प्रत्येक मनुष्य के जीवन में शुभ अवसरों के संग अशुभ अवसर भी आते हैं, जिनके कारण वह आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक या पारिवारिक रुप से कुछ न कुछ कष्ट अवश्य झेलता है। ऐसे कष्टों से वह मनुष्य घोर उदासी, निराशा और विषाद की धुध से त्रस्त हाकर अपने जीवन को रसहीन, सारहीन, निर्रथक और बेजान जानकर अवसाद से ग्रस्त हो जाता है या आत्महत्या की ओर प्रेरित होने लगता है। ऐसे घातक समय के कारण और निवारण का बोध जातक की कुंडली के ज्योतिषीय अध्ययन से सहज ही हो सकता है। कुंडली में त्रिकोण के रुप में भाव 5 और 7, केन्द्र के रुप में 1. 4. 7 और 10 शुभ तथा त्रिक अथवा त्रिषडाय के रुप में भाव 6, 8 और 12 अशुभ संज्ञक हैं। विचारणीय भाव से उसका स्वामी सुस्थानों जैसे 4, 5, 7, 9 और 10 में हो तो उस भाव की समृद्धि होती है, किन्तु यदि 6, 8 या 12 वें जैसे कुस्थान पर हो तो वह भाव निर्बल होकर अवाॅछित फल देता है।
इस श्लोक में सु या कु स्थान का निर्णय लग्न से करने का भी संकेत है। महर्षि पराशर ने षष्ठ से षष्ठ स्थान पर होने के कारण भाव 11 और अष्टम से अष्टम स्थान पर होने के कारण भाव 3 को भी अशुभ माना है। केन्द्र और त्रिकोण के स्वामियों की दशा में मनुष्य के धन, पद, प्रतिष्ठा और कीर्ति की वृद्धि होती है, किन्तु त्रिक अथवा त्रिषडायेश के काल में धन, पद, प्रतिष्ठा और कीर्ति का नाश होता है। यही वह काल है, जिसे भविष्य के रुप में हम सभी बोध करना चाहते हैं। ज्योतिष विद्वानों ने केन्द्र और त्रिकोण भावों को सदैव शुभ माना है। मानसागरी जैसे सभी ज्योतिष ग्रंथों में वर्णन है कि केन्द्र में एक भी शुभग्रह बली अवस्था में हो तो वह सभी दोषों का नाशक और दीर्घायु देने वाला होता है।
जैसे बुध, गुरु और शुक्र इनमें से एक भी केन्द्र में हो और सभी दुष्ट ग्रह विरुद्ध भी हों तो भी सभी दोष नष्ट हो जाते हैं, जैसे सिंह को देखकर मृग भाग जाते हैं उसीप्रकार सभी दोष भाग जाते हैं। यह भी वर्णन है कि लग्नभावगत बुध से एक हजार, शुक्र होने से दस हजार और बृहस्पति होने से एक लाख दोषों का शमन होता है। हमारे विचार से यह अतिश्योक्तिपूर्ण कथन है। शुक्रो दशसहस्त्राणी बुधो दश शतानि च। लक्षमेकं तु दोषाणां गुरुर्लग्ने व्यपोहति।। मानसागरी त्रिकोणेश सौम्य या क्रूर कोई भी ग्रह हो, सदैव शुभफलप्रद होता है, किन्तु केन्द्रेश ? केन्द्रेश के रुप में शुभ ग्रह -चंद्रमा, बुध, गुरु और शुक्र वाॅछित शुभफल नहीं देते। इन्हें केन्द्र अधिपत्य दोष से दूषित मानते हैं, मगर पाप ग्रह -सूर्य, मंगल, और शनि अपने पापी स्वभाव छोडकर शुभफल देने लगते हैं।
कर्क लग्न वालों के लिए मंगल और वृष तथा तुला लग्न वालों के लिए शनि केन्द्र और त्रिकोण के स्वामी होने के कारण सदैव शुभफलप्रद होते हैं। सूर्य और चंद्रमा को छोडकर अन्य सभी ग्रहों की दो-दो राशियाॅ होती हैं, जिनमें से एक राशि केन्द्र या त्रिकोण में होने के उपरांत दूसरी राशि पाप संज्ञक स्थान में पडती है। तब शुभ-अशुभ का निर्णय कैसे करें ? इस संबंध में यह मान सकते हैं कि यदि त्रिकोणेश और षष्ठाष्टमेश शुभ ग्रह है तो साधारण शुभफलदाता और यदि वह पाप ग्रह है तो अशुभफलदाता होगा। इसीप्रकार केन्द्रेश और षष्ठाष्टमेश शुभ ग्रह है तो अशुभफलदाता और यदि वह पाप ग्रह है तो मिश्रितफलदाता होगा।
कर्क लग्न के लिए बृहस्पति षष्ठेश और नवमेश होने के कारण साधारण फल ही देता है, किन्तु चतुर्थेश और एकादशेश शुक अशुभफलदाता होगा, बशर्ते कि वह स्वराशिस्थ न हो, अर्थात् स्वराशिस्थ होकर ही शुभफलप्रद होगा। शुभ-अशुभ से संबन्धित साधारण विचार यह है कि जिस भाव का स्वामी अस्त हो, अपनी नीच या शत्रु राशि में हो, अपने स्थान से षष्ठाष्टम अथवा द्वादश स्थान पर हो या इनके स्वामियों से युक्त अथवा दृष्ट हो तो उस भाव के फल नष्ट हो जाते हैं। अतः षष्ठाष्टमेश द्वितीय भावगत होकर धनहानि, चतुर्थ भावगत होकर भू-संपत्ति, वाहन आदि के सुखों की हानि, पंचम भावगत होकर संतान सुख हानि को प्रकट करते है। कुंडली 1 एक व्यक्ति की कन्या लग्न की कुंडली 1 में चतुर्थ भावगत बृहस्पति हंस योग नामक पंचमहापुरुष योग का निर्माण कर रहा है, किन्तु वह इस योग के फलों से वंचित है। क्योंकि षष्ठेश शनि की उपस्थिति से चतुर्थ भाव के फल नष्टप्रायः हो गये।
इसके साथ-साथ धनेश और भाग्येश शुक्र की षष्ठ भावगत स्थिति से धन और भाग्य चैपट हो गये। 48 वर्ष की उम्र तक किराये के घर में जीवन व्यतीत किया। राहु-शुक्र की दशा ;15ण्10ण्1993.15ण्10ण्1996द्ध में उसे कई बार अपमानजनक अवस्था का सामना करना पडा। दैहिक रोग और मुकदमेंबाजी में काफी धन नष्ट हो गया। त्रिक अथवा त्रिषडाय शब्द का भावार्थ है-तीन कुत्सित भाव 6, 8 और 12। इन तीनों भावों में से द्वादश को द्वितीय की भांति तटस्थ माना गया है, जिसका स्वामी न शुभ है और न ही अशुभ। यह जिस भावेश के संग युक्त या उससे दृष्ट होता है, उसके गुण-धर्म के अनुसार अच्छे या बुरे फल प्रदान करता है। लग्नात् व्ययद्वितीयेशौ परेषां साहचर्यतः। स्थानान्तरानुगुण्येन भवतः फलदायकौ।। लघु पाराशरी, श्लोक 8 षष्ठ भाव रोग, ऋण और शत्रुओं का स्थान होता है, जिसमें शुभ ग्रह -चंद्रमा, बृहस्पति, शुक्र पाप ग्रहों से रहित हो तो जातक शत्रुओं के भय से मुक्त होंता है, किन्तु पाप ग्रहों के प्रभाव से संघर्ष उत्पन्न होते हैं, जैसे विरोधियों से संघर्ष, मुकदमें दुघर्टनाएं आदि।
मानसागरी के अनुसार षष्ठ भावगत मंगल, शनि और राहु की युति से जातक राजपीडा भोगता है जिसके कारण वह अपने स्थान से निर्वासित होकर मारा-मारा फिरता है। षष्ठ भावगत ग्रह और षष्ठेश - इन दानों प्रकार के ग्रहों के फलों में अन्तर होता है। षष्ठ भावगत स्व या उच्च राशिस्थ ग्रह जातक के लिए उन्नतिशील हो सकते हैं, मगर षष्ठेश सदैव हानिकारक ही होता है। षष्ठ भाव में स्थित शुभ ग्रहों की दृष्टि व्यय स्थान पर होने से व्यय शादी, गृह निर्माण, भू-संपत्ति की खरीद-फरोख्त जैसे शुभ कार्यो में होता है। ऐसे व्यय का दुख नहीं होता। इस भाव से बृहस्पति की दृष्टि दशम और द्वितीय पर होने से व्यवसाय-प्रतिष्ठा और धन-संपत्ति की वृद्धि होती है। षष्ठ भाव उपचय स्थान भी है। अतः यदि षष्ठ भावगत ग्रह उच्च राशिस्थ है या षष्ठेश स्वराशिस्थ है, शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट है तो जातक की भौतिक उन्नति का कारक होता है।
कुंडली 2 अमिताभ बच्चन की कुभ लग्न की कुंडली 2 में षष्ठ भावगत उच्च राशिस्थ बृहस्पति धन-धान्य की वृद्धि का सूचक है। कुंडली 3 एक विद्वान ज्योतिषी की कंुभ लग्न की ही कुंडली 3 में षष्ठेश चंद्रमा से सप्तम भाव से संबन्धित वैवाहिक सुख नष्ट हो गये हैं। चंद्रमा - राहु की दशा में इस ज्योतिषी की पत्नी ने अपनी संतान सहित गृह त्याग कर दिया। अदालत में कईं वषों तक तलाक हेतु मुकदमा चला। खूब धन व्यय हुआ। इस कुंडली में द्वादश भावगत गुरु, शनि और केतु की युति संयास योग का निर्माण कर रहे है, इसलिए शैया सुख का अभाव है। दशम भावगत सूर्य, बुध और स्वगृही मंगल का योग तीव्र बुद्धि और सामाजिक एवं राजनैतिक प्रतिष्ठा को प्रकट कर रहे हैं।
मंगल-गुरु की दशा में इसकी मानसिकता भोग-भौतिकवाद से अध्यात्म की ओर उन्मुख होने लगी, जिसकी प्रेरणा से इसने ज्योतिष विद्या का गहन अध्ययन किया और आज दिल्ली में प्रतिष्ठित ज्याोतिषी है। षष्ठ से षष्ठ स्थान एकादश भाव में भावात् भवन सिद्धांत के अनुसार षष्ठेश का दोष होना अपेक्षित है। इसलिए जब कोई नैसर्गिक शुभ या अशुभ ग्रह षष्ठेश और एकादशेश होता है तब वह रोग, ऋण और शत्रुओं का प्रतीक होता है और अपनी दशा में जातक को दैहिक, मानसिक, सामाजिक, राजनैतिक, पारिवारिक और आर्थिक रुप से बहुत बुरे फल देता है। कुंभ लग्न के लिए चंद्रमा और मीन लग्न के लिए सूर्य षष्ठेश होने पर भी हानिकारक नहीं होते। इनकी बली अवस्था से जातक वीर, पराकमी, शत्रुहंता, राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ होते हैं।
पाप ग्रहों से युक्त होने पर ही यें दोनों शाही ग्रह बुरे फल उत्पन्न करते हैं। मंगल और राहु हिंसात्मक होते है और शनि दीर्घ रोग दायक। हमारा अनुभव है कि तृतीयेश और द्वादशेश की तुलना में जातक के लिए षष्ठेश की दशा यश, धन, पद, और स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से घातक होती है। यद्यपि विद्वानों ने षष्ठ, द्वादश और अष्टम भाव को उत्तरोत्तर अनिष्ट बताया है, फिर भी हमें द्वादश की अनिष्टता षष्ठ से कम ही प्रतीत होती है। द्वादश की अपेक्षा षष्ठ से षष्ठ स्थान पर एकादश भाव की अनिष्टता अधिक अनुभव की गई है। यद्यपि एकादश भाव को लाभ स्थान से संबोधित करते हैं क्योंकि इसमें विद्यमान सभी ग्रह अपनी दशा में धन, पद और यश की वृद्धि करते हैं, किन्तु एकादशेश हानिकारक सिद्ध होता है।
उदाहरण के रुप में मिथुन लग्न के लिए मंगल, वृश्चिक लग्न के लिए बुध और धनु लग्न के लिए शुक्र अपनी दशा में जातक के वैभव, स्वास्थ्य और पराकम की हानि ही नहीं करते बल्कि उसे कर्जदार भी बना देते हैं। इस काल में जातक यदि 35 वर्ष से अधिक प्रोढ अवस्था में है तो उसके मित्र शत्रुवत् व्यवहार करने लगते है, मृत्यु का भय सताता है और सामाजिक रुप से स्वयं को अकेला समझने लगता है। ऐसी अवस्था में धैर्य और सहिष्णुता से इस काल को व्यतीत करना, भौतिकता के भॅवर से निकलकर अध्यात्म की ओर उन्मुख होना हितकर है। व्यापारी लोग इस काल में कोई नया कार्य आरम्भ न करें, अन्यथा धन-प्रतिष्ठा नष्ट होने में देर नहीं होगी। कंुडली 4 युवक सोफ्टवेयर इंजीनियर है जो दिल्ली में अच्छी-खासी नौकरी कर रहा था।
इसकी कुंडली में एकादश भावगत स्वराशिस्थ षष्ठेश और एकादशेश मंगल की जैसे ही 24 दिसंबर 2008 से महादशा आरम्भ हुई, इसे बैंगलोर में उन्नति का अवसर मिल गया। इसलिए यह दिल्ली की नौकरी छोडकर फरवरी में बंगलौर चला गया, किन्तु 8 महिने बाद ही इसकी नौकरी छूट गई और अब मानसिक और आर्थिक रुप से परेशान होकर नई नौकरी की तलाश में सडकों पर घूम रहा है और अनेक इंटरव्यू देने के बाद भी सफलता नही मिल रही है।ऽऽऽऽ यद्यपि अष्टम भाव मनुष्य के अन्तर्निहित गुणों अलौकिक शक्तियों को उजागर करने वाला स्थान है, किन्तु सभी विद्वानों ने अष्टम की अनिष्टता अधिकतम आंकी है, जैसे कि यदि लग्नेश अष्टमस्थ हो तो जातक ओज, उर्जा, उत्साह और प्रभावशाली व्यक्तित्व से हीन होने के साथ-साथ निर्बल एवं रोगी होता है। यदि ऐसे लग्नेश पर किसी पाप ग्रह का साहचर या दृष्टि प्रभाव हो तो नीम पर करेला चढे कहावत चरितार्थ होती है।
अर्थात् ऐसे व्यक्ति दीर्धायु और स्वस्थ नहीं हो सकते। इसीप्रकार चतुंर्थेश अष्टम भावगत हो तो जातक जीवन के सामान्य सुख, वाहन सुख और पारिवारिक सुखों से वंचित होता है। पंचमेश अष्टमस्थ हो तो संतान सुख की हानि, सप्तमेश अष्टमस्थ हो अथवा अष्टम स्थान -द्वितीय भावगत हो तो वैवाहिक सुखों का नाश और अष्टमस्थ भाग्येश से सौभाग्य की हानि निश्चित है। ऐसे व्यक्तियों के भाग्योदय में विलंब होता है और कठिन परिश्रम के उपरांत भी वांछित फलों का अभाव होता है। तथापि अष्टम से अष्टम स्थान पर तृतीय भाव को न्यूनतम अनिष्ट माना है। यहाॅ तक कि तृतीयेश और अष्टमेश की बली अवस्था दीर्घायु होने की सूचक है। एक बात यह भी ध्यान रखनी चाहिए कि अष्टम भावगत शुभ ग्रहों का समूह दीर्घायु देता है। एक ओर अष्टमेश बलवान होकर दीर्घायु का सूचक है, किन्तु दूसरी ओर यह अधिष्ठित भाव का नाशक है, अर्थात् जातक उस भाव के फलों से वंचित होता है।
मगर, स्वगृही होने पर यह दोष रहित हो जाता है। अमिताभ बच्चन की कुंडली में अष्टमेश बुध स्वगृही होने के कारण हानिरहित है। अष्टम भावगत मंगल अवश्य अमंगलकारी है, जिसके कारण शनि-मंगल की दशा में फिल्म कुली की शूटिंग के समय उनके पेट में गंभीर चोट लग गई थी, जिसके कारण उन्होंने मृत्यु तुल्य कष्ट भोगा। मानसागरी ग्रंथ में अष्टमभावगत पाप ग्रह जीवन के नाशक माने गये हैं।
इस ग्रंथ के चतुर्थ अध्याय श्लोक 28 के अनुसार एक भी पाप ग्रह शत्रुक्षेत्री होकर अष्टमभावगत हो और पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो ऐसा बालक एक वर्ष में मर जाता है। हमारा अनुभव है कि अष्टमेश यदि शुभ ग्रह है तो वह अधिष्ठित भाव के लिए घातक नहीं होता, बल्कि यदि वह पाप ग्रह है तब बहुत घातक होता है। उदाहरण के रुप में वृष लग्न के लिए बृहस्पति, तुला लग्न के लिए शुक्र, वृश्चिक लग्न के लिए बुध, धनु लग्न के लिए चंद्रमा घातक नहीं होते, किन्तु कर्क लग्न के लिए शनि, और कन्या लग्न के लिए मंगल यश, धन और पद के लिए हानि कारक होते हैं। सूर्य अष्टम के दोष से मुक्त होता है। शनि दो राशियों मकर और कुंभ का स्वामी होने के कारण मिथुन लग्न के लिए अष्टमेश और नवमेश तथा कर्क लग्न के लिए सप्तमेश और अष्टमेश होता है। इन दोनों लग्नों के लिए यह त्रिकोण और केन्द्र का स्वामी होने के कारण शुभ होने के साथ साथ अशुभ भी होता है। ऐसे ग्रहों पर अन्य ग्रहों की युति और दृष्टि का प्रभाव उसकी शुभ और अशुभता की मात्रा को निर्धारित करता है।
कर्क लग्न के लिए शनि सप्तमेश और अष्टमेश होने के कारण प्रबल मारकेश है, इसलिए अपनी दशा में यश, धन और पद की हानि के साथ-साथ जीवन की हानि भी कर देता है। वैद्यनाथ जातक पारिजात के अध्याय 14, श्लोक 48 और 51 में कहते हैं कि अष्टमेश यदि षष्ठ या द्वादश भाव में पाप राशि में या/और पाप ग्रह से युक्त या दृष्ट हो तो अल्पायु 36 वर्ष से कम आयु का होता है। भावात्दीश्वरे सुस्थे भावसंपन्न चान्यथा। लग्नादनुभवः चैव चिन्त्यतामिति कंचन ।। प्रश्नमार्ग, अध्याय 14, श्लोक 42 कुंडली 5 श्रीमति इंदिरा गांधी की कर्क लग्न की कुंडली 5 में शनि सप्तमेश और अष्टमेश के रुप में लग्न भाव गत पापकर्तरी योग में स्थित है और लग्नेश चंद्रमा से दृष्ट है। लग्नेश नैसर्गिक रुप से चाहे शुभ हो या अशुभ हो, स्वयं एक शुभ ग्रह होता है, जिसकी दृष्टि से अन्य ग्रह की शुभता बढती है। इसलिए उनके जिस शनि की कल्पना भयानक घातक के रुप में होती है, उसमें कुछ शुभता की कल्पना भी की जा सकती है।
इंदिरा जी ने 24 जनवरी 1966 को गुरु-सूर्य की दशा में प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। उनके जीवन में शनि की महादशा 1970 से आरम्भ हुई थी। शनि-शनि की दशा में उन्होंने पाकिस्तान के विरुद्ध राजनैतिक, कूटनीतिक और फौजी कार्यवाही करने से लौह महिला का खिताब हासिल किया। किन्तु शनि-बुध और शनि-केतु की दशा में उनकेें पद-प्रतिष्ठा की बहुत हानि हुई। बुध तृतीयेश और द्वादशेश के रुप में शुभ नहीं है। इस काल में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उनके विरुद्ध चुनाव में धाॅधली का आरोप मढ कर पद त्याग का आदेश दिया। उन्होंने देश में आपातकाल घोषित कर दिया, जिससे उन्हें बहुत अपयश मिला। 1977 में हुए लोक सभा के चुनाव में उनकी करारी हार हुई। तत्पश्चात 1980 के चुनाव में शनि-शुक्र की दशा में उनकी विजय हुई और फिर शनि-राहु की दशा में उनकी हत्या हो गई। कुंडली 6 अष्टमेश के दोष का कुंडली 6 के व्यक्ति पर बहुत बुरा प्रभाव हुआ था।
इस कुंडली में मंगल तृतीयेश और अष्टमेश के रुप में राहु के संग चतुर्थ भावगत है। मंगल-राहु आग्नेय योग उत्पन्न करते है, जो अधिष्ठित भाव के लिए हानिकारक होता है। अतः इस योग से घर, प्रतिष्ठा, भू-संपत्ति और वाहन के सुखों का नाश होना अपेक्षित है। यह व्यक्ति जो विद्वान ज्योतिषी है, भोपाल में सरकारी नौकर था और अपना सुन्दर सा घर बनाकर अपने परिवार के संग जीवन व्यतीत कर कर रहा था। जैसे ही मंगल की दशा आरम्भ हुई इस व्यक्ति का मकान बिक गया, मित्र और रिश्तेदारों ने साथ छोड दिया, जिससे उसे मानसिक चिन्ता और तनाव से बहुत दुख हुआ।