अविघ्नकर व्रत (25.02.2012) पं. ब्रजकिशोर शर्मा ब्रजवासी अविघ्नकर व्रत का पालन फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष चतुर्थी को करने का विधान है। इस व्रत को सभी देवगणों, मनीषियांे, संतों आदि ने भी मनोवांछित कामनाओं की पूर्ति हेतु किया है। गणेश भगवान् के अन्यान्य व्रतों की तरह ही इस व्रत में भी प्रातःकाल स्नानादि दैनिक कृत्यों को संपन्न कर विधिवत् संकल्प लें।
संपूर्ण दिन ‘‘ऊँ गं गणपतये नमः’’ मंत्र का जप करते हुए सांयकाल गणेश, नवग्रहादि, शिव परिवार के विग्रह आसन पर विराजमान करें। हो सके तो गणेश भगवान् की मंगलमूर्ति नदी आदि की पवित्र मिट्टी से तैयार कर षोड्शोपचार पूजन करें और अंत में कार्य-सिद्धि हेतु प्रार्थना करें।
संपूर्ण दिन व्रत का पालन करते हुए गणेश पूजनोपरांत 1, 3, 5, 7, 9 या 11 की संख्या में यथासंभव 5 वर्ष तक की उम्र के बालकों को मिष्ठान्नादि भोजन कराकर द्रव्य-दक्षिणादि देकर अभिवादन कर विदा करें तथा स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करें। पूजन के समय भगवान गणेश की प्राकट्य लीला कथा को पढ़ें या श्रवण करें।
स्वयं पूजन की असमर्थता हो तो विद्वान् ब्राह्मण की सान्निध्यता में ही संपन्न करें। श्रीगजानन की प्राकट्य- लीला कथा द्वापर युग की बात है। एक दिन पार्वतीवल्लभ शिव ब्रह्म-सदन पहुंचे। उस समय चतुर्मुख शयन कर रहे थे। निद्रा से उठते ही उन्होंने जंभाई ली। उसी समय उनके मुख से एक महाघोर पुरुष प्रकट हुआ।
जन्म लेते ही उसने घोर गर्जना की। उस के उस गर्जन से संपूर्ण वसुधा कांप गयी, दिक्पाल चकित हो गये। उस को देखकर पùयोनि भी चकित हो गये।
उन्होंने उससे पूछा- ‘तुम कौन हो? तुम्हारा जन्म कहां हुआ है और तुम्हें क्या अभीष्ट है?’ उक्त पुरुष ने उŸार दिया- मैं आपके मुख से प्रकट हुआ आपका ही पुत्र हूं। अतएव आप मुझे स्वीकार कीजिए और मेरा नामकरण कर दीजिए।’ विधाता अत्यंत प्रसन्न हुए।
उन्होंने कहा-‘बेटा!’ अतिशय अरुणवर्ण होने के कारण तेरा नाम ‘सिंदूर’ होगा। त्रैलोक्य को अधीन करने की तुझमें अद्भुत शक्ति होगी। तू क्रोधपूर्वक अपनी विशाल भुजाओं में पकड़कर जिसे दबोच लेगा, उसके शरीर के सैकड़ों टुकड़े हो जायेंगे, त्रैलोक्य में तेरी जहां इच्छा हो, तुझे जो स्थान प्रिय लगे, वहां निवास कर।’
पिता से इतने सारे वर प्राप्त कर मंदोन्मत्त सिंदूर सोचने लगा- ‘उनका दिया गया वरदान सत्य है कि नहीं, कैसे पता चले? यहां कोई है भी नहीं, जिसे मैं अपने भुजपाश में आबद्धकर वर का परीक्षण कर लूं। कहां जाऊं? कहीं तो कोई नहीं दिखाई देता।’
अब वह सीधे पितामह के समीप पहुंचा। उसकी कुचेष्टा की कल्पना करके भयभीत होकर विधाता ने पूछा-लौट कैसे आये, बेटा? ‘आपके वर की परीक्षा करना चाहता हूं’।
सिंदूर का कथन सुनकर पितामह ने उसे शाप देते हुए कहा- ‘सिंदूर’, अब तू असुर हो जायेगा। प्रभु गजानन तेरे लिए अवतरित होंगे और निश्चय ही तुझे मार डालेंगे।
इस प्रकार शाप देते हुए पितामह प्राण बचाकर भागे। दौड़ते-दौड़ते वे वैकुंठ पहुंचे और श्रीहरि से निवेदन किया- ‘प्रभो! इस दुष्ट से मेरी रक्षा कीजिए।’ श्रीविष्णु ने अत्यंत मधुर वाणी में उसे समझाना चाहा; लेकिन वह असुर युद्ध के लिए विष्णु की ओर बढ़ने लगा। तब भगवान् विष्णु ने उसे भगवान् शंकर से युद्ध के लिए प्रेरित किया।
वह कैलाश पर्वत पर जा पहुंचा। वहां आशुतोष शिव पùासन लगाये ध्यानस्थ थे। नंदी और भंृगी आदि गण उन परम प्रभु के आस-पास थे और माता पार्वती उनकी सेवा कर रही थीं। सिंदूर पार्वती की ओर मुड़ा और उनकी वेणी पकड़ी ली और बलपूर्वक ले चला।
कोलाहल से त्रिपुरारि की समाधि भंग हुई। शंकर कुपित असुर से युद्ध करने के लिए उद्यत थे ही, उसी समय माता पार्वती ने मन-ही-मन मयूरेश का चिंतन किया। मयूरेश्वर ब्राह्मण के वेष में प्रकट हो गये। उन्होंने अपने तीक्ष्ण तेजस्वी परशु से असुर को पीछे हटाकर अत्यंत
मधुर वाणी में कहा- ‘माता गिरिजा को तुम मेरे पास छोड़ दो; फिर शिव के साथ युद्ध करो। युद्ध में जिसकी विजय होगी, पार्वती उसी की होगी। अन्यथा नहीं।’ मयूरेश्वर के बचन सुनकर सिंूदर संतुष्ट हुआ। युद्ध आरंभ हुआ। परशु के आघात से सिंदूर की शक्ति अत्यंत क्षीण हो गयी। उसके शिथिल होते ही मयूरेश ने उस पर अपने कठोर त्रिशूल का प्रहार किया और वह असुर विकलांग होकर वहीं गिर पड़ा। उसने पार्वती की आशा छोड़ दी। शंकर विजयी हुए। अब ब्राह्मण वेषधारी मयूरेश अपने स्वरूप में प्रकट हो गये और माता पार्वती से कहा- ‘मैं आपके पुत्र रूप में शीघ्र ही प्रकट होकर असुरों का विनाश करूंगा।’ इतना कहकर वे अन्तर्धान हो गये। इधर जब सिंदूर के आतंक से त्रैलोक्य कंपित हो गया। देवगण और कुल जन करुणामय विनायक की स्तुति करने लगे।
देवदेव गणराज प्रसन्न होकर उनके समक्ष प्रकट हुए और कहा- ‘देवताओ! मैं असुर सिंदूर का वध करूंगा। ‘गजानन’ यह मेरा सर्वार्थ साधक नाम प्रसिद्ध होगा। मैं सिंदूर का वधकर पार्वती के सम्मुख अनेक प्रकार की लीलाएं करूंगा।’ इतना कहकर गजानन अंतर्धान हो गये। देवाधिदेव भगवान् शंकर के अनुग्रह से जगजननी पार्वती के सम्मुख अतिशय तेजोराशिसे उद्दीप्त परम आल्हादक चंद्र-तुल्य तत्व प्रकट हुआ। माता पार्वती ने उस परम तेजस्वी मूर्ति से पूछा- ‘आप कौन हैं? कृपया परिचय देकर आप मुझे आनंद प्रदान करें।’ तेजस्वी विग्रह ने उŸार दिया- ‘माता!’ त्रेता में शुभ्रवर्ण षड्भुज मयूरेश्वर के रूप में मैंने ही आपके पुत्र के रूप में अवतरित होकर सिंधु दैत्य का वध किया था और द्वापर में पुनः आपको पुत्र-सुख प्रदान करने का जो वचन दिया था, उसका पालन करने के लिए मैं आपके पुत्र रूप में प्रकट हूं। मैंने ही ब्राह्मण वेष में आकर सिंदूर से आपकी रक्षा की थी। माता, अब मैं सिंदूर का वधकर त्रिभुवन को सुख-शांति दूंगा और भक्तों की कामनापूर्ति करूंगा। मेरा नाम ‘गजानन’ प्रसिद्ध होगा।
देवदेव विनायक को पहचान कर गौरी ने उनके चरणों में प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर वे उनका स्तवन करने लगीं। माता की प्रार्थना सुनते ही परम प्रभु अत्यंत अदभुत चतुर्भुज शिशु हो गये। कुछ क्षण के पश्चात् शिशु रूपधारी परम प्रभु गजानन ने शिव से कहा- धर्मात्मा राजा वरेण्य और उसकी पत्नी पुष्पिका ने मुझे संतुष्ट करने के लिए बारह वर्षों तक कठोर तप किया था। मैंने प्रसन्न होकर उन्हें यह वर प्रदान किया कि ‘निश्चय ही मैं तुम्हारा पुत्र बनंूगा।’ पुष्पिका ने अभी-अभी प्रसव किया है किंतु उसके पुत्र को एक राक्षसी उठा ले गयी है। इस समय पुष्पिका मूर्छित है; पुत्र के बिना वह प्राण त्याग देगी। अतएव आप मुझे तुरंत उस प्रसूता के पास पहुंचा दीजिए।’ गजानन की वाणी सुनकर भगवान् शंकर ने नंदी को बुलाकर कहा- तुम इस पार्वती पुत्र को तुरंत पुष्पिका की मूर्छा दूर होने के पूर्व ही उसके समीप रखकर लौट आओ।
नंदी अपने स्वामी के आदेशानुसार गजमुख को पुष्पिका के सम्मुख चुपचाप रखकर तुरंत लौट आये। सबेरे पुष्पिका ने ध्यानपूर्वक अधूरे शिशु को देखा। इस अद्भुत बालक को देखकर पुष्पिका चकित और दुःखी ही नहीं हुई, बल्कि भय से कांपती हुई वह प्रसूति-गृह से बाहर भागी। वह शोक से व्याकुल होकर रोने लगी। रानी का रुदन सुनकर उनकी परिचारिकाएं भी भयाक्रांत हो कांपती हुई बाहर आ गयी। जिन-जिन स्त्री-पुरुषों ने उन शिशु-रूपधारी परम पुरुष का दर्शन किया, वे सभी भयभीत हुए। कुछ तो मूर्छित हो गये। प्रत्यक्षदर्शियों ने राजा से कहा- ऐसे विचित्र बालक को घर में नहीं रखना चाहिए।
ऐसे वचन सुनकर नरेश वरेण्य ने अपने दूत को बुलाकर शिशु को निर्जन वन में छोड़ आने की आज्ञा दी। राजा के दूत ने उस नवजात शिशु को निर्जन वन में एक सरोवर तट पर रख दिया और द्रुत गति से लौट आया। वहां उस नवजात शिशु पर अचानक महर्षि पराशर की दृष्टि पड़ी। महामुनि ने शिशु को बार-बार ध्यान पूर्वक देखा। उसके चरणों पर ध्वज, अंकुश और कमल की रेखाएं दिखायी दीं। महर्षि को रोमांच हो आया।
आश्चर्यचकित मुनि के मुंह से निकल गया- ‘ये तो साक्षात् परब्रह्म परमेश्वर हैं।’ महर्षि ने शिशु के चरण में प्रणाम कर उसे अत्यंत आदरपूर्वक अंक में ले लिया और प्रसन्न-मन आश्रम की ओर चले। गजानन के चरण-स्पर्श से ही महर्षि पराशर का सुविस्तृत आश्रम अतिशय मनोहर हो गया। वहां के सूखे वृक्ष भी पल्लवित और पुष्पित हो उठे। वहां की गायें कामधेनु-तुल्य हो गयीं। सुखद पवन बहने लगा। आश्रम दिव्यातिदिव्य हो गया। ‘मेरे शिशु का पालन दिव्यदृष्टि-संपन्न महर्षि पराशर कर रहे हैं। ’इस संवाद से नरेश वरेण्य अत्यंत प्रसन्न हुए।
उन्होंने भी अपने यहां पुत्रोत्सव मनाया और अत्यंत श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को बहुमूल्य वस्त्र, स्वर्ण और रत्नालंकरण से संतुष्ट किया। गजानन नौ वर्ष के हुए। कुशाग्र बुद्धि गजानन समस्त वेदों, उपनिषदों, शास्त्रों एवं शस्त्रास्त्र संचालन आदि में पारंगत विद्वान् हो गये।
उनकी प्रखर प्रतिभा का अनुभव करके महर्षि पराशर चकित हो जाते; ऋषिगण विस्मित रहते। गजमुख सबके अन्यतम प्रीतिभाजन बन गये थे। इधर सर्वथा निरंकुश, परम उद्दण्ड, शक्तिशाली सिंदूर का अत्याचार पराकाष्ठा पर पहुंच गया था। उसके भय से देवता, ऋषि और ब्राह्मण सभी त्रस्त थे, कुछ गिरि-गुफाओं और निविड़ वनों में छिपकर अपने दिन व्यतीत करते थे।
अधिकांश देव-विप्रादि सिंदूर के कारागार में यातना सह रहे थे। उस उद्धत असुर की इस अनीति से गजानन अधीर और अशांत हो उठे। उन्होंने अपने पिता पराशर से कहा- ‘आप और मां दोनों मुझे आशीष् दें, ताकि मैं सिंदूर को मारकर अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना कर सकूं।’ पुलकित महर्षि और महर्षि-पत्नी ने गजानन को प्रेमपूर्वक आशीर्वाद दिया।
गजानन वायु वेग से चल पड़े। उनके परम तेजस्वी स्वरूप से प्रलयाग्नि तुल्य ज्वाला निकल रही थी। भयभीत दूतों ने सिंदूर के पास जाकर इसकी सूचना दी। सिंदूर आकाशवाणी की स्मृति से चिंतित हो गया; किंतु दूसरे ही क्षण क्रोध से उसके नेत्र लाल हो गये। वह वेग से चला और गजमुख के सम्मुख पहुंच गया तथा अनेक प्रकार के अनर्गल प्रलाप से गजानन को डराने-धमकाने लगा। ‘दुष्ट असुर!’
गजानन ने अत्यंत निर्भीकता से कहा- ‘मैं दुष्टों का सर्वनाश कर धरती का उद्धार और सद्धर्म की स्थापना करने वाला हूं। यदि तू मेरी शरण में आकर अपने पातकांे के लिए क्षमा-प्रार्थना पूर्वक सद्धर्मपरायण नरेश की भांति जीवित रहने की प्रतिज्ञा कर ले, तब तो तुझे छोड़ दूंगा; अन्यथा विश्वास कर, तेरा अंतकाल समीप आ गया है।’ इतना कहते ही पार्वतीनंदन ने विराट रूप धारण कर लिया।
उनका मस्तक ब्रह्मांड का स्पर्श करने लगा। वे सहस्रशीर्ष, सहस्राक्ष, सहस्रपाद विश्वरूप प्रभु सर्वत्र व्याप्त थे। उन अनंत प्रभु का तेज अनंत सूर्यों के समान था। उनका महाविराट रूप देखकर सिंदूर सहम गया, पर उसने धैर्य नहीं छोड़ा। वह अपना खड्ग लेकर प्रहार करना ही चाहता था कि देवदेव गजानन ने कहा- ‘मूर्ख! तू मेरे अत्यंत दुर्लभ स्वरूप को नहीं जानता; अब मैं तुझे मुक्ति प्रदान करता हूं।’ देवदेव गजानन ने महादैत्य सिंदूर का कण्ठ पकड़ लिया। इसके बाद वे उसे अपने वज्र-सदृश दोनों हाथों से दबाने लगे। असुर के नेत्र बाहर निकल आये और उसी क्षण उसका प्राणांत हो गया। क्रुद्ध गजानन ने उसके लाल रक्त को अपने दिव्य अंगों पर पोत लिया। इस कारण जगत् में उन भक्त वांछाकल्पतरु प्रभु का ‘सिंदूर वदन’ और ‘सिंदूर प्रिय’ नाम प्रसिद्ध हो गया। सब ने गजानन की भक्तिपूर्वक षोडशोपचार पूजा की। ‘मेरे पुत्र ने लोक कंटक सिंदूर को समाप्त किया है।’ इस समाचार से प्रसन्न होकर राजा वरेण्य भी वहां आ पहुंचे।
अपने पुत्र का प्रत्यक्ष प्रभाव देखकर राजा वरेण्य अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने भी अत्यंत प्रीतिपूर्वक गजानन की पूजा की। पश्चाताप करते हुए राजा वरेण्य की स्तुति से प्रसन्न होकर गजानन ने भी अपनी चारों भुजाओं से उनका आलिंगन किया और कहा-तुमने अपनी पत्नी के साथ दिव्य सहस्र वर्षों तक कठोर तप किया था, तब मैंने प्रसन्न होकर तुम्हें दर्शन दिया। तुमने मुझसे मोक्ष न मांगकर मुझे पुत्र-रूप में प्राप्त करने की इच्छा व्यक्ति की थी। अतएव मैंने यह साकार विग्रह धारण किया। मैंने अवतार धारणकर सारा कार्य पूर्ण कर लिया है।
अब स्वधामप्रयाण करूंगा। तुम चिंता मत करना।’ कृपावश प्रभु गजानन वहीं आसन पर बैठ गये। अपने सम्मुख श्रद्धाजंलिबद्ध राजा वरेण्य के मस्तक पर उन्हांेने अपना त्रितापहारी वरद हस्त रख दिया। तदनंतर उन्होंने नरेश वरेण्य को सुविस्तृत ज्ञानोपदेश प्रदान किया। तत्पश्चात् भगवान् श्रीगजानन अंर्तधान हो गये।