सृष्टि का सृजन और नवसंवत्सर
सृष्टि का सृजन और नवसंवत्सर

सृष्टि का सृजन और नवसंवत्सर  

व्यूस : 11390 | अप्रैल 2008
सृष्टि का सृजन और नव संवत्सर पं. सुनील जोशी जुन्नरकर समय भागता हुआ वह कालपुरुष है, जिसके सिर के पीछे बाल नहीं हैं। इस दृष्टांत का तात्पर्य यह है कि समय को पकड़ पाना संभव नहीं है क्योंकि गतिमान होने के साथ-साथ वह अनंत और असीम है। किंतु हमारे त्रिकालदर्शी कालवेŸाा ऋषियों ने समय को मापने का भरपूर प्रयत्न किया था। उन्होंने समय की सर्वाधिक सूक्ष्म इकाई (त्रुटि) से लेकर महायुग, कल्प, ब्राह्म वर्ष आदि वृहद इकाईयों में समय की गणना करके काल का निर्धारण किया है। लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व भारतीय ज्योतिषियों ने ऋषि परंपरा के अनुरूप कालगणना की वैज्ञानिक पद्धति का विकास कर लिया था जो आज विश्व के वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणाप्रद है। सृष्टि की रचना कब और कैसे हुई ? अनादि काल से ही मानव मन में यह प्रश्न उठता रहा है। भारत में वैदिककाल से लेकर आज तक इस विषय में अनेकानेक शोध हुए हैं। प्रस्तुत लेख का आधार उन्हीं शोधों का निष्कर्ष है । ‘‘तम आसीŸामसा गूढ़मग्रेऽप्रकेतम्।’’ ऋग्वेद की इस ऋचा के अनुसार प्रलयकाल में यह सारा जगत (सूक्ष्मभूता अव्यक्त प्रकृति) तम (मृत्युरूपी अंधकार) से ढका हुआ था। ‘यह जगत प्रकट होने से पूर्व एकमात्र सत्यस्वरूप ब्रह्म ही था।’ (छान्दोग्योपनिषद्-6/2/1)। संसार के सृजन और विनाश के संबंध में श्रीमद्भगवत् गीता (9/7) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘हे कुंतीपुत्र ! कल्प के अंत में संपूर्ण जड़-चैतन्य जगत मेरी अव्यक्त प्रकृति में लीन होता है तथा कल्प के प्रारंभ में पुनः मैं उसे उत्पन्न करता हूं।’’ एक कल्प का मान 4 अरब 32 करोड़ सौर वर्षों के बराबर होता है। इतने ही समय तक यह ब्रह्मांड सगुण (स्थूल) रूप में स्थित रहता है, यह सृष्टि का कुल आयुष्य है। सृष्टि निर्माण की गणना- ब्रह्माजी की आयु 100 ब्राह्म वर्ष मानी गई है, जो 72,000 कल्प के बराबर है। वर्तमान में श्री श्वेतवराह कल्प तथा ब्रह्मा जी की आयु का उŸारार्द्ध चल रहा है जिसे संकल्प मंत्र में ‘द्वितीयपरार्द्ध’ कहा गया है। 71 महायुगों के बराबर 1 मन्वंतर होता है। अब तक 6 मन्वंतर निकल चुके हैं और सातवां ’वैवस्तव’ नामक मन्वंतर चल रहा है। इसके अंतर्गत 27 महायुग बीत चुके हैं। 28 वें महायुग के भी सतयुग, त्रेता और द्वापर को यह पृथ्वी देख चुकी है। वर्तमान में कलियुग अपने प्रथम चरण में गतिशील है। ईस्वी सन् 2007 अर्थात विक्रम संवत् 2064 तक कलियुग के 5108 वर्ष बीत चुके हैं। ज्योतिष संहिता, मनुस्मृति और संकल्प मंत्र के तथ्यों के आधार पर ऊपर वर्णित अंकों का योग करने पर हमें ज्ञात होता है कि सृष्टि निर्माण का कार्य आज से 1,97,29,49,108 वर्ष पूर्व ब्रह्माजी ने प्रारंभ किया था। सूर्य सिद्धांत के अनुसार ब्रह्माजी को सृष्टि की रचना करने में 47,400 दिव्य वर्ष लगे थे। चूंकि देवताओं का एक वर्ष (एक दिव्य वर्ष) हमारी पृथ्वी के 360 सौर वर्षों के बराबर होता है, इसलिए विक्रम संवत् 2064 में सृष्टि की शुद्ध आयु = 1,97,29,49,108 - 1,70,64,000 = 1,95,58,85,108 सौर वर्ष होगी। अर्थात् इतने समय पूर्व सृष्टि निर्माण का कार्य संपन्न (पूर्ण) हुआ था। ‘‘इस परमेश्वर से प्राण उत्पन्न होता है, तथा अंतःकरण, सभी इन्द्रियां, आकाश, वायु, तेज, जल और सबको धारण करने वाली पृथ्वी से यह सब उत्पन्न हाते े ह।ंै ’’ मंडु कापे निषद ् (2.1.3) में पंचमहाभूतों में जल की उत्पŸिा के बाद पृथ्वी की उत्पŸिा का उल्लेख है अर्थात् सृष्टि का विकास पेड़-पौधों, जीव- जंतुओं की उत्पत्ति के बाद हुआ है। सृष्टि रचना का दिन: चैत्र शुक्ल प्रतिपदा- भृगु संहिता के अनुसार ब्रह्माजी के नेत्रों से सूर्य और मन से चंद्र की उत्पŸिा हुई है। ‘सूर्यात् प्रसूयते सर्व तत्र चैव प्रलीयते’ (सूर्य पुराण) सूर्य की उत्पŸिा के बाद सबकी उत्पत्ति हुई है। सृष्टि के प्रारंभ में रविवार को प्रातःकाल प्रथम सूर्योदय होता है, उसी के प्रकाश से सभी ग्रह-नक्षत्र, पृथ्वी आदि प्रकाशित होते हैं। चैत्रमासे जगद् ब्रह्मा ससर्वा प्रथमोऽवानि। शुक्लपक्षे समग्रं तत् तदा सूर्याेदयसति।। (ब्रह्मांडपुराण) प्रजापति ब्रह्मा ने चैत्र, शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को प्रथम सूर्योदय के समय संसार की रचना प्रारंभ की थी। इसी दिन ब्रह्माजी ने मृत्युरूपी काल में प्राणों का संचार करके कालपुरुष को जाग्रत किया था। इसी दिन से कालगणना का शुभारंभ हुआ। इस तिथि को प्रथम पद (स्थान) मिलने के कारण प्रतिपदा की संज्ञा दी गई। ब्रह्माजी ने इस तिथि को सर्वश्रेष्ठ तिथि कहा है। अतः शुभ, मांगलिक कार्यों को प्रारंभ करने के लिए स्वयंसिद्ध व अबूझ मुहूर्त है। सृष्टि प्रारंभ का लग्नचक्र - सारावली में उल्लेख है, कि प्रलय के समय जब सारा संसार अंधेरे में डूबा था तथा सर्वत्र जल ही जल था, उस समय भगवान सूर्य ने, अपने तेज से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करते हुए, समस्त संसार, ग्रह, नक्षत्र, चक्र, आदि के द्वारा 12 अंग (राशि स्वरूप) बनाकर कालपुरुष को प्रस्तुत किया था। श्री कनकाचार्य के अनुसार जिस समय ब्रह्माजी ने संसार की रचना प्रारंभ की थी उस समय लग्न कर्क था, लग्न स्थित चंद्र पर गुरु की शुभ दृष्टि थी और सातों ग्रह स्वक्षेत्री थे। टिप्पणी- 1. ध्यान देने योग्य बात यह है कि सृष्टि के प्रारंभिक काल में सिर्फ सात ग्रह थे। राहु व केतु का जन्म सृष्टि निर्माण के बहुत समय पश्चात् हुआ। 2. सारावली के वियोनिजन्माध्याय में उल्लिखित ऊपर वर्णित कुंडली चतुर्दशी युक्त अमावस्या की प्रतीत होती है, क्योंकि चंद्र सूर्य से पीछे 12 वीं राशि-स्थान में 348 अंश (डिग्री) की दूरी पर स्थित है। 3. पंचांग के गणित और सूर्य सिद्धांत के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को प्रातःकाल मीन लग्न उदित होता है। लग्न में सूर्य तथा सूर्य से 12 डिग्री की अंशात्मक दूरी पर मीन या मेष राशि में चंद्र स्थित रहता है। 4. ‘चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को अश्विनी नक्षत्र-मेष राशि में, सूर्योदय काल में सृष्टि रचना प्रारंभ हुई थी।’ ब्रह्मपुराण का यह कथन सभी को मान्य है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नव संवत्सर का प्रारंभ बसंत आगमन और नव वर्ष का प्रारंभ ग्रेगेरियन कैलेंडर में ईसा वर्ष का प्रारंभ 1 जनवरी से होता है। ‘धनुअर्के धनुषाकृति’ अर्थात् पौषमास में सूर्य के धनु राशि में होने के कारण हेमंत ऋतु का उŸारार्द्ध होता है। यह परम शीतकाल का समय है। इस समय व्यक्ति ठंड से ठिठुर कर धनुष के समान टेढ़ा हो जाता है। इस मौसम में शीत का प्रकोप प्राणियों में रोग और भय उत्पन्न करता है। यह ऋतु श्रेष्ठ नहीं होती, अतः इस समय (जनवरी से) नववर्ष का प्रारंभ करना उचित नहीं है। शास्त्रानुसार ‘सम वसति ऋतवः’ अर्थात् जिस समय अच्छी ऋतु होती है उसी समय से संवत्सर का प्रारंभ होता है। छः ऋतुओं में बसंत को ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यह ऋतु देव आराधना, योग और भोग सभी कार्यों के लिए अनुकूल रहती है। बसंत ऋतु में गेहूं आदि की नवीन फसलें पककर तैयार हो जाती हैं। इस तरह यह ऋतु हमें नवान्न प्रदान करती है। बसंत ही जीवन में नवीन आनंद-उल्लास का एहसास कराता है इसलिए इसको ऋतुराज कहा जाता है। अतः बसंत ऋतु से नव वर्ष (संवत्सर) का प्रारंभ करना सर्वथा उचित है। चैत्र और वैशाख माह में जब सूर्य मीन-मेष राशि में होता है, तब दो माह की बसंत ऋतु होती है। इसलिए हिंदू पंचांगों में नवसंवत्सर का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से किया जाना वेदशास्त्रानुसार सर्वश्रेष्ठ है। मीन संक्रांति से मेष संक्रांति तक अर्थात् बसंत ऋतु से शिशिर ऋतु तक 365 दिन 6 घंटे में पृथ्वी सूर्य की एक परिक्रमा पूर्ण कर लेती है, इसे ही संवत्सर काल कहते हैं। मीन संक्रांति फाल्गुन पूर्णिमा तक हो जाती है। इसके बाद उŸार भारतीय पंचांगों में चैत्र मास का प्रारंभ हो जाता है किंतु नव संवत् का नहीं। चूंकि चैत्र कृष्ण पक्ष में अधिमास (मलमास) पड़ने की संभावना रहती है, इसलिए नव संवत् का प्रारंभ चैत्र शुक्ल पक्ष से किया जाता है। इस प्रकार पूर्णिमांत मास आधारित पंचांगों में चैत्र माह दो भागों में विभक्त रहता है। पंचांग के प्रारंभ में चैत्र सुदी की 15 तिथियां तथा अंत में चैत्र बदी की 15 तिथियां लिख दी जाती हंै। चैत्र कृष्ण 30 (अमावस्या) को चंद्रवर्ष समाप्त हो जाता है जबकि अमांत मास आधारित दक्षिण भारतीय पंचांग वर्ष के इन अंतिम 15 दिनों को फाल्गुन कृष्ण पक्ष ही लिखते हैं। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से वर्ष के प्रथम माह का प्रारंभ और अमावस्या को अंत होता है। पूर्णिमा को चंद्र चित्रा के नक्षत्र में होने के कारण इस मास का नाम चैत्र रखा गया है। नक्षत्रानुसार ही बीते हुए महीनों का नामकरण हुआ है।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.