आचार्य सूर्यदेव के परम शिष्य हनुमान असंख्य उज्ज्वल किरणों से सुशोभित प्रकाश पुंज तथा ऊर्जा के भंडार सूर्य देव हमारे सनातन और प्रत्यक्ष देवता हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार सूर्य ब्रह्म स्वरूप हैं। वह चराचर जगत की आत्मा हैं, अंधकार और अज्ञान का नाश करने वाले हैं। सविता, मार्तण्ड, भास्कर, दिनकर, दिवाकर व रवि उनके ही नाम हैं। वह ज्ञान के सागर हैं। सर्वश्री मनु तथा याज्ञवल्क्य जी ने उनसे ज्ञान प्राप्त किया था। पवनदेव की सहायता से देवी अंजना के पुत्र रूप में अवतरित एकादश रुद्र के आचार्य भी सूर्य देव ही थे। (भानु सो पढ़न हनुमान् गये। हनुमान बाहुक,4)। सूर्यदेव और हनुमानजी के मध्य गुरु-शिष्य के संबंध के बारे में श्रीमद् वाल्मीकि रामायण में उल्लेख है कि एक बार बाल हनुमान को बड़ी भूख लगी। उस समय माता अंजना घर पर नहीं थीं। कुछ खाने की वस्तु न मिलने पर उन्होंने उदीयमान सूर्य को स्वादिष्ट लाल पका फल समझा और उछल कर निगल लिया। यह प्रसंग श्री हनुमान चालीसा में इस प्रकार वर्णित है - जुग सहस्र जोजन पर भानू। लील्यौ ताहि मधुर फल जानू।। (हनु. चा., 18) उस दिन सूर्य ग्रहण होने वाला था। राहु हनुमान जी को सूर्य के समीप देखकर देवराज इंद्र से शिकायत करने गये कि उसका भक्ष्य किसी और को क्यों दे दिया। तब इंद्र ऐरावत पर चढ़कर राहु के साथ घटनास्थल पहंुचे। राहु को दोबारा देखकर हनुमान जी उसे पकड़ने दौड़े और वह इंद्र को पुकारता हुआ भागा। इंद्र आगे बढ़े तो, ऐरावत हनुमान जी से डर कर भागा। इस पर बचाव के लिए इंद्र ने वज्र प्रहार कर दिया जिससे हनुमान जी की ठोड़ी कुछ टेढ़ी हो गई और वह मूच्र्छित हो गए। इससे पवन देव को बड़ा दुख हुआ और उन्होंने क्रुद्ध होकर अपनी गति बंद कर दी जिसके कारण सब के प्राण संकट में पड़ गए। तब सब देवता ब्रह्माजी को साथ लेकर पवन देव के पास गए और उन्हें प्रसन्न किया तथा हनुमान जी को आशीर्वाद सहित अपने-अपने शस्त्रास्त्र प्रदान कर अवध्यता का वरदान दिया। सूर्यदेव ने भी उन्हें अपने तेज का शतांश दिया और शिक्षा देकर अद्वितीय विद्वान बना देने का आश्वासन दिया। इससे संकेत मिलता है कि हनुमान जी सूर्यदेव के पास ज्ञान पाने के लिए गए थे। उनके भाव की शुद्धता का प्रमाण यह भी है कि सूर्यदेव ने उन्हें निर्दोष समझा और जलाया नहीं। इसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण के उत्तर कांड के इस श्लोक में इस प्रकार है। शिशुरेष त्वदोषज्ञ इति मत्वा दिवाकरः कार्यं चास्मिन् समायŸामित्येवं न ददाह सः।। (वा.रा.उ.का., 35,30) अर्थात् ”यह बालक दोष को जानता ही नहीं है और भविष्य में इससे बड़ा कार्य होगा, यह सोच कर दिवाकर ने उन्हें जलाया नहीं।“ सम्पाती भी सूर्यदेव के समीप उड़कर अभिमानपूर्वक गया था जिसका परिणाम प्रतिकूल हुआ। उसके पंख जल गए थे। उसने स्वयं स्वीकारा है - मैं अभिमानी रवि निअरावा।। जरे पंख अति तेज अपारा। परेऊँ भूमि करि घोर चिकारा।। (रा.च.मा.,कि.का., 27.3-4) राहु के लिए ज्ञानस्वरूप सूर्य भक्षणीय हैं किंतु हनुमान जी के लिए आदरणीय और अनुकरणीय हैं। अतः हनुमान जी ने उन्हें सुरक्षा की दृष्टि से मुख में रख लिया। आगे चलकर श्री सीता जी को पहचान में देने के लिए भगवान श्री राम ने उन्हें जो मुद्रिका दी थी उसे भी हनुमान जी मुख में रखकर लंका गए थे। प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं। जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।। (हनु.चा. 19) हनुमान जी की भूख शुभेच्छा का प्रतीक है जो ज्ञान-अर्जन की पहली सीढ़ी है और जिसके फलस्वरूप उन्हें सूर्यदेव की अनुकंपा प्राप्त हुई। ज्ञान प्राप्ति की साधना करने वालों के समक्ष देवता भी बाधक बनकर आते हैं। श्री रामचरितमानस में इसका उल्लेख इस प्रकार है- जौं तेहि विघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी।। (रा.च.मा., उ.का., 117.10) देवराज इंद्र की भूमिका ऐसी ही थी। परंतु हनुमान्जी की प्रबल ज्ञानेच्छा की जीत हुई। हनुमान जी की अध्ययन शैली का वर्णन करते हुए श्री वाल्मीकि जी कहते हैं- असौ पुनव्र्याकरणं ग्रहीष्यन् सूर्योन्मुखः प्रष्टुमनाः कपीन्द्रः। उद्यद्गिरेरस्तगिरिं जगाम ग्रन्थं महद्धारयन प्रमेयः।। (वा.रा., उ. का., 36.45) अर्थात् ‘‘कपींद्र हनुमान व्याकरण सीखने के लिए सूर्य के सम्मुख रहकर प्रश्न करते हुए, महाग्रंथ को याद करते हुए उदयाचल से अस्ताचल तक चले जाते थे।’’ गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी लिखा है: भानुसों पढ़न हनुमान गये भानु मन अनुमानि सिसुकेलि कियो फेरफार सो। पाछिले पगनि गम गगन मगन-मन क्रमको न भ्रम, कपि बालक-बिहार सो।। (हनु.बा. 4) अर्थात ‘‘ सूर्य भगवान के पास हनुमान जी पढ़ने गए, सूर्य देव ने बाल क्रीड़ा समझकर टालमटोल की कि मैं स्थिर नहीं रह सकता और बिना आमने-सामने हुए पढ़ना-पढ़ाना असंभव है। परंतु ज्ञान के भूखे हनुमान जी ने कठिनाइयों की तनिक भी परवाह नहीं की। उन्होंने सूर्यदेव की ओर मुख करके पीठ की ओर पैरों से प्रसन्नमन आकाश में बालकों के खेल सदृश गमन किया, जिससे पाठ्यक्रम में किसी प्रकार का भ्रम नहीं हुआ।’’ हनुमान जी ने सूर्यदेव से सभी विद्याएं शीघ्र ही सीख लीं। एक भी शास्त्र उनके अध्ययन से अछूता नहीं रहा। गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमान् जी को ‘सकल गुण निधानम्’ और ‘ज्ञानिनामग्रण्यम्’ कहा है और विनयपत्रिका में उनकी इस प्रकार स्तुति की है - जयति वेदान्तविद विविध विद्या विशद, वेद-वेदांगविद ब्रह्मवादी। ज्ञान-विज्ञान-वैराग्य-भाजन विभो विमल गुण गनति शुक नारदादी।। (वि.प. 26) भगवान श्रीराम से हनुमान जी की जब पहले सबसे बातचीत हुई, तब भगवान बड़े प्रभावित हुए और उनकी विद्वŸाा एवं वाक्पटुता की प्रशंसा करते हुए लक्षमण जी से कहा - नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम।। नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्। बहु व्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्।। (वा.रा., कि.का. 3.28-29) अर्थात ‘‘जिसे ऋग्वेद की शिक्षा न मिली हो, जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया हो तथा जो सामवेद का विद्वान न हो, वह ऐसा सुंदर नहीं बोल सकता। निश्चय ही इन्होंने संपूर्ण व्याकरण का अनेक बार अध्ययन किया है, क्योंकि बहुत सी बातें बोलने पर भी इनके मुख से कोई अशुद्धि नहीं निकली।’’ श्री सीता जी की खोज में लंका की यात्रा करते समय सुरसा द्वारा ली गई परीक्षा में हनुमान जी की बुद्धिमŸाा प्रमाणित हुई, और लंका में उन्होंने पग-पग पर बुद्धिमानी का ऐसा परिचय दिया कि रावण के मंत्री, पत्नी, भ्राता सब उनका समर्थन करने लगे। इससे उनकी विद्या-बुद्धि की विलक्षणता परिलक्षित होती है। अपनी शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात हनुमान जी ने आचार्य से गुरुदक्षिणा लेने का आग्रह किया। सूर्यदेव ने शिष्य के संतोषार्थ अपने अंश से उत्पन्न सुग्रीव की सुरक्षा करने को कहा। हनुमान जी गुरु की इच्छा पूरी करने का आश्वासन देकर सुग्रीव के पास शीघ्र पहंुचे और उनके साथ छाया की भांति रहकर सुरक्षा और सेवा में तत्पर हो गए। श्री हनुमान जी ने सुग्रीव की श्री राम से मित्रता करवाकर उनका जीवन संवारा और अपने आचार्य सूर्यदेव की मनोवांछित दक्षिणा पूर्ण की। श्री राम के राज्याभिषेक के बाद जब वानर अपने-अपने स्थान को भेजे जाने लगे तब हनुमान जी ने सुग्रीव से प्रार्थनापूर्वक कहा कि वह श्रीराम जी की सेवा में केवल दस दिन और रहकर पुनः उनके पास पहुंच जाएंगे। सुग्रीव तब तक भयमुक्त और सुरक्षित हो गए थे। अतः उन्होंने हनुमान जी को सदा के लिए श्रीराम जी की सेवा में रह जाने का आदेश दिया। अंत में भगवान भास्कर से आर्त भाव से उन्होंने विनम्र प्रार्थना की - नमः सूर्याय शान्ताय सर्वरोग विनाशिने। आयुरारोग्यमैश्वर्यं देहि देव जगत्पते।। ¬ सूर्यायनमः। ¬ भास्कराय नमः। ¬ आदित्याय नमः।। सूर्य भगवान के पास हनुमान जी पढ़ने गए, सूर्य देव ने बाल क्रीड़ा समझकर टालमटोल की कि मैं स्थिर नहीं रह सकता और बिना आमने-सामने हुए पढ़ना- पढ़ाना असंभव है। परंतु ज्ञान के भूखे हनुमान जी ने कठिनाइयों की तनिक भी परवाह नहीं की। उन्होंने सूर्यदेव की ओर मुख करके पीठ की ओर पैरों से प्रसन्नमन आकाश में बालकों के खेल सदृश गमन किया, जिससे पाठ्यक्रम में किसी प्रकार का भ्रम नहीं हुआ।’’ श्री हनुमान जी ने सुग्रीव की श्री राम से मित्रता करवाकर उनका जीवन संवारा और अपने आचार्य सूर्यदेव की मनोवांछित दक्षिणा पूर्ण की। श्री राम के राज्याभिषेक के बाद जब वानर अपने-अपने स्थान को भेजे जाने लगे तब हनुमान जी ने सुग्रीव से प्रार्थनापूर्वक कहा कि वह श्रीराम जी की सेवा में केवल दस दिन और रहकर पुनः उनके पास पहुंच जाएंगे। सुग्रीव तब तक भयमुक्त और सुरक्षित हो गए थे। अतः उन्होंने हनुमान जी को सदा के लिए श्रीराम जी की सेवा में रह जाने का आदेश दिया।