो गुण न्यून अथवा प्रधान होकर दैहिक कोशिकाओं की यांत्रिक और विद्युत-चुंबकीय प्रणाली में व्यापक परिवर्तन कर देते हैं, जिनसे देह व्याधि युक्त हो जाती है। आकाशीय पिंडों से उत्सर्जित ऊर्जा मनुष्य को दैहिक और मानसिक रुप से बहुत प्रभावित करतीे है।
शिशु के जन्म के समय यह ऊर्जा शिशु के संवेदनशील कोशिकाओं की कार्य प्रणाली को कुछ इस प्रकार संवेदित, उŸोजित और नियंत्रित करती है, जिससे कि उसके संपूर्ण जीवन का दिशा-निर्देशन हो जाता है। हमारी दैहिक संरचना ऐसी जटिल है कि हमारी मस्तिष्कीय कोशिकाओं और ऊतकों की कार्य प्रणाली जैसे प्रत्यक्षण, स्मृति, चिन्तन- अभिविन्यास, विश्लेषण क्षमता और अन्य मानसिक कार्यो में आकाशीय ग्रहों के विचरण के कारण उनसे उत्सर्जित ऊर्जा की न्यूनाधिक्य मात्रा से व्यापक परिवर्तन होते हैं, जिनसे मनुष्य के संज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक क्षेत्रों में अनेक शुभ-अशुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं। ग्रहों की किसी विशेष अवस्था और उनसे उत्सर्जित ऊर्जा की किसी विशेष मात्रा से दैहिक और मानसिक पुष्टता होती है, जो उत्साह, उमंग, वीरता, विवेकशीलता और पराक्रम की द्योतक है तथा ग्रहों की किसी विपरीत अवस्था में दैहिक और मानसिक दुर्बलता होती है, जो, निराशा, हताशा और असफलता की द्योतक है।
ऐसी दुर्बलता की अवस्था जिन ग्रह और नक्षत्रों के कारण होती है, उससे संबंधित रत्न धारण करने से मुक्ति मिलती है। इस प्रकार रत्न संबंधित ग्रह की रश्मियों को एकत्र करके हमारी देह में समावेश करा कर उस ग्रह को अनुकूल करने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। इसके लिए रत्न जड़ित मुद्रिका इस प्रकार बनाई जाती है कि रत्न दैहिक त्वचा को स्पर्श करता रहे। विभिन्न रत्नों को विभिन्न उंगलियों में धारण किया जाता है, क्योंकि प्रत्येक उंगली से निकलने वाली संदेश संवाहिक तंत्रिका मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों में जाती है।
इसलिए रत्न विशेष का प्रभाव उंगली विशेष के माध्यम से मस्तिष्क की विशेष कोशिकाओं को संवेदित करती है। ज्योतिष के अनुसार जब जन्म कुंडली, गोचर कुंडली या विंशोŸारी दशा में कोई ग्रह निर्बल होता है और उसकी निर्बलता से शरीर में रोग उत्पन्न होता है, तब उस ग्रह से संबंधित रत्न धारण करके या उस रत्न की भस्म का सेवन करके उस ग्रह को बलवान किया जाता है।
यह रत्न चिकित्सा का मूलभूत आधार है। यह विज्ञान सम्मत है कि रत्न एक लेंस और प्रिज्म की भांति कार्य करते हैं, जो आकाशीय प्रकाश किरणों को संग्रह करके अपवर्तित करते हैं, जिनसे हमारे कोशिकीय तंतुओं का पोषण होता है। आयुर्वेद के अनुसार सŸव गुण प्रधान देह का अर्थ है- दया, दान, क्षमा, सत्य, धर्म, ज्ञान, स्मृति, मेधा, धृति, आस्तिकता बुद्धि, और अनासक्ति से युक्त मानवीय देह का निर्माण। रज गुण प्रधानता का अर्थ है
- अहंकार, अधीरता, क्रूरता, झूठ, ढोंग, कपट, अत्यधिक हर्ष, मान, काम और क्रोध से युक्त देह का निर्माण। तमो गुण प्रधानता का अर्थ है
- अज्ञानता, आलस्य, अधार्मिकता, नास्तिकता, मानसिक उद्विग्नता, मूढता और निद्रालुता से युक्त देह का निर्माण। सत्व गुण देह पुष्टि का और अन्य दोनों देह क्षय का कारक हैं, जो दुःख और विषादि अवगुण हैं। अतः सत् गुण की न्यूनता और रज तथा तमो गुण की प्रधानता विभिन्न प्रकार के रोगों की संभावनाएं व्यक्त करते हैं। इन रोगों की चिकित्सा हेतु अनेक प्रणालियों में से एक है
- रत्न चिकित्सा। यद्यपि हमारे शास्त्रों में 84 रत्नों का वर्णन है, किंतु व्यावहारिक रुप से केवल 9 रत्नों का उपयोग होता है। इन सभी रत्नों में भी सŸव, रज और तम गुण होते हैं, इसलिए शरीर में जब किसी ऐसे गुण की न्यूनता या अधिकता हो जाती है, तो उसकी साम्य अवस्था स्थापन के लिए अर्थात् क्षय युक्त दोष धातु के वर्धन के लिए और वृद्धि युक्त दोष धातु के हासन के लिए रत्न विशेष को धारण या उसकी भस्म का सेवन किया जाता है।
रत्नों की पहचान: रत्न विशिष्ट गुणों से लब्ध पाषाण हैं, जिनकी संख्या 84 आंकी गई है। इनमें भी अपने गुण वैशिष्ट्य के कारण 9 रत्न वरीयता प्राप्त हैं। रत्न में कोई धब्बा, गड्ढा, दरार, बिंदु, काली, नीली या लाल धारी नहीं हो। दूध में डालने से रत्न की किरणों की आभा प्रकट हो। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रत्येक रत्न के लिए आपेक्षिक घनत्व, आपेक्षिक कठोरता और अपवर्तनांक संख्या निश्चित होती है, जिसके आधार पर रत्नों की पहचान सुगमता से की जा सकती है।
जब प्रकाश की किरणें एक माध्यम से दूसरे माध्यम में प्रवेश करती हैं तो न केवल उनके मार्ग का अपवर्तन होता है, बल्कि उनकी गति में भी परिवर्तन होता है, जिसका अपवर्तनांक से बोध होता है। प्रत्येक रत्न के लिए इसका मान निश्चित है, जिसके आधार पर रत्न के असली या नकली होने की पहचान की जाती है।
कुछ रत्नों का आपेक्षिक घनत्व और अपवर्तनांक इस प्रकार है: रत्न आपेक्षिक घनत्व अपवर्तनांक माणिक्य 4.03 1.76 पन्ना 2.70 1.58 पुखराज 3.53 1.62 हीरा 3.52 2.42-2.46 नीलम - 1.77 गोमेद 4.20 1.93-1.98 लहसुनिया - 1.75 रत्न धारण के कुछ नियम
1. जिस रत्न को धारण करें, उस रत्न का स्वामी ग्रह लग्नेश का मित्र हो। यदि दोनों ग्रह आपस में शत्रु हों तब ऐसे रत्न को केवल ऐसे ग्रह की महादशा या अंतर्दशा में ही धारण करें।
2. सामान्य रुप से कुंडली के केंद्र या त्रिकोण भावों के स्वामी ग्रह के रत्न धारण करके इन भावों को बलवान करना श्रेष्ठ होता है। कुंडली में केंद्र और त्रिकोण स्थान शुभ होते हैं, इसलिए इनके स्वामियों को बलवान करना अभीष्ट अभिप्राय है।
3. द्वितीय और सप्तम भाव के स्वामी अपनी महादशा या अंतर्दशा में मारकेश होते हैं। यद्यपि यें ग्रह जातक को धन-दौलत प्रदान करने वाले होते हैं, किंतु मृत्यु या मृत्यु तुल्य कष्ट भी उत्पन्न कर सकते हैं, इसलिए ऐसे ग्रह के रत्न धारण न करें, बल्कि इन ग्रहों की व्रत, पूजा-दान आदि से शांति करें।
4. तृतीय, षष्ठ, अष्टम, एकादश और द्वादश भावों के स्वामी ग्रहों से संबंधित रत्न धारण न करें, क्योंकि ये भाव मानसिक और दैहिक कष्टों के स्थान हैं। इसलिए इन भावों को बलवान करने की आवश्यकता नहीं है। तृतीय और अष्टम भाव आयु के भी स्थान हैं। यदि इन भावों के स्वामी निर्बल हैं, तब इनकी महादशा या अंतर्दशा में संबंधित रत्न को अस्थाई रुप से धारण कर सकते हैं।
5. शत्रु ग्रहों के रत्न एक साथ धारण न करें, जैसे सूर्य, चंद्र, मंगल और बृहस्पति आपस में मित्र हैं, मगर शनि, राहु और केतु के शत्रु हैं। अतः माणिक्य, मोती, मंूगा और पुखराज के संग नीलम, गोमेद एवं लहसुनिया कदापि धारण न करें। बहुत से व्यक्ति अनेक प्रकार के रत्न धारण किए रहते हैं। यदि उन रत्नों के ग्रहों में मित्रता नहीं है, तब वांछित फल की आशा नहीं करनी चाहिए।
6. जिस ग्रह की महादशा या अंतर्दशा चल रही हो, उससे संबंधित रत्न को शुभ मुहूर्Ÿा जैसे सवार्थ सिद्धि, अमृत सिद्धि योग या शुक्ल पक्ष के प्रथम सप्ताह के अंदर अभीष्ट ग्रह के वार और होरा में धारण करें। इस पक्ष में चंद्र का बल बढ़ना शुरु हो जाता है।
7. रत्न जड़ित अंगूठी को धारण करने से पूर्व उसे शुद्ध करने के लिए कम से कम 24 घंटे तक कच्चे दूध या गंगा जल में डाल कर रखें। इसके बाद रत्न की प्राण-प्रतिष्ठा हेतु प्रातःकाल में संबंधित ग्रह की होरा में किसी स्वच्छ स्थान में बैठकर रत्न को स्वच्छ जल से धोकर धूप, दीप और अगरबŸाी दिखाकर रत्न संबंधित ग्रह की कम से कम आधा घंटा एक माला जप, उपासना करके रत्न को धारण करें। इस समय धारक का मुंह पूर्व दिशा की ओर रहे।
रत्न धारण के पश्चात् रत्न की मान-मर्यादा बनाकर रखनी चाहिए, जैसे किसी दाह-संस्कार, अशुद्ध स्थान और अन्य अशुभ कार्य के समय रत्न उतार देना श्रेयस्कर है। माणिक्य: यह सूर्य का रत्न है। सूर्य एक राजसिक ग्रह है, इसलिए शासन और प्रबंधन से संबंधित व्यक्तियों को जिन्हें कुछ अतिरिक्त आत्मबल और ओज की आवश्यकता होती है, लगभग सवा पांच से सवा सात रŸाी तक का माणिक्य स्वर्ण मुद्रिका में दायें हाथ की अनामिका उंगली में धारण करना चाहिए। सूर्य अग्नि तत्व, सŸव-रज गुण प्रधान और आत्मतत्व का प्रणेता है। सŸव गुण आकाश नामक महाभूत का गुण है।
इसलिए, मनुष्य देह में आकाश और अग्नि दोनों प्रकार के दोष या रोग - जैसे हृदय का संकचन, धमनियों का लचीलापन, दैहिक अंगों और अस्थियों का स्फूरण, नेत्र एवं आंत्र गति में व्यवधान होने पर माणिक्य का उपयोग हितकारी होता है। द्वितीय और द्वादश भावगत सूर्य पीड़ित अवस्था में नेत्र रोग तथा चतुर्थ भावगत पीड़ित सूर्य हृदय रोग उत्पन्न करता है। कुंडली में शनि, राहु और केतु की युति या दृष्टि प्रभाव से सूर्य निर्बल होता है, जिसके कारण मनुष्य में हृदय रोग, नेत्र रोग और आंत्र रोग होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार माण्क्यि की भस्म वात, पिŸा और कफ नाशक तथा देह अंगों में स्निग्धता कारक होती है। इससे क्षय रोग, पाण्डु रोग मंदाग्नि और जननंेद्रियों की शिथिलता नष्ट होती है।
यद्यपि सूर्य की महादशा या अंतर्दशा में सभी लग्नों के व्यक्ति माणिक्य को धारण कर सकते हैं, फिर भी नौकरी, व्यापार, प्रबंधन और शासन में कार्यरत् मेष, वृष, सिंह, वृश्चिक और धनु लग्न के व्यक्ति इसे हर समय धारण कर सकते हैं। मोेती: चंद्र आकाश और जल नामक दो महाभूत तथा साŸिवक गुणों का प्रतिनिधि होता है। चंद्र का यह रत्न मोती सौम्य, शीतल, शीतवीर्य और प्रकृति तथा श्रृंगार रस का प्रेमी होता है। जब देह में अग्नि तत्वों के कारण पिŸाजनक रोग होते हैं, तब मोती का रत्न और भस्म के रूप में उपयोग करने से संबंधित रोगों का शमन होता है।
जो मनुष्य अस्त या पाप ग्रहों से पीड़ित चंद्र के कारण दैहिक और मानसिक रूप से निर्बल हैं, कुवृŸिायों के शिकार हैं, उद्विग्न, विवेकहीन, और उत्साहहीन हैं, उनमें दूरदर्शिता नहीं होती और सही समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता नहीं होती, ऐसे लोग अम्ल पिŸा, उच्च रक्तचाप, मूत्राधात, श्वास रोग, राजयक्ष्मा, देह का अन्तर्दाह, मृगी, भ्रम, हिस्टीरिया जैसे रोगों से बहुत शीघ्र पीड़ित हो सकते हैं। ऐसे मनुष्य मोती को रत्न और भस्म के रूप में अवश्य उपयोग करें। मोती से कला, प्रकृति और नारी के प्रति प्रेम तथा कल्पना शक्ति के बढ़ने के कारण लेखन, काव्य और अभिनय से जुड़े लोगों के लिए इसको धारण करना लाभकारी होता है।
इससे स्त्रियों के यौवन की वृद्धि होती है और पुरुष उनके मोहपाश में बंधने के लिए आतुर रहते हैं, इसलिए जिन कुंडलियों के भाव 1, 2, 4, 7, 8 या 12 में मंगल और राहु की उपस्थिति से या किसी अन्य कारण से परिवारों में पति-पत्नी के मध्य कलह रहती है, उन परिवारों की स्त्रियों को गृह शांति हेतु मोती धारण करना चाहिए। मंूंगा: यह मंगल का रत्न है। मंगल अग्नितत्व है और ऊर्जा का स्रोत है, इसलिए इसका रत्न मूंगा युद्ध, शौर्य, पराक्रम, रक्तपात, धैर्यहीनता, उद्विग्नता, कामुकता, सेना, पुलिस, खेल और साहसिक कार्यों का प्रणेता है। मंगल पर सूर्य, शनि, राहु या केतु के दुष्प्रभाव से गर्भपात, रक्तविकार, चर्मरोग, पिŸादोष, हृदय दौर्बल्य, फोड़े-फुंसी, बवासीर, निर्बलता जैसे रोग होते हैं।
ऐसे लोग मूंगा धारण करके मंगल की निर्बलता समाप्त कर सकते हैं। जिन व्यक्तियों की कुंडलियों में मंगल केंद्र या त्रिकोण का स्वामी है, उन्हें स्वर्ण मुद्रिका में मूंगा अवश्य धारण करना चाहिए। आयुर्वेद के अनुसार मूंगे की भस्म कफनाशक, क्षयनाशक, पाण्डुरोगनाशक, रक्त-पिŸाशामक और वीर्यवर्द्धक होती है। इसके सेवन से हृदय की दुर्बलता नष्ट होती है, मस्तिष्क का बल बढ़ता है और रक्तचाप की वृद्धि नहीं होती। पन्ना: यह बुध का रत्न है, इसलिए युवराज और रजोगुणी है।
इससे पिŸा का शमन होता है, इसलिए पिŸा प्रकृति वाले मनुष्यों को मानसिक शांति और स्मरण शक्ति की वृद्धि हेतु पन्ना बहुत लाभदायक है। यह बुध ग्रह से उत्सर्जित रश्मियों को प्रदान करके धारक के ओज की वृद्धि करता है अग्नि को प्रदीप्त करके पाचन क्रिया और देहबल को बढ़ाता है। इसके उपयोग से यश, धन-धान्य, धैर्य, विवेक, व्यापार-वाणिज्य और वाक्शक्ति की वृद्धि होती है। मनुष्य के शरीर में बुध का प्रभाव कम होने से श्वास संस्थान, पाचन संस्थान और तंत्रिका संस्थान बिगड़ने लगते हैं तथा जातक की कफ प्रकृति होने लगती है। स्वर यंत्र में नम्रता और मिठास का अभाव होने लगता है तथा वाक् शक्ति निर्बल होती है।
ऐसे व्यक्तियों को स्वर्ण मुद्रिका में पन्ना धारण करके अपने शरीर में बुध की हरे रंग की रश्मियों को ग्रहण करना चाहिए। आयुर्वेद के अनुसार इसकी भस्म से विष विकार, अम्लपिŸा, पाण्डुरोग, अर्श, वमन, प्यास और शोथ नष्ट होते हैं। पुखराज: यह देवताओं के गुरु बृहस्पति का रत्न है। बृहस्पति सात्विक ग्रह है, इसलिए पुखराज धर्म, न्याय, ज्ञान, विवेक और सदाचार का प्रणेता है। मठाधीश, न्यायाधीश, शासनाध्यक्ष, प्रबंधक, प्रकाशक, लेखक और संतानहीन व्यक्तियों के लिए यह बहुत उपयोगी है। इससे नौकरी में पदोन्नति, व्यापार में लाभ, स्त्रियों के प्रसव और कन्याओं के विवाह में हो रही बाधाएं नष्ट होती हैं। यह वात, पिŸा और कफनाशक है तथा हृदय, मस्तिष्क, जठराग्नि और वीर्य के बल का वृद्धिकारक है। इससे वीर्य में एक विशेष क्रोमोसोम की संख्या बढती है, जिससे पुत्र उत्पन्न होने की संभावना होती है।
बृहस्पति पर पाप ग्रहों के प्रभाव से यकृत, गुर्दे और अग्नाशय से संबंधित रोग होते हैं, जैसे मधुमेह, पथरी इत्यादि। ऐसे लोगों को पुखराज धारण करना चाहिए। यह विश्वास किया जाता है कि दंत और मुख रोग वाले व्यक्ति यदि पुखराज को रोजाना कुछ समय के लिए अपने मुंह में रखें तो उनके रोग नष्ट होने लगते हैं। इसी प्रकार कुष्ठ और कैंसर से पीड़ित रोगियों के कष्ट इससे दूर हो सकते हैं। इसकी भस्म से विष, कफ, वात, दाह, बवासीर और हृदय स्पंदन के विकार नष्ट होते हैं।
हीरा: यह दानवों के गुरु शुक्र का रत्न है। यह कामुक और रसिक है, इसलिए इसके धारण करने से नृत्य, सौंदर्य, शृंगार रस, नारी प्रेम, यौवन, कामोŸोजना और मादकता की वृद्धि होती है। यह स्त्री-पुरुष में आकर्षण, वशीकरण और सम्मोहन का प्रतीक तथा नपुंसकता नाशक है, इसलिए संसार भर के स्त्री-पुरुष इसे धारण करने के लिए लालायित रहते हैं। हीरे की भस्म देहबल, नेत्र ज्योति और आयुवर्द्धक है।
इससे जननांग पुष्ट होते हैं तथा वात, पिŸा, कफ, क्षय, कुष्ठ, पाण्डु और भगंदर रोग नष्ट होते हैं। आयुर्वेद के ग्रंथ में वर्णन है कि हीरा भस्म, रससिंदूर, कपूर, छोटी इलायची और शक्कर के मिश्रण को 6 माह तक दूध से सेवन करने से सौंदर्य, देहबल, पाचन शक्ति और संभोग शक्ति की बहुत वृद्धि होती है। नीलम: यह शनि का रत्न है। जब कंुडली में शनि अशुभ होता है तो जातक नीच, पतित, कलहकारी और आपराधिक स्वभाव का होता है। ऐसे लोगों की वैचारिकता और मानसिकता कलुषित होती है तथा वे चोरी, ठगी, धोखाधड़ी, और रिश्वतखोरी से परहेज नहीं करते। नीलम धारण करने से इस प्रकार के व्यक्तियों का बौद्धिक स्वरूप निखर सकता है। नीलम त्वरित कार्य करने वाला एक प्रभावशाली रत्न है और यह हर किसी को अनुकूल सिद्ध नहीं होता।
इसलिए इसे धारण करने से पूर्व एक या दो दिन जेब में रखकर इसकी अनुकूलता का परीक्षण कर लेना चाहिए। यह रत्न बैंगनी रंग की रश्मियों को वातावरण से शोषित करके धारक को प्रदान करता है। इन रश्मियों में नीले और लाल रंग का मिश्रण शांति और उत्साह का संचार करता है, जिससे धारक की विचार शैली में उत्कृष्टता, विश्लेषण करने और उचित समय पर उचित निर्णय लेने की क्षमता उत्पन्न होती है तथा दार्शनिकता और दूरदर्शिता का समावेश होता है। शनि से वायुदोष, मस्तिष्क, स्नायुमंडल और जनेंद्रियों से संबंधित रोग होते हैं।
नीलम धारण करके इन रोगों से मुक्ति मिलती है। आयुर्वेद के अनुसार नीलम की भस्म वात, पिŸा, कफ, मलेरिया, बवासीर और अस्थमा की नाशक है। इसे प्रवाल भस्म और सितोपलादी चूर्ण के साथ प्रयोग करने से कफ, खांसी और दमा का नाश होता है तथा इसे मल्ल अर्थात् संखिया भस्म और भुनी हुई फिटकरी के साथ मिलाकर तुलसी के रस के संग सेवन करने से मलेरिया नष्ट होता है। गोमेद: यह राहु का रत्न है।
राहु तमोगुण प्रधान, अचानक घटनाओं को घटित करने वाला, चतुर - चालाक और बुद्धि को भ्रष्ट करने वाला छाया ग्रह है। तमोगुण से बुद्धि की सहजता और सरलता नष्ट होती है। गोमेद तमोगुण का नाशक है, इसलिए यह बल, वीर्य, आयु और मस्तिष्क क्षमता को बढ़ाने का गुण रखता है। जब राहु अपनी महादशा या अंतर्दशा में अपमान, अनिंद्रा, कुतर्क, राजनीति और प्रशासन में असफलता प्रदान कर रहा हो, तब इसके रत्न गोमेद को धारण करना चाहिए। यह वाद-विवाद और प्रतियोगिताओं में सहायता करता है तथा प्रबंधन और शासकीय कार्यों में तनाव सहने की क्षमता प्रदान करता है।
यदि कुंडली में राहु द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश भाव में हो तो गोमेद को धारण करने से पूर्व एक माह तक जेब में रखकर इसकी अनुकूलता का परिक्षण कर लेना चाहिए। गोमेद की भस्म दीपक, पाचक, बुद्धिवर्द्धक और रक्ताणुओं की वृद्धिकारक है। रोग भोगने के पश्चात् जब मंदाग्नि हो जाती है, भूख नहीं लगती और पाचन शक्ति निर्बल हो जाती है, तब इसकी भस्म के सेवन से लाभ होता है। इसकी भस्म को ब्राह्मी और बच के साथ सेवन करने से बुद्धि की वृद्धि होती है।
लहसुनिया, वैदुर्य: यह बिल्ली की आंख जैसा केतु का रत्न है। राहु की भांति केतु भी तमोगुणी और घटनाओं को अचानक घटित करने वाला छाया ग्रह है। यदि कुंडली में केतु भाव 2, 7, 8, या 12 में हो, तो इसकी अनुकूलता के परीक्षण के पश्चात् ही इसके रत्न को धारण करें, अन्यथा लाभ के बजाय हानि की आशंका रहेगी। इस रत्न को धारण करने से भूत-प्रेत का भय, प्रसव वेदना, नेत्र रोग, श्वास रोग, अजीर्ण, अतिसार, आमवात, प्रदर, प्रमेह, पाण्डु, कामला, नपुंसकता, सिफलिस और गोनोरिया जैसे रोगों में लाभ होता है। विद्वानों का एक विचार यह है कि प्रसूता स्त्री इस रत्न को धारण करे तो उसे प्रसव वेदना नहीं होती।
इस रत्न को सूर्यास्त के पश्चात् उस दिन धारण करना हितकर है, जब चंद्र मेष, धनु या मीन राशि में हो या उस दिन अश्विनी, मघा या मूल नक्षत्र हो। यदि कुंडली में केतु द्वितीय, सप्तम, अष्टम और द्वादश भाव में हो तो इस रत्न को धारण न करें या फिर धारण करने से पूर्व एक माह तक जेब में रखकर इसकी अनुकूलता का परीक्षण कर लेना चाहिए।