वास्तु एवं ज्योतिष
वास्तु एवं ज्योतिष

वास्तु एवं ज्योतिष  

जय इंदर मलिक
व्यूस : 12416 | फ़रवरी 2013

प्रश्न: क्या वास्तु का ज्योतिष से संबंध जोड़ा जा सकता है? यदि हां तो कैसे? सोसाइटी के अलग-अलग फ्लोर में समान नक्शा व दिशा होने के बावजूद जीवन स्तर में अंतर के क्या कारण हैं?

वास्तु का ज्योतिष से संबंध जुड़ने का कारण: वास्तुशास्त्र और ज्योतिष शास्त्र में संबंध बहुत गहरा और अटूट है। दोनों एक-दूसरे के पूरक शास्त्र हैं। ज्योतिष, एक वेदांग हैं तो वास्तु उपवेद है। अर्थात् वास्तु, वैदिक ज्योतिष का ही एक मुख्य भाग है। जिस प्रकार, किसी मनुष्य की जन्मकुंडली (जो व्यक्ति की नींव है) के आधार पर उसके बारे में सब कुछ बताया जा सकता है, ठीक उसी प्रकार उसके मकान की संरचना व आंतरिक व्यवस्था (जो वास्तु के अंतर्गत ही आता है) को देखकर उसमें रहने वाले संपूर्ण परिवार के विषय में आंकलन कर सकते हैं।

असल में वास्तु शास्त्र, प्रकृति के साथ-सामंजस्य बैठाकर उसमें व्याप्त ऊर्जा से लाभ उठाने की एक कला है। ज्योतिष शास्त्र, जन्मकुंडली पर आधारित विज्ञान है। कुंडली में लग्न अर्थात् प्रथम भाव को पूर्व दिशा माना गया है, जिसका स्वामी सूर्य ग्रह होता है। सप्तम भाव, पश्चिम दिशा को बताता है, जिसका स्वामी ग्रह शनि होता है।

इसी प्रकार, कुंडली का चतुर्थ एवं दशम भाव क्रमशः उत्तर एव ं दक्षिण दिशा का दशार्त ह, जिनके स्वामी ग्रह क्रमश बुध एवं मंगल होते हैं। इन दिशाओं के स्वामी ग्रहों के अलावा चारां दिशाओं- पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण के देव क्रमशः इंद्र, वरुण, कुबेर व यम (काल) होते हैं।

इन चारों दिशाओं के अलावा भी उपदिशा या विदिशा या कोण ईशान (उत्तर-पूर्व), वायव्य (उत्तर-पश्चिम), र्नैत्य (दक्षिण-पश्चिम) एवं आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) होते हैं, जो जन्मकुंडली के क्रमशः 2 व 3, 5 व 6, 8 व 9 तथा 11 व 12 भाव से जुड़े होते हैं, इनके स्वामी ग्रह व देव क्रमशः गुरु व शिव, चंद्र व पवन (वायु) देव, राहु-केतु व र्नैत्य तथा शुक्र व अग्निदेव होते हैं।

वायव्य (उत्तर-पश्चिम) व आग्नेय (दक्षिण-पूर्व), जो तिर्यक संबंध पर होते हैं, इन्हें क्रमशः वायु कोण व अग्नि कोण भी कहते हैं। कुंडली का कदंर य भाग, जिस आगं न या बह्म्र स्थल कहते हैं, इसके देव ‘ब्रह्मा’ तथा तत्व ‘‘आकाश’ से जुड़ा रहता है।

बाकी चारों तत्व-जल, वायु, पृथ्वी (भूमि) व अग्नि क्रमशः ईशान, वायव्य, र्नैत्य व आग्नेय कोण से जुड़े रहते हैं। वास्तु मनुष्य को सकारात्मक सोच देता है। वास्तु और ज्योतिष ग्रहों की शक्ति और उनके प्रभाव से संचालित होते हैं, नवग्रह, 12 राशियां और 27 पनक्ष्त्रों पर ज्योतिष आधारित है और इन सभी राशियों में पंचतत्व में से किसी न किसी तत्व की प्रधानता रहती है।

ये राशियां भी दिशाओं से संबंधित हैं। जन्मपत्रिका में ग्रहों की स्थिति व्यक्ति को कौन सी दिशा में रहने का संकेत देती है? वास्तु शास्त्र में विभिन्न दिशाओं में ऊंची-नीची भूमि के शुभ-अशुभ फलों का उल्लेख सारणी 1 में बताया गया है। तालिका का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि समान नक्शा व दिशा होने के बावजूद जीवन स्तर में अंतर इसलिये आता है कि चैथा भाव अर्थात भवन के कारक मंगल तथा शनि और अन्य ग्रहों की स्थिति सभी की कुंडली में भिन्न-भिन्न होती है।

यदि व्यक्ति के नामराशि से नगर या मोहल्ले की नामराशि 2, 5, 9, 10 या 11 वीं हो तो शुभ, 1 व 7 हो तो शत्रु 4, 8 या 12 हो तो रोग 3, 6 हो तो रोग कारक समझना चाहिये। नगर शुभ न हो तो जिस मोहल्ले में भवन हो तो वह शुभ होना चाहिये। यदि नगर व मोहल्ला दोनों शुभ हों तो सर्वोत्तम होता है। यदि व्यक्ति के नामराशि से नगर या मोहल्ले की नामराशि 1, 3, 4, 6, 7, 8 या 12वीं हो तो अशुभ होता है जो की सारणी नं. 2 में दर्शाया गया है। यदि किसी के लिये शहर या नगर शुभ न हो तो व्यक्ति नामराशि तथा मोहल्ले की राशि के साथ विचार कर के देख लें।

यदि मोहल्ला शुभ हो तो वहां निवास करना चाहिये। सर्वप्रथम नगर-मोहल्ला और व्यक्ति के नाम का वर्ग, वर्ग का वर्ण, वर्गेश, वर्ग संख्या और वर्ग की दिशा ज्ञात करनी चाहिये। इन पांचों की सारणी इस प्रकार है। सामान्यतः व्यक्ति की वर्ग संख्या को दुगुना करके उसमें नगर की वर्ग संख्या जोड़कर 8 से भाग देने पर जो शेष बचे वह व्यक्ति की काकिणी संख्या होगी।

इस प्रकार नगर के वर्ग संख्या को दुगुना करके व्यक्ति के वर्ग संख्या में जोड़कर 8 से भाग देने पर जो शेष बचे वह नगर की काकिणी संख्या होगी। नगर से व्यक्ति की काकिणी संख्या अधिक हो तो लाभदायक, नगर से व्यक्ति की काकिणी संख्या कम हो तो नगर हानिकारक और यदि नगर व व्यक्ति की काकिणी संख्या सम हो तो नगर स्थान सम (न लाभ, न हानि) रहेगा।

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