श्रीराम की जन्मकुंडली एवं जीवन चक्र राम का जन्म कर्क लग्न में हुआ था। कर्क लग्न व्यक्ति के सत्कर्मी, निष्कलंक और यशस्वी होने का परिचायक है। कर्क लग्न के साथ-साथ यदि लग्नेश चंद्र भी लग्न में हो, तो जातक समृद्ध, सुसंस्कृत, न्यायप्रिय, सत्यनिष्ठ, क्षमाशील और विद्वान होता है। वह भाग्यशाली तथा जीवन में उच्च स्थान को प्राप्त करने वाला होता है। उसे देश-विदेश में सम्मान की प्राप्ति होती है। कर्क लग्न में चंद्र के साथ गुरु भी इसी भाव में स्थित हो, तो व्यक्ति सत्यनिष्ठ व न्यायप्रिय है और उसका व्यवहार मृदु होता है। कर्क राशि में गुरु के उच्चस्थ होने के कारण जातक जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए कोई भी बलिदान कर सकता है। ऐसा व्यक्ति ऐसी अदृश्य ढाल से युक्त होता है जिसे खरौंच तक भी नहीं लगती। वह आत्म सम्मान को विश्व की सकल संपदा से भी अधिक समझता है। इसी कर्क लग्न में अवतरित भगवान राम में ये सारे गुण विद्यमान थे। इसीलिए वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहलाए। भगवान राम की कुंडली में मंगल के सप्तम भाव में उच्चस्थ होने के कारण उनका विवाह माता सीता जैसी दिव्य कन्या से हुआ। कुंडली में मंगल स्थित राशि मकर का स्वामी शनि भी उच्चस्थ है तथा शनि स्थित राशि का स्वामी शुक्र भी उच्चस्थ है। शुक्र पत्नी का प्रतिनिधि ग्रह है। अतः भगवान राम का माता सीता जैसी दिव्य कन्या से विवाह होना स्वाभाविक है। भगवान राम की जन्म कुंडली में मंगल सप्तम भाव में होने से मंगलीक है। किंतु उसके उच्च राशिस्थ होने से उसका दोष निष्प्रभावी तो रहा किंतु सप्तम् भाव एवं उसके कारकेश शुक्र पर राहु की दृष्टि और केतु की स्थिति तथा सप्तम् भाव में विध्वंसक मंगल की स्थिति के कारण पत्नी वियोग का दुख झेलना पड़ा। शनि, मंगल व राहु की दशम् भाव एवं सूर्य पर दृष्टि पिता की मृत्यु का कारण बनी। शनि की चतुर्थ भाव में स्थिति और चंद्र एवं चंद्र राशि कर्क पर दृष्टि के कारण माताओं को वैधव्य देखना पड़ा। छोटे भाई का प्रतिनिधि ग्रह मंगल सप्तम् भाव में उच्च का है और उस पर गुरु की दृष्टि है, जिसके फलस्वरूप छोटे भाइयों ने भगवान राम की पत्नी अर्थात माता सीता को माता का आदर दिया। उच्च के ग्रह से हंस योग, शनि से शश योग, मंगल से रुचक योग और चंद्र के लग्न में होने के फलस्वरूप गजकेसरी योग है। गुरु और चंद्र के प्रबल होने के कारण यह गजकेसरी योग अत्यंत प्रबल है। पुनर्वसु के अंतिम चरण में होने से चंद्र स्वक्षेत्री होने के कारण वर्गोŸाम में है। अतः भगवान श्री राम के सामने जो भी कठिनाइयां आईं उनका उन्होंने सफलतापूर्वक सामना किया। पांच ग्रहों के उच्च के होने के कारण भगवान अवतारी पुरुष हुए। चंद्र और लग्न के बली गुरु से प्रभावित होने के कारण भगवान ने मर्यादाओं का पालन किया। महर्षि वाल्मीकी के भगवान राम के जन्मचक्र के वर्णन में राहु, केतु एवं बुध की स्थिति का ज्ञान नहीं होता। किंतु भगवान राम के जीवन चरित्र के अनुसार अनुमान लगाया जा सकता है कि ये ग्रह किस भाव एवं किस राशि में होंगे। भगवान राम अत्यंत प्रतापी हुए। इससे पता चलता है कि उनकी जन्मकुंडली में राहु की स्थिति तृतीय भाव कन्या राशि में होगी क्योंकि तृतीय भाव का राहु जातक को पराक्रमी एवं प्रतापी बनाता हैं। इसके अनुसार केतु नवम् भाव में उच्च के शुक्र से युत है। इसी शुक्र के कारण भगवान राम के पराक्रमी एवं प्रतापी बनने में उनकी पत्नी माता सीता माध्यम एवं कारण बनीं। पंचमेश मंगल के पंचम से तीसरे स्थान पर होने के कारण भगवान राम के पुत्र भी अत्यंत पराक्रमी हुए। बुध एवं शुक्र कभी भी सूर्य से 28 अंश से अधिक दूरी पर नहीं जाते इसलिए दोनों को सूर्य के साथ अथवा इर्द-गिर्द ही माना जाएगा। भगवान राम के जीवन चरित्र के अनुसार शुक्र को नवम् भाव के मीन राशि में होना उपयुक्त माना जाएगा। बुध निर्बल ग्रह है। किंतु बृषभ राशि में होने पर वह निर्बल नहीं रह जाता क्योंकि बृषभ राशि का स्वामी शुक्र बुध का मित्र है जो उच्च राशिस्थ है और जिस राशि में वह है उसका स्वामी गुरु भी लग्न में उच्च राशिस्थ है। यहीं पर ग्रहों की शृंखला समाप्त होती है। इसके अलावा बुध द्वादश भाव का स्वामी है और द्वादश भाव से द्वादश होने के कारण अति बली है। अत्यंत बली बुध की राशि कन्या में राहु की स्थिति ने ही भगवान राम को पराक्रमी बनाया। लग्नेश भाग्येश का योग और उन पर पंचमेश, सप्तमेश और दशमेश की दृष्टि से प्रबल राजयोग बना। उच्च का सुखेश शुक्र भाग्य स्थान में है और उस पर भाग्येश गुरु की दृष्टि है। इन्हीं योगों के कारण भगवान चक्रवर्ती सम्राट बने। चतुर्थेश शुक्र के उच्च होने के कारण भगवान राम सांसारिक हुए। चतुर्थ भाव से शनि की दृष्टि लग्न स्थित गुरु पर होने के कारण वह वैरागी हुए अर्थात् सŸाा के अधिकारी होते हुए भी वह वैरागी राजा सिद्ध हुए। चंद्रमा पुनर्वसु नक्षत्र के चतुर्थ चरण में है जिसके कारण उनका जन्म गुरु की 16 वर्षों की महादशा में हुआ। पुनर्वसु नक्षत्र के चतुर्थ चरण में जन्म होन के कारण गुरु की महादशा शेष अधिक से अधिक चार वर्ष रही होगी। तत्पश्चात् शनि की महादशा 19 वर्ष की आई जो 23 वर्ष की आयु तक चली। पुराणों के अनुसार भगवान श्री राम का विवाह 18 वर्ष की आयु में हुआ। उस समय सप्तमेश शनि की महादशा और अंतर्दशा स्वामी गोचर का गुरु सप्तम् स्थान में था। पुराणों के अनुसार 27 वर्ष की आयु में भगवान को चैदह वर्षों का बनवास हुआ और उनके वियोग में उनके पिता महाराज दशरथ का स्वर्गवास हुआ। उस समय भगवान श्री राम बुध की महादशा के प्रभाव में थे। बुध तृतीयेश एवं व्ययेश होने के कारण कष्टकारक था। गोचर में सिंह का शनि दूसरे भाव में था। यह साढ़े साती का अंतिम चरण था। गुरु चंद्रमा से चैथी राशि तुला में था। यह बुध तृतीयेश षष्ठेश पिता के भाव से होकर दूसरे भाव में था। अतः पिता के लिए मारक था और भगवान राम तथा कुटुंब के लिए कष्टकारक था। बुध की दशा में ही सीताहरण हुआ। व्ययेश की दशा में शय्या सुख का नाश होता है और कष्टकारक यात्रा होती है। केतु के नवम् भाव में स्वक्षेत्री होने के कारण लंका विजय करके पुनः अयोध्या के सम्राट बने। जैमिनि ज्योतिष के अनुसार लग्नेश और अष्टमेश यदि चर राशि के होते हैं तो जातक दीर्घायु होता है। भगवान श्री राम का लग्नेश चंद्र चर राशि का है तथा अष्टमेश शनि भी तुला राशि में चर राशि का है। लग्न में गुरु व चंद्र के बली होने के फलस्वरूप भगवान ने अमित आयु प्राप्त की और इसका सदुपयोग भी किया। इस प्रकार ग्रहों की शुभाशुभ स्थिति के फलस्वरूप मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अनेक कष्ट झेले, रावण जैसे शत्रु पर विजय प्राप्त की और राम राज्य की स्थापना की।