रोग एवं उपाय मानव शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना है- अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश एवं जल। इन तत्वों का जब मानव शरीर में संतुलन बना रहता है, मनुष्य प्रसन्नचित्त एवं उत्तम व्यक्तित्व वाला निरोग व स्वस्थ रहता है।
मानव शरीर में इन्हीं तत्वों के असंतुलित होने पर मनुष्य रोगग्रस्त, चिड़चिड़ा, दुखों से पीड़ित एवं कांतिहीन हो जाता है। मानव शरीर में तत्वों का असंतुलन साधारण भाषा में रोग कहलाता है। इसी रोग का उपाय करने के लिए व्यक्ति अलग-अलग तरीके अपनाता है।
जैसे आयुर्वेद चिकित्सा, एलोपैथी चिकित्सा, होम्योपैथी चिकित्सा, स्पर्श चिकित्सा, रेकी, एक्यूपंक्चर एवं एक्यूप्रेशर आदि या ज्योतिषीय उपाय जैसे रत्न, यंत्र, दान, विसर्जन आदि तथा इन सभी पद्धतियों द्वारा जब असफलता ही हाथ लगती है तो आध्यात्मिक शक्ति की खोज में व्यक्ति साधुओं व ऋषि- मुनियों के पास उनका आशीर्वाद लेने हेतु जाता है।
आयुर्वेद चिकित्सा की खोज भारत के ऋषि-मुनियों के द्वारा की गयी। उन्होंने अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर कुछ ऐसी जड़ी-बूटियों की खोज की जिससे शरीर में जिस तत्व की कमी हो उसे पूरा किया जा सके। जैसे ही तत्व की आपूर्ति हो जाती है, शरीर के अंग पुनः क्रियाशील हो जाते हैं और रोग दूर हो जाता है। ऐलोपेथी में भी रासायनिक क्रिया द्वारा तत्वों की कमी को पूरा करने की कोशिश की जाती है या रसायन-क्रिया द्वारा विषाणुओं को कमजोर कर दिया जाता है जिससे शरीर पुनः क्रियाशील हो जाता है।
होम्योपेथी में माना जाता है कि जिस पदार्थ के कारण रोग है यदि उस पदार्थ को उससे अधिक शक्ति के रूप में शरीर में प्रेषित करें तो पहले वाला पदार्थ निष्क्रिय हो जाता है और मनुष्य स्वस्थ हो जाता है। इसी सूत्र के आधार पर होम्योपेथी की दवाएं तैयार की जाती है। मनुष्य रोगी क्यों होता है। मुख्यतया रोग का मस्तिष्क से सीधा संबंध पाया गया है।
अचानक किसी बड़े संताप के कारण हृदयाघात की आशंका 30 गुना तक बढ़ जाती है। अक्सर देखा जाता है कि बुजुर्ग दंपति में यदि एक की मौत हो जाय तो दूसरे की भी मौत कुछ ही अंतराल में हो जाती है। कारण है कि मस्तिष्क व्यक्ति की सोच के अनुरूप शरीर में विभिन्न रसों का स्राव करता है व कुछ का उत्पादन बंद कर देता है जो कि रोग का मुख्य कारण बनते हैं।
इस क्रिया को संतुलित और सुव्यवस्थित करने के लिए हम चिकित्सा-पद्धति का सहारा लेते हैं। एक्यूप्रेशर या एक्यूपंक्चर में हम किसी नर्व के ऊपर प्रेशर डालकर जाग्रत करने की कोशिश करते हैं जिससे वह मस्तिष्क को सही संदेश भेजे और मस्तिष्क सही रसायन क्रिया करने का आदेश दे।
स्पर्श पद्धति में या रेकी में हम मनुष्य के मस्तिष्क को ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से परिपूर्ण करने की कोशिश करते हैं जिससे वह स्वयं सही कार्य करना शुरू कर दे और शरीर की रसायन क्रियाएं सही हो जाएं। ज्योतिष में भी अनेक उपचार प्रचलित है जैसे कोई रोग हो जाता है तो हम उसे किसी ग्रह का लाॅकेट आदि धारण करने के लिए बतलाते हैं अन्यथा उसे किसी मंत्र जाप या अनुष्ठान के लिए कहते हैं।
रोगों से छुटकारे के लिए महामृत्युंजय मंत्र जप के बारे में तो सभी जानते हैं। कभी किसी वस्तु-विशेष का दान या विसर्जन भी बताया जाता है। रत्न-धारण तो मुख्य उपाय है ही। ये उपाय कैसे काम करते हैं? रत्न धारण करने से व्यक्ति के शरीर में वांछित सकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश सूर्य की किरणों के माध्यम से होता है।
सूर्य से सभी प्रकार के रंगों से ऊर्जा प्राप्त होती है। उसमें से जिस ऊर्जा का अभाव होता है, वह रत्न के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर जाती है, जिससे हमारे शरीर और मस्तिष्क का नियंत्रण व संतुलन बना रहता है और हम स्वस्थ महसूस करते हैं। इन रत्नों को अंगूठी, लाॅकेट, माला, ब्रेसलेट आदि किसी भी रूप में धारण किया जा सकता है।
मंत्रों के द्वारा हम एक विशिष्ट प्रकार की ध्वनि पैदा करते हैं तथा मंत्र हमारे वातावरण में सकारात्मक तरंगों को उत्पन्न करते हैं जिससे वांछित ऊर्जा की प्राप्ति से हम रोगमुक्त हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त हम उस ग्रह को भी अपने अनुकूल बना पाते हैं जो हमारे लिये प्रतिकूल होते हैं। कौन सा ग्रह किस व्यक्ति के लिए अनुकूल अथवा प्रतिकूल है यह हम उस जातक की जन्मकुंडली या हस्तरेखा द्वारा जान सकते हैं।
दान स्नान, व्रत आदि से जातक को मानसिक शांति का अनुभव होता है, जिससे उसके शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है तथा नकारात्मक ऊर्जा का निराकरण हो जाता है जिससे शरीर में अनुकूल रासायनिक क्रियाऐं होने से जातक अपने को रोगामुक्त और स्वस्थ महसूस करता है। रेकी से स्पर्श द्वारा या बिना स्पर्श किये रोगों का उपचार किया जाता है।
व्यक्ति के अंदर सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार की ऊर्जाऐं होती है। इस पद्धति द्वारा जातक के शरीर में सकारात्मक ऊर्जाओं का संचार रेकी मास्टर अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर करता है जिससे कि जातक अपने आपको स्वस्थ महसूस करता है। मनुष्य के शरीर में जो चक्र होते हैं, उनमें से कुछ या तो क्रियाहीन हो जाते हैं या अधिक सक्रिय हो जाते हैं।
प्राणिक हीलिंग के द्वारा उन ऊर्जा चक्रों को व्यवस्थित व संतुलित करके जातक को स्वस्थ करने का प्रयास किया जाता है। कई बार जातक को संगीत, भजन, कीर्तन आदि के प्रभाव से भी ठीक किया जाता है।
उदाहरण के लिये यदि किसी व्यक्ति को ब्लड प्रेशर की बीमारी हो तो उसको यदि किसी भजन-कीर्तन का आनंद मिल जाये तो वह अपने आपको तनाव मुक्त महसूस करेगा तथा उसके शरीर व मस्तिष्क में ऐसी रासायनिक क्रियाऐं स्वतः होने लगेंगी जिससे जातक का ब्लडप्रेशर स्वतः सामान्य हो जायेगा।
मस्तिष्क जैसा सोचता है वैसा ही शरीर करता है और किये गये कार्यों के फल से मनुष्य स्वस्थ या रोगी होता है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति दान, पुण्य, धार्मिक कार्य या सकारात्मक कार्य करता है तो मनुष्य को मानसिक शांति एवं प्रसन्नता का अनुभव होता है जिसके कारण शरीर में सकारात्मक रासायनिक क्रियाऐं होती हैं।
जिसके कारण मनुष्य स्वस्थ महसूस करता है तथा उसकी आभा एवं कांति उसके मुखमंडल पर देखी जा सकती है। यही कारण है कि हमारे ऋषि-मुनि इतने अधिक वर्षों तक स्वस्थ रहते थे और दीर्घायु होते थे क्योंकि वे हमेशा प्रकृति के नजदीक रहकर काम, क्रोध, लोभ, मोह से विमुक्त जीवनयापन करते थे तथा हमेशा अपने आपको आध्यात्मिक कार्यों में संलग्न रखते थे जिससे उनको नकारात्मक ऊर्जा स्पर्श भी नहीं कर पाती थी।
इसके विपरीत आज के आधुनिक युग में मनुष्य, काम, क्रोध, लोभ, मोह के साथ साथ प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा वाली इस दुनिया की भागदौड़ में उलझा रहता है, जिस कारण वह न तो अपने जीवन को नियमित रूप से पाता है और न ही जीवन की आचार-संहिता का पालन कर पाता है, जिसके कारण मनुष्य में सदैव नकारात्मक ऊर्जा का संचार होता रहता है तथा व्यक्ति जल्दी-जल्दी रोगग्रस्त हो जाता है या अल्प-आयु में ही उसकी जीवन-लीला समाप्त हो जाती है।
सभी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा से बचने एवं सकारात्मक ऊर्जा के संचार के लिए सामान्य मनुष्य को स्वस्थ जीवन जीने के लिए हमेशा गलत कार्यों से बचते हुए, आयुर्वेद के सिद्धांतों का यथासंभव पालन करना चाहिए। पथ्य-अपथ्य भोजन के प्रति सचेत रहते हुए अपने जीवन में कार्य-व्यस्तता और विश्राम का संतुलन बनाते हुए, व्यायाम आदि का तो ध्यान रखना ही चाहिए, साथ ही कुछ ऐसे कर्म भी करते रहना चाहिए जिससे कि मानसिक शांति बनी रहे।
निष्कर्षतः सकारात्मक ऊर्जा स्वस्थ जीवन का आधार है। इसे कई माध्यमों से पाया जा सकता है। भगवत-साधना इसका सबसे बड़ा स्रोत है। इसकी कमी के कारण ही हमें ऊर्जा का आवाहन वैकल्पिक स्रोतों जैसे रेकी, ज्योतिषीय उपाय या चिकित्सा द्वारा करना पड़ता है।
अनेक रोगों जैसे मधुमेह, ब्लड-प्रेशर, मानसिक रोग, जोड़ों में दर्द, हृदय रोग आदि से तो केवल सकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह से ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। यदि आप किसी मंत्र का जप या भगवत-ध्यान सतत रूप से करते हैं तो ये रोग आपके पास आएंगे ही नहीं और होंगे भी तो शीघ्र ही अवश्य दूर हो जाएंगे।