भारतीय धर्म और संस्कृति में मनुष्य के चार पुरुषार्थों - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से जीवन में अर्थ प्राप्त करना एक अनिवार्य पुरुषार्थ है, जिसके लिए हमारे पौराणिक ग्रंथों में अपनी योग्यता व क्षमता के अनुरूप निष्काम भाव से कर्म करने का निर्देश है (गीता, अध्याय 2, श्लोक 47, अध्याय 3, श्लोक 7, 8)। अपने सत्कर्मों के फलस्वरूप मनुष्य यशस्वी और धनी होता है। जब मनुष्य भौतिक सुख साधन, बाह्य आडंबर और व्यसनों की पूर्ति हेतु अनैतिक मार्ग अपना लेता है, तो उसकी मानसिक शांति, स्थिरता और संतुलन शनैः-शनैः क्षीण होने लगते हैं।
इसका प्रभाव उसकी रोग प्रतिरोधक शक्तियों पर पड़ता है और उसका शरीर रोग और दुखों से ग्रस्त होने लगता है। ज्योतिष शास्त्र यश और धन से संबंधित मार्ग का निर्देश करता हुआ मनुष्य को सचेत करता है कि इनकी प्राप्ति हेतु व्यर्थ की भागदौड़, मिथ्या आडंबर, लोभवृत्ति और अनैतिक कार्यों के भंवर में फंसकर अपनी शांति भंग न करंे, क्योंकि पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर यश और धन की स्थिति प्रत्येक मनुष्य की जन्म कुंडली में विधाता अंकित कर चुका है। यद्यपि जन्म कुंडली में अधिसंख्य भाव यश और धन से संबंधित होते हैं, फिर भी भाव 1, 2, 5, 9, 10 और 11 का विशेष महत्व है।
लग्न से मनुष्य के पौरुष का परिणाम और पुरुषार्थ की क्षमता प्रकट होती है। यश और धन प्राप्ति का प्रथम सोपान कर्म संपादन है, जिसका निमित्त मनुष्य होता है और कुंडली में मनुष्य का अपना स्थान लग्न होता है, जो उसकी आत्मस्थापन की प्रवृत्ति और यथार्थ से संधर्ष की क्षमता को प्रकट करता है। मनोविश्लेषक ऐडलर के अनुसार जीवन की प्रमुख प्रेरक शक्ति आत्मस्थापन है। यथार्थ से संघर्षों के फलस्वरूप यदि व्यक्ति के आत्मस्थापन को संतोष नहीं मिलता, तो उसमें हीन भावना विकसित हो जाती है। इस हीन भावना से मुक्ति पाने या इसका दमन करने के लिए व्यक्ति कुछ विशेष प्रयत्न करता है, जिनके फलस्वरूप उसकी कोई जीवनशैली निश्चित हो जाती है, जिसका सकारात्मक पक्ष उन्नति और नकारात्मक अवनति का प्रेरक होता है। इस प्रकार लग्न और लग्नेश जीवन की प्रमुख प्रेरक शक्ति होते हैं।
फ्रायड के अनुसार जीवन की प्रमुख प्रेरक शक्ति कामवृत्ति है। लग्न के सामने का अर्थात सप्तम भाव कामवृत्ति का ही भाव है। सफलता के शिखर पर प्रायः वे लोग ही पहुंचे हैं, जिनकी कामवृत्ति पूर्ण संतुष्ट रही है या फिर जिन्होंने अपनी कामवृत्ति को पूर्णतः नियंत्रित कर लिया है। एक अन्य मनोविश्लेषक जुंग के अनुसार व्यक्ति दो प्रकार के होते हैं - अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी। अन्तर्मुखी लोग प्रायः एकांतप्रिय और अव्यावहारिक होते हैं, जबकि बहिर्मुखी सामाजिक, राजनीतिक, व्यापारिक, व्यवहारकुशल और क्रियाशील होते हैं। प्रायः ऐसे लोग ही यश, धन और संपत्ति से सुखी होते हैं। इसलिए सर्वप्रथम लग्न के बलाबल का अध्ययन करना बहुत आवश्यक है। बली लग्न और लग्नेश के जातक का देहबल, आत्मबल और मनोबल उच्च होता है, जिससे वह जीवन के मार्ग में आने वाली बाधाओं को पार करके अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफल होता है। ऐसे लोगों में उत्साह, उद्देश्य, कर्मठता, दूरदर्शिता और महत्वाकांक्षा भरी होती है।
त्रिकोणकेन्द्रे यदि लग्ननाथे शुभान्विते शोभन वीक्षिते वा। शुभग्रहागारगते बलाढये चतुःसमुद्रान्त यशः समेति।। - जातक पारिजात, अध्याय 11, श्लोक 16 यदि लग्नेश केंद्र या त्रिकोण में हो, शुभ ग्रह से युत या दृष्ट हो, बलवान हो, तो व्यक्ति यशस्वी होता है। स्वामी विवेकानंद, राष्ट्रपति डाॅ. अब्दुल कलाम, नोबल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन, पूर्व चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन और प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं वर्तमान प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह की धनु लग्न की कुंडली 1-6 में लग्न, केंद्र और त्रिकोण भाव, सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शनि और राहु बहुत बलवान अवस्था में हैं, जो आत्मिक और मानसिक रूप से बहुत बली, उत्साही, कर्मठ और दृढ संकल्प से परिपूर्ण व्यक्तित्व के प्रेरक हैं। ये सभी मेधावी, बुद्धिमान, निर्भीक, मित्रप्रिय, श्रुतिस्मृतिधर, असाधारण प्रतिभा और अदम्य साहस के स्वामी हैं तथा इन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में अपने नाम के साथ-साथ अपने परिवार, समाज और देश का नाम रोशन किया है। ऐसे व्यक्तियों की उपलब्धियां उनके त्याग, तपस्या, परिश्रम, सिद्धांत और कठोरता की प्रतिफल हैं। स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व में इतना ओज, तेज और आकर्षण था कि जब उन्होंने 11 सितंबर 1893 के दिन शिकागो-धर्म सम्मेलन में ‘अमेरिकावासी भाइयों और बहनों कहकर सभा को संबोधित किया तो तुरंत सैकड़ों नर-नारी उनके सम्मान में खड़े हो गए और चारों ओर से तालियों की बौछार होने लगी। उनके भाषण में विश्व-भ्रातृत्व का बीज, विश्व मानवता की झंकार और वैदिक ऋषि की वाणी थी, जिसकी विपुल शक्ति से श्रोताओं का हृदय श्रद्धा, विस्मय और भ्रातृ भाव से झंकृत हो उठा।
डाॅ. कलाम ने मिसाइल क्षेत्र में, डाॅ अमत्र्य सेन ने अर्थशास्त्री के रूप में और धीरूभाई ने व्यापारिक क्षेत्र में विशिष्ट कार्य करके बहुत यश और धन प्राप्त किया। टी.एन. शेषन ने प्रशासनिक अधिकारी के रूप में जिस दृढ़ता का परिचय दिया, उससे चुनाव कार्यक्रम में अनेक सुधारों का सूत्रपात हुआ। पं. जवाहरलाल नेहरू की कुंडली 7 में लग्नेश चंद्रमा स्वगृही होकर बहुत बलवान है। उसके ऊपर किसी भी पापी ग्रह की दृष्टि नहीं है। उनके व्यक्तित्व में अद्भुत ओज, आकर्षण, उत्साह, दूरदर्शिता, कल्पनाशीलता, भावुकता और निडरता का समावेश था। उन्होंने भारतीय राजनीति को नए परिवेश में ढालकर नई दिशा प्रदान की। विश्व के सर्वाधिक धनी और प्रतिष्ठित लोगों में से एक बिल गेट्स की मिथुन लग्न की कुंडली 8 में लग्नेश बुध स्वराशि कन्या में षष्ठेश मंगल के साथ चतुर्थ भाव में स्थित है। क्या यह लग्नेश निर्बल और पाप पीड़ित है ? नहीं, क्योंकि बुध 23 अंशों में स्वराशि कन्या में बहुत बलवान है, भद्र योग बना रहा है और शुभ ग्रह चंद्रमा से दृष्ट है। उन्होंने साॅफ्टवेयर के क्षेत्र में विशिष्ट उपलब्धि प्राप्त कर असीम धन व प्रतिष्ठा अर्जित की। पूर्व जन्म में पाप कर्म करने वाले मनुष्यों के लग्न-लग्नेश निर्बल होते हैं, जिसके कारण श्रेष्ठ कर्म निष्पादन में वे मंद, शिथिल, अयोग्य और अक्षम सिद्ध होते हैं।
उनकी न कोई योजना होती है और न ही कोई लक्ष्य। जीवन जड़ स्वरूप और शरीर रोगी होता है। ऐसे लोग यश और धन से रहित होते हैं। निम्नलिखित परिस्थितियों में व्यक्ति यश और धन से रहित होता है - Û लग्न व लग्नेश पापी ग्रहों के मध्य हों, उनसे युत या दृष्ट हों या लग्नेश नीच राशि में हो। Û लग्नेश शुष्क राशि (मेष, सिंह) में अष्टम भावस्थ हो। Ûराहु या केतु लग्न में और लग्नेश भाव 6, 8 या 12 में हो। Û षष्ठेश से लग्न या लग्नेश युत या दृष्ट हो या भाव 6, 8 या 12 में षष्ठेश व लग्नेश की युति हो। Û लग्नेश जिस राशि में बैठा हो, उस राशि का स्वामी भाव 6, 8 या 12 में हो या इन भावों के किसी स्वामी से युत या दृष्ट हो या पाप पीड़ित हो। भावार्थ रत्नाकर के अनुसार लग्न, चतुर्थ और नवम तीनों भावों के स्वामी अष्टम भाव में हों या लग्नेश और द्वादशेश में परिवर्तन योग हो, तो व्यक्ति यश और धन से रहित होता है। एक साधारण व्यक्ति की मकर लग्न की कुंडली 9 में लग्नेश शनि द्वादश भाव में होने और मंगल से दृष्ट होने के कारण निर्बल है, जिसके फलस्वरूप उसमें रोग प्रतिरोधक शक्ति, आत्मबल, मानसिक बल, उत्साह, उमंग और दूरदर्शिता का अभाव है। मार्च 2003 से राहु-राहु की दशा चल रही है, जिसमें उसके गुर्दे इतने खराब हो गए हैं कि अब आप्रेशन के द्वारा इनका बदला जाना बहुत आवश्यक है, अन्यथा जीवन को खतरा है।
यह व्यक्ति यश, धन और अच्छी विद्या से रहित है। विरासत में मिला हुआ धन और व्यवसाय नष्ट हो चुका है। द्वितीय भाव धन संग्रह का स्थान है। इसके स्वामी का स्व, उच्च या मित्र राशि में शुभ ग्रहों से युत या दृष्ट होना धन योग का सूचक है। बृहस्पति धनदायक ग्रह है, इसलिए धन से संबंधित भाव या भावेशों पर इसकी दृष्टि से यश और धन की वृद्धि होती है। भावार्थ रत्नाकर के अनुसार भाव 1, 2 और 11 के स्वामी अपने-अपने भावों में स्वक्षेत्री हों या भाव 2-5, 5-9 और 2-11 के स्वामियों का स्थान परिवर्तन हो, तो विशेष धन योग उत्पन्न होता है। पं. नेहरू की कुंडली में द्वितीयेश सूर्य शुभ पंचम स्थान में स्थित होकर यश, धन और विद्या की वृद्धि कर रहा है। धीरूभाई की कुंडली में द्वितीयेश शनि स्वगृही और बृहस्पति से दृष्ट है तथा बिल गेट्स की कुंडली में द्वितीयेश चंद्र दशम भावस्थ है। इस प्रकार यह उच्च श्रेणी का धन-प्रतिष्ठा कारक योग निर्मित हुआ है।
यद्यपि मंगल, शनि, राहु और केतु उच्च श्रेणी के पापी ग्रह हैं, किंतु इनमें से कोई अकेला द्वितीय भावस्थ हो, तो धन की हानि नहीं, बल्कि वृद्धि करता है और यदि सूर्य के साथ मंगल, शनि, राहु और केतु में से कोई एक या दो पापी ग्रह हों, द्वितीयेश षष्ठ या द्वादश भाव में हो या द्वितीयेश व द्वादशेश में परिवर्तन योग हो, तो धन और प्रतिष्ठा नष्ट होने की बहुत संभावना रहती है। दारिद्र्यदौ शशिरवि धनराशियातौ। भौमार्कजौ सकल रोगकरौ भवेताम्।। - जातक पारिजात, अध्याय 11, श्लोक 75 यदि सूर्य और चंद्र दोनों धन स्थान में हों, तो जातक दरिद्र होता है तथा मंगल और शनि की उपस्थिति से अनेक प्रकार के रोग (नेत्र, दंत और जिह्वा आदि से संबंधित) होते हैं। चार प्रकार के ग्रह धनदायक होते हैं- द्वितीय भावस्थ ग्रह, द्वितीयेश, द्वितीय भाव और द्वितीयेश पर दृष्टि डालने वाला ग्रह तथा बृहस्पति। द्वितीय भावस्थ कोई ग्रह यदि पापी ग्रह से युत या दृष्ट हो, अस्त हो या फिर शत्रु या नीच राशि में हो, तो वह अपनी महादशा या अंतर्दशा में धन की हानि करता है। इसी प्रकार द्वितीयेश किसी भी रूप में पीड़ित हो या भाव 6, 8 या 12 में हो, तो धन की हानि होती है। यद्यपि भाव 8 में स्थित ग्रह की दृष्टि से द्वितीय भाव पुष्ट होना चाहिए, किंतु सभी ग्रहों से ऐसा नहीं होता। देखने में आया है कि केवल द्वितीयेश और बुध भाव 8 में धन की वृद्धि करते हैं। कुंडली 10 ऐसे व्यक्ति की है, जिसने सन् 1983 में राहु-बुध की दशा में जालंधर से लंदन जाकर जनरल स्टोर का कार्य शुरू किया। गुरु की महादशा (अगस्त 1991 से 2007 तक) में उसने बहुत धन अर्जित किया और उसके व्यापार का वार्षिक टर्न ओवर करोड़ों रुपयों तक पहुंच गया, किंतु धनेश मंगल की अंतर्दशा (अप्रैल 2004 से मार्च 2005 तक) में उसे करोड़ों रुपयों की हानि हो गई।
क्यों? यह मंगल 10 40‘ अंशों में बहुत निर्बल है और फिर षष्ठ भावस्थ है, जिस पर किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि नहीं है। अतः इस अवस्था में धनेश कदापि धनप्रद नहीं हो सकता। कुंडली 11 में द्वितीयेश और नवमेश शुक्र षष्ठ भाव में होने के कारण यश, धन और भाग्य नष्ट कर रहा है। लग्नेश बुध पापी ग्रहों से पीड़ित होने के कारण निर्बल है अतः इस व्यक्ति की देह कृश और रोगी है तथा निर्णय शक्ति और दूरदर्शिता का अभाव है। यह व्यक्ति 25 वर्ष से स्वतंत्र व्यवसाय कर रहा है, जिसमें अपने गलत निर्णयों के कारण अनेक बार यश और धन की हानि कर चुका है। इसके चतुर्थ भाव का स्वामी गुरु यद्यपि स्वगृही है, किंतु षष्ठेश शनि और अष्टमेश मंगल से पीड़ित है। अतः उसका जीवन सुखी और तनाव रहित नहीं हो सकता। कुछ वर्ष पहले राहु व मंगल की दशा में उसे यश और धन की बहुत हानि उठानी पड़ी। उसका व्यापार ठप्प हो गया और सभी जमा पूंजी नष्ट हो गई।
तत्पश्चात गुरु व शनि की दशा में अपने मूर्खतापूर्ण निर्णयों के कारण उसने अपना समस्त धन नष्ट कर दिया। अभी तक अपना घर नहीं बना सका है, किराये के घर में रहता है। पंचम और नवम भाव कुंडली में सर्वश्रेष्ठ स्थान होते हैं। इन भावों को देव तुल्य स्थानों की संज्ञा दी जाती है क्योंकि ये बुद्धि, तर्क, विश्लेषण क्षमता, प्रतियोगिता, भाग्य, धर्म, पूर्वजन्म और वर्तमान जन्म तथा अचानक धन प्राप्ति के स्थान हैं। जब इन भावों का संबंध शुभ और बलवान ग्रह तथा केंद्रेश से होता है, तो मनुष्य के पूर्व और वर्तमान जन्म के शुभ और नैतिक कर्म प्रकट होते हैं। इन भावों की बलवान अवस्था से मनुष्य की विद्या-बुद्धि, तर्क शक्ति और दूरदर्शिता बहुत विकसित होती है, इसलिए जीवन की दौड़ में वह अन्य प्रतिस्पर्धियों से आगे बढ़ कर सफलता प्राप्त कर लेता है। लग्न-द्वितीय, लग्न-नवम, द्वितीय-पंचम, द्वितीय-नवम और पंचम-नवम भावों के स्वामियों का युति या दृष्टि संबंध उत्तम धन योग का निर्माण करता है। ऐसी अवस्था में मनुष्य अल्प परिश्रम से यथासंभव यश-प्रतिष्ठा और धन-संपत्ति अर्जित करता है। धनेशे पंचमस्थे च पंचमेशो धने यदि। - भावार्थ रत्नाकर धनेश पंचम भाव में या पंचमेश धन भाव में हो, तो विशेष धनयोग होता है। द्वितीय और नवम भावों के स्वामियों का स्थान परिवर्तन धन योग का निर्माण नहीं करता क्योंकि द्वितीय से नवम भाव अष्टम स्थान पर और नवम से द्वितीय भाव षष्ठ स्थान पर है। नवमेश की भाव 1, 3, 5, 7 और 10 में स्थिति उत्तम होती है। गुरु रवींद्रनाथ टैगोर की मीन लग्न की कुंडली 12 में लग्नेश बृहस्पति पंचम भावस्थ और उच्च कर्क राशिस्थ होकर नवम और लग्न पर दृष्टि डाल रहा है। पंचमेश चंद्र लग्न भावस्थ है।
लग्नेश और पंचमेश की भाव परिवर्तन की यह स्थिति यश, धन और पद हेतु अति उत्तम है। लग्न भावस्थ चंद्र, द्वितीय भावस्थ सूर्य, बुध और शुक्र तथा पंचम भावस्थ और उच्च राशिस्थ बृहस्पति के कारण गुरु रवींद्र विद्याप्रेमी, मिष्टभाषी, कवि, लेखक, कलाकार, संगीतकार, दार्शनिक और कल्पनाशील व्यक्तित्व के स्वामी थे। शुभ ग्रहों के इस संबंध से उन्हें सत्य के मार्ग अर्थात् साहित्य की सेवा से धन-प्रतिष्ठा का लाभ हुआ। उन्होंने किसी व्यापार या राजनीति के माध्यम से धन अर्जित नहीं किया। सन् 1913 में चंद्र व शुक्र की दशा में उनकी काव्य रचना गीतांजलि के लिए उन्हें विश्व के सर्वोत्तम नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पंचमेश चंद्र बृहस्पति अधिष्ठित राशि का स्वामी है, जो आकस्मिक धन योग निर्मित कर रहा है। वास्तव में यह लग्न, द्वितीय, पंचम और नवम भावों के संबंधों का प्रताप है। दशम भाव अन्य केंद्र स्थानों में सर्वाधिक बली है। यह कर्म स्थान है। गीता में कर्म को बहुत महत्व दिया गया है, इसलिए मनुष्य जीवन कर्म प्रधान बताया गया है। कर्म के बिना यह जीवन जड़ स्वरूप है, इसलिए दशम भाव गतिशीलता का द्योतक है। इस भाव से आजीविका साधन जैसे नौकरी, व्यापार, राजकीय पद, सम्मान, उन्नति-उत्थान आदि का बोध होता है। जब लग्न, केंद्र और त्रिकोण का दशम भाव से संबंध स्थापित होता है, या जब दशम भाव और उसका स्वामी शुभ ग्रहों से लब्ध होते हैं, तो मनुष्य के कर्म श्रेष्ठ होते हैं और फिर श्रेष्ठ कर्मों से धन एवं कीर्ति की वृद्धि होती है। ऐसे व्यक्ति अपने परिश्रम और दूरदर्शिता से उत्तम श्रेणी के आजीविका साधन निर्मित कर खूब यश-धन प्राप्त करते हैं। इस भाव में चंद्र और शुक्र निर्बल होते हैं मगर सूर्य, मंगल, गुरु, शनि और राहु बलवान होने के कारण सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संपन्नता के बोधक होते हैं। यदि इस भाव में सूर्य शुभ ग्रहों से युत या दृष्ट हो, तो मनुष्य शूरवीर, प्रतापी और राजकीय पद, धन और सम्मान प्राप्त करने वाला होता है। इस भाव में मंगल, शनि और राहु हों, तो व्यक्ति में साहस एवं शूरवीरता चरम पर होती है। ऐसे लोग व्यापार की बजाय राजनीतिक, सामाजिक और फौजी जीवन में जोखिम भरे कार्यों से धन-प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। अध्यापक, न्याय अधिकारी, धर्म अधिकारी और व्यापारियों के लिए इस भाव में बुध और बृृहस्पति धन-प्रतिष्ठा के कारक होते हैं। इस भाव में बृहस्पति केंद्र अधिपत्य दोष के बुरे फल नहीं देता, बल्कि दीर्घायु, उच्च पद, उन्नति, ख्याति, सत्कर्म और सद्गुण प्रदान करता है।
देवकेरलकार के अनुसार यदि लाभेश, कर्मेश और धनेश में से एक भी ग्रह चंद्र से केंद्रवर्ती हो, तो जातक पर्याप्त यश और धन प्राप्त करता है। सर्व विदित है कि यदि दशमेश भाव 6, 8 या 12 में निर्बल अवस्था में हो, तो जातक के कर्म धन-प्रतिष्ठा हेतु हानिकारक होते हैं। आज्ञास्थानगते सूर्ये भूमिपुत्रेण वा युते। केन्द्रान्विते तदीशेपि क्रूरामाज्ञां करोति सः।। - सर्वार्थ चिन्तामणि, अध्याय 8, श्लोक 16 यदि सूर्य और मंगल दशम भाव में हों और दशमेश केंद्र में हो, तो व्यक्ति उच्च शासकीय पद पर आसीन होता है। धीरू भाई की कुंडली 4 में दशम भावस्थ बृहस्पति धन, सम्मान और आयुष्मान कारक है। उनके जीवन में बृहस्पति की महादशा मई 1982 से 1998 तक चली। उस दौरान उनके व्यापार की उन्नति चरमोत्कर्ष पर थी। उन्हें द्वादश भावस्थ दशमेश से कोई हानि नहीं हुई। क्यों? बुध अपने ही नक्षत्र ज्येष्ठा में शुभ ग्रह शुक्र के साथ बली अवस्था में है। यदि यह बुध किसी पापी ग्रह से पीडित होता, तो हानि हो सकती थी। इसके विपरीत कुंडली 9 के पंचम और दशम भाव का स्वामी शुक्र अष्टम भावस्थ है। इस व्यक्ति को विरासत में मिला हुआ धन और व्यवसाय नष्ट हो चुका है और अब वह गुर्दों के रोग से ग्रस्त है और मौत से जूझ रहा है। कुंडली 11 के दशम भाव में अष्टमेश मंगल व्यवसाय में हानिकारक सिद्ध हुआ। इस व्यक्ति का व्यवसाय कभी फलफूल नहीं सका, बल्कि उसे कई बार धन-प्रतिष्ठा की हानि उठानी पड़ी।
राजनीतिज्ञों के लिए ऐसा मंगल हानिप्रद नहीं होता है। पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव की कुंडली 13 के दशम भाव में सूर्य, मंगल (दिग्बली) और बुध (भद्र एवं बुधादित्य योग) उच्च श्रेणी के प्रतिष्ठाकारक सिद्ध हुए। वह अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा समाजशास्त्र और राजनीति के विद्वान थे। वह केंद्र सरकार में उच्च पदों पर आसीन रहे। सन् 1990 में वह राजनीति को अलविदा कह कर अपने पैतृक स्थान पर लौटने का मन बना चुके थे। किंतु राजीव गांधी की हत्या के बाद मंगल व राहु की दशा में अचानक उनका नाम प्रधानमंत्री के लिए प्रस्तावित हो गया और 21 जून 1991 को उन्होंने यह पद भार ग्रहण कर लिया। प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह की कुंडली 6 में नवम और दशम भाव के उत्कृष्ट संबंध के रूप में सूर्य-बुध युति (बुध-आदित्य योग) विद्या, बुद्धि, प्रशासनिक पद और विद्वत्ता, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा एवं धर्मपरायणता कारक है। दशमेश बुध अपने ही नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी और अपनी ही राशि कन्या में होने के कारण बहुत बलवान है। उन्होंने एक प्रबुद्ध अर्थशास्त्री के रूप में भारतीय अर्थ-व्यवस्था और राजनीति को संवारा है। तत्पश्चात उन्होंने राहु, शनि और बृहस्पति की दशा में 22 मई 2004 की शाम 4.35 बजे प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। अब दशमेश बुध की अंतर्दशा चल रही है, जिसमें वे अनेक समस्याओं का हल और सहयोगी दलों का तुष्टीकरण करते हुए अपना कार्य सुचारु रूप से कर रहे हैं। एकादश भाव लाभ का स्थान है। इस भाव से जातक के लाभ का अनुमान होता है। इस भाव में स्थित ग्रह अपनी दशा या अंतर्दशा में यश, धन, पद आदि से संबंधित लाभ प्रदान करते हैं। यदि इस भाव में लग्नेश, द्वितीयेश, पंचमेश, नवमेश और कोई केंद्रेश पापी ग्रहों से पीड़ित हों, तो उस पीड़ित ग्रह से लाभ की संभावना क्षीण हो जाती है, जैसे यदि मिथुन लग्न की कुंडली में लग्नेश बुध मंगल या शनि के साथ इस भाव में हो या उनसे दृष्ट हो, तो बुध की महादशा या अंतर्दशा अधिक लाभप्रद नहीं होगी।
अतः केवल बलवान धन कारक ग्रह ही लाभकारक हो सकते हैं, जैसे धनु लग्न वालों के लिए धनेश शनि इस भाव में उच्च राशिस्थ होकर धनदायक है। इसी प्रकार इस भाव में राहु वृष, मिथुन, कन्या या कुंभ राशि में यश, धन, पद आदि के सुख देता है। एकादश भावस्थ ग्रहों से आय के स्रोत का ज्ञान भी होता है, जैसे इस भाव में सूर्य हो, तो पिता की सहायता से या उसके द्वारा स्थापित व्यवसाय के रूप में आय के साधन प्राप्त होते हैं। वहीं चंद्र हो, तो माता के सहयोग से, मंगल हो, तो भाइयों के सहयोग से या स्वपरिश्रम से, बुध हो, तो मामा या किसी मित्र के सहयोग से, बृहस्पति हो, तो बड़े भाई के सहयोग से, अध्यापन, प्रकाशन, न्यायालय संबंधी या किसी धार्मिक कार्य से, शुक्र हो, तो स्त्री के सहयोग से और शनि या राहु हो, तो अपने से निम्न स्तर के लोगों के सहयोग से आय के साधन प्राप्त होते हैं। धनपे लाभगे वापि लाभेशो धनगो यदि। - भावार्थ रत्नाकर धन और लाभ भावों के आपस में स्थान परिवर्तन, युति या दृष्टि संबंध होने से धन योग बनता है। एकादश भाव को लाभकारी मानने के साथ-साथ पापी भी माना जाता है, क्योंकि इसके स्वामी की दशा या अंतर्दशा में जातक को दैहिक रोग होने की संभावना होती है। धनु लग्न वालों के लिए शुक्र षष्ठेश और एकादशेश के रूप में एक प्रबल पापी ग्रह है, जो अपनी दशा भुक्ति में रोग, ऋण और शत्रुओं की वृद्धि करता है तथा उनके माध्यम से दैहिक एवं मानसिक कष्ट उत्पन्न करता है।
ज्योतिष ग्रंथों में बुध व शुक्र की युति का विद्या, धन, पद, प्रतिष्ठा और व्यापार के कारक के रूप में उल्लेख किया गया है, जो प्रायः षष्ठ को छोड़कर प्रत्येक भाव में शुभफल कारक होता है। रुद्रभट्ट के अनुसार बुध और शुक्र हों और बलवान हों, तो जातक भूपति या सेनापति होता है। सारावली के अनुसार इन दोनों की युति से जातक अत्यधिक धनी, नीतिज्ञ, वेदों का विद्वान तथा सत्यवादी और मधुर वचन बोलने वाला होता है। लग्न भावस्थ बुध व शुक्र के कारण मनुष्य सुंदर, स्वस्थ, सुखी, बंधु और मित्रों से युक्त, विद्वान, लोकप्रिय और राजा से सम्मानित होता है। पूर्व राष्ट्रपति डाॅ. राधाकृष्णन की कन्या लग्न की कुंडली में बुध व शुक्र लग्न भावस्थ (स्वगृही बुध से भद्र योग बना है और शुक्र का नीच भंग हो गया है) और स्वामी विवेकानंद की धनु लग्न की कुंडली में धन भावस्थ हैं। इस योग के फलस्वरूप दोनों प्रभावशाली, वाक्पटु, मृदुभाषी, मानवतावादी, न्यायवादी, संवेदनशील, चिंतक, लेखक एवं दर्शनशास्त्र के प्रकांड पंडित थे तथा भारतीय दर्शन से संबंधित अपने व्याख्यानों से देश-विदेश में बहुत लोकप्रिय हुए। डाॅ. राधाकृष्णन की विद्वत्ता और सौम्य व्यवहार से प्रभावित होकर पं. जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें सोवियत संघ में राजदूत और फिर भारत का उपराष्ट्रपति तथा राष्ट्रपति बनाया। पं. नेहरू की कुंडली में यह योग चतुर्थ भावस्थ है, जिसमें शुक्र स्वगृही है और मालव्य योग बना रहा है।
गुरु रवींद्रनाथ टैगोर की कुंडली 12 में यह युति द्वितीय भावस्थ है। अष्टम भाव में यह आयुष्मान कारक (देखें मोरारजी देसाई की कुंडली) और द्वादश भाव में यश व धन-संपत्ति वृद्धिकारक है (देखें धीरूभाई की लग्न कुंडली और अमत्र्य सेन की निरयण भाव चलित कुंडली)। इस ब्रह्मांड में बृहस्पति सर्वश्रेष्ठ ग्रह है। यह धन, धर्म, पुत्र और सौभाग्य का प्रतीक है। यद्यपि कहा जाता है कि यह स्थान की हानि करता है, किंतु इसकी दृष्टि पड़ने पर भाव और उसमें स्थित ग्रहों के बल में वृद्धि होती है। इसकी उपस्थिति से केवल पंचम भाव की संतान से संबंधित और सप्तम भाव की पति से संबंधित हानि होती है, अन्य किसी भाव में इसकी उपस्थिति से कोई हानि नहीं होती। इसे धनकारक ग्रह माना गया है क्योंकि धन द्योतक भावों पर इसकी दृष्टि से यश, धन, पद और सौभाग्य की वृद्धि होती है। कारको भाव नाशाय सिद्धांत के अनुसार इसकी द्वितीय भाव में उपस्थिति धनदायक नहीं होती। हमारा विचार है कि द्वितीय भावस्थ शत्रु राशिस्थ होकर ही यह धन की हानि करता है। कुंडली में भाव 6, 8 और 12 दुष्ट स्थान हैं, जिनमें 8 निकृष्टतम है। इन भावों में अन्य ग्रह अपना बल खो देते हैं, किंतु बृहस्पति अपना बल नहीं खोता। वस्तुतः यह इन स्थानों के कुप्रभाव को कम करता है। भाव 6 और 8 में स्थित बृहस्पति की दृष्टि से धन स्थान पुष्ट होता है जिससे धन की वृद्धि होती है। भाव 12 में स्थित होकर बृहस्पति और अन्य शुभ ग्रह चंद्र, बुध व शुक्र शुभ कार्यों में धन का व्यय करते हैं, अपव्यय नहीं करते। भावेशाक्रान्त राशीशे दुःस्थे भावस्य दुर्बलम। स्वोच्चमित्रस्थराशिस्थे भाव पुष्टिं वदेद् बुधः।। - जातक पारिजात, अध्याय 11, श्लोक 10 जिस राशि में विचारणीय भाव का स्वामी हो, उस राशि का स्वामी यदि दुख स्थान (भाव 6, 8, 12, नीच राशि, शत्रु राशि, नीच नवांश, शत्रु नवांश आदि) में हो, तो विचारणीय भाव अशक्त (दुर्बल) हो जाता है, इसलिए उसकी शुभफल देने की क्षमता शिथिल हो जाती है। इसके विपरीत विचारणीय भाव का स्वामी जिस राशि में हो, उस राशि का स्वामी यदि अपनी स्व, उच्च या मित्र राशि में हो, तो विचारणीय भाव पुष्ट होकर शुभफल देने में सक्षम होता है। अमिताभ बच्चन की कुंडली 14 में लाभेश और धनेश बृहस्पति षष्ठ भावस्थ उच्च कर्क राशि में स्थित होकर धन भाव पर दृष्टि डाल रहा है और कर्क राशि का स्वामी चंद्र नवम भाव में है। यहां षष्ठ भाव में धनेश को अपने शुभ फल देने में अक्षम होना चाहिए, मगर ऐसा नहीं है क्योंकि यह उच्च राशि में है और अपने भाव पर दृष्टि डाल रहा है।
अतः धन और लाभ भाव पुष्ट होकर अपना शुभ फल देने में सक्षम है। उनके जीवन में बृहस्पति की महादशा दिसंबर 1954 से 1970 तक थी, जिसमें उनकी शिक्षा-दीक्षा, परवरिश और यौवनकाल पूर्ण हुआ। सन् 1969 में बृहस्पति-राहु की दशा में उनका पदार्पण फिल्म क्षेत्र में होने से उनके जीवन को एक प्रगतिशील आयाम मिला। अमिताभ का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था। लग्न, कर्म, धन और भाग्य भावों की बलवान स्थिति से उन्हें अपार यश और धन मिला। नवमेश शुक्र अपनी राशि तुला से द्वादश भाव में (लग्न से अष्टम) अन्य तीन ग्रहों के साथ है। साधारणतया षष्ठ, अष्टम और द्वादश भावों में ग्रह अच्छे नहीं माने जाते, मगर भोग का ग्रह शुक्र भोग के स्थान में अच्छा माना जाता है। भृगुर्जनयति व्यये सरति सौख्य वित्तद्युतिम। - फलदीपिका, अध्याय 8, श्लोक 19 व्यय स्थान में शुक्र हो, तो व्यक्ति को धन, प्रतिष्ठा आदि का सुख प्राप्त होता है। अष्टम भावस्थ चार ग्रहों ने अमिताभ के जीवन को एक नया आयाम दिया, जिससे उनके जीवन में अप्रत्याशित उन्नति हुई। सर्वविदित है कि अष्टम भाव गुह्य स्थान है, जिसमें स्थित शुभ ग्रहों से व्यक्ति के आंतरिक गुण उजागर होते हैं।
अष्टम भाव मनुष्य के रहस्यवाद का स्थान है। इस भाव में शुभ ग्रहों की प्रेरणा से मनुष्य अपने रहस्यों को खोजता हुआ गहराई में उतरता है और फिर उत्कर्ष की संभावनाओं को ढूंढ कर लाता है। वस्तुतः यह भाव भौतिक यश और धन का ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक रहस्यवाद का स्थान भी है। शुभ ग्रहाणां संबन्धे रंध्रे परिभव न हि। - सर्वार्थ चिन्तामणि, अध्याय 7, श्लोक 60 अष्टम भावस्थ शुभ ग्रहों के कारण मनुष्य को जीवन में पराभव नहीं सहना पड़ता। वास्तव में ऐसे लोग कलाकौशल, प्रतिभा और निपुणता के धनी होते हैं। उनके लग्न व लग्नेश निर्बल हों, तो उनमें उपर्युक्त गुणों की कमी होती है। कुंडली 15 में अष्टम भावस्थ धनेश और लाभेश बृहस्पति धन और व्यय भाव पर दृष्टि डालते हुए अपव्यय की संभावना को क्षीण कर रहा है। स्वराशिस्थ सूर्य और पूर्णिमा का चंद्र दोनों पूर्ण बलवान होने के कारण आत्मबल, मानसिक बल, कल्पना शक्ति और दूरदर्शिता की वृद्धि कर रहे हैं।
अतः इस व्यक्ति को अपने जीवन में यश, धन और संपत्ति का सुख मिलना चाहिए। किंतु ऐसा नहीं है। यह व्यक्ति एक साधारण दुकानदार था, जिसे कभी भी यश, धन और संपत्ति का सुख नहीं मिला क्योंकि सट्टेबाजी में लिप्त होने के कारण इसका सारा धन नष्ट हो गया। धनेश की स्वगृह पर दृष्टि धन संग्रह की सूचक है, मगर धन संग्रह नहीं हुआ। लग्नेश शनि नीच मेष राशि में और सुखेश तथा भाग्येश शुक्र षष्ठ भाव में होने के कारण निर्बल है तथा शनि की दृष्टि से पंचम और नवम भाव दोनों पीड़ित हैं। षष्ठेश चंद्र से लग्न दूषित है। शनि की महादशा (अगस्त 1947 से 1966 तक) में इस व्यक्ति को धन की बहुत हानि हुई और वह कर्जदार हो गया। उत्तरकालामृत के अनुसार राहु वृष राशि में उच्च होता है अतः इस कुंडली में चतुर्थ भावस्थ वृष राशिस्थ राहु को, जिस पर धनेश और लाभेश बृहस्पति की दृष्टि भी है, अपनी दशा में जातक और उसके माता-पिता के लिए बहुत लाभप्रद होना चाहिए। किंतु राहु की महादशा (अगस्त 1913 से 1931 तक) में उसके माता-पिता को मिथ्या आरोपों के षडयंत्र से अपना घर और गांव छोड़ कर इधर-उधर भागना पड़ा। चतुर्थ भावस्थ छाया ग्रह माता-पिता के यश, धन, संपत्ति, आयु और स्वास्थ्य सुख हेतु शुभ नहीं होते। चतुर्थ की अपेक्षा दशम भावस्थ राहु यश, धन व पद का कारक होता है।