प्राणायाम: आरोग्य और बल-वृद्धि का साधन डाॅ. भगवान सहाय श्रीवास्तव प्राणायाम के द्वारा प्राणों को संयमित किया जाता है। जब इसका अभ्यास परिपक्व हो जाता है, तब इसके प्रभाव से अनेक असाध्य रोग साध्य हो जाते हैं।
मन का प्राण में लय होने से जो स्थिरता प्राप्त होती है उससे मनुष्य अनेक आश्चर्यजनक कार्यों को कर सकता है। ‘प्राणो विलीयते यत्र मनस्तत्र क्लिीयते’ (हठ योग) अर्थात् जहां प्राण विलीन होते हैं, वहीं मन भी विलीन होता है।’
इस प्रकार मन और प्राण में भेद का प्रतिपादन न होने से मानसिक शक्ति में भी ऐक्य सिद्ध हुआ, और जहां मन-प्राण दोनों एक हो जायें, तो वहां की शक्ति का क्या ठिकाना? इसी प्राण-शक्ति के बल पर भारतीय योगियों ने बड़े-बड़े कार्य किये थे।
दृष्टिमात्र से सगर के साठ हजार पुत्रों का भस्म हो जाना अथवा अगस्त्य ऋषि द्वारा समूचे समुद्र का पान कर लेना आदि ये सभी कार्य मानसिक शक्ति या प्राण-शक्ति के बल पर ही हुए थे। प्राणायाम से काम-विकार, मनोविकार, त्रिदोषज रोग आदि का उन्मूलन हो सकता है, असीमित रूप से शारीरिक बल प्राप्त कर सकते हैं और लोगों को आकर्षित व सम्मोहित भी कर सकते हैं।
कोई बलवान से बलवान हिंसक पशु भी प्राणायाम साधक का सामना नहीं कर सकता और वह स्वयं जो चाहे, कर सकता है। प्राणायाम की विशिष्ट साधना द्वारा प्रत्येक प्रकार की समस्या, उलझन, विपरीत परिस्थितियांे और निर्बलता के निर्मूलन के लिए सूझ-सुबुद्धि और परमात्म-बल अर्जित करना सहज संभव है।
जिस प्रकार आज का वैज्ञानिक प्रचंड आत्म-साधना यानी पुरूषार्थ द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में प्रकृति को विजित कर रहा है, उसी प्रकार प्राणायाम की विशिष्ट साधना द्वारा अपनी प्रकृति को जीत सकते हैं। परिस्थितियों को अनुकूल बना सकते हैं, उन पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। उन्हें बदल सकते हैं। विषम परिस्थिति में भी खुश रह सकते हैं।
प्राण चिकित्सा की श्रेष्ठता जब प्राण-शक्ति या जीवनी शक्ति ही सभी प्रकार की बीमारियों का प्रमाणित कारण है और उसकी निर्बलता ही आधि-व्याधि की जननी है, तो उसकी सबलता ही रोग-निर्मूलन का एक उपाय है? क्या प्राण-शक्ति को औषधियों द्वारा सबल बना सकते हैं?
रासायनिक दृष्टि से प्राण की व्याख्या करने वाले लोग यदि औषधि को प्राण प्रवर्धक मानते हों तो आश्चर्य नहीं। उनकी दृष्टि स्थूल है। वे प्राण को पारमाणिक संरचना (कम्पाउंड आॅफ एटम्स) मानते हैं। वह परमाणु का भी मूल है। परमाणु तो उसका स्थूल रूप है। प्राण वह चिद्स्पन्दन है जिससे परमाणुओं का उद्भव और संश्लेषण-विश्लेषण होता है।
अतः रसायन या औषधि चिकित्सा तो स्थूल चिकित्सा है। प्राकृतिक चिकित्सा, प्राणायाम और योग चिकित्सा द्वारा ही प्राण को सबल बना सकते हैं। प्राण का विपुल संग्रह करके जीवन को तेजस्वी, ओजस्वी और यशस्वी बनाया जा सकता है। औषधि तो बाहरी उपचार है। प्राणायाम और प्राण ये सजातीय संबंध है।
अतः भावना भारित प्राणायाम ही सजातीय कर्षण-नियम के अनुसार प्राण-प्रवर्धन का सरल, निःशुल्क एवं नैसर्गिक उपाय है। आप भी ज्योतिषरूप शक्ति प्रवाह को थोड़े से अभ्यास से ही सहज ही अपने में प्रवहमान देख सकते हैं। वह हल्के गुलाबी रंग के प्रकाशमय विद्युत स्फुल्लिगों (चिन्गारियों) या किरणों के रूप में शरीर के अंदर और शरीर के आस-पास कुछ दूर तक मनोमुग्धकारी घेरे के रूप में स्पष्ट दिखाई देता है। जो लोग अभ्यासी नहीं हैं, वे भी यदि ध्यान दें, तो उन्हें भी प्राण में (चूल्हे) से निकली हुई हवा, भाप या कांपती हुई ध्वनि तरंग (लहर) की तरह अनुभव होगी।
नाभि के पास स्थित सूर्य चक्र रूपी सूक्ष्म डिब्बी के अंदर, जार में भरी गैस के समान संग्रह कर सकते हैं और अंतरावयवों को इस प्रकार संचेतित रखा जा सकता है कि वे अंतरिक्ष व्यायी महाप्राण के दिव्य प्रवाह से यथापेक्ष (जितना आवश्यक हो) प्राण का स्वाभाविक रूप से लेन-देन करते रहें जिससे बहते हुए जल के समान हमारा प्राण सदैव ताजा, शुद्ध, निर्मल, शीतल और गतिमय बना रहे।
प्रणायाम की विधि-व्यवस्था यह व्यवस्था प्राण के आकर्षण और कुदरती-फितरती-बहाव को स्वाभाविक बनाये रखती है जिससे प्राण का आदान-प्रदान करने वाले आंतरिक अंग स्वस्थ रहते हैं, वे अपना कार्य सुचारू रूप से करते रहते हैं।
अतः प्राणायाम आरोग्य और बल-वृद्धि का साधन तो है ही, रोग-निवारण और स्वास्थ्य-लाभ का भी अचूक उपाय है। इसका प्रभाव स्थायी होता है। वह औषधियों के समान रोग या रोग के कारण को दबाता नहीं हे। प्राणायाम से सभी रोग समूल नष्ट हो जाते हैं।
कुछ प्रयोग, रोग-निवारक उपचार निम्न प्रकार हैं। रोगोपचार व उपाय यदि आपके किसी अंग में दर्द या सूजन हो, हाथ-पांव ठंड से सुन्न हो रहे हों, सिर में असहनीय दर्द हो या आंख, नाक, कान आदि अंग का कोई विशेष रोग हो, तो उसके निवारण के लिए प्राण से पुष्ट रूधिर का उस-उस अवयव की और तीव्र गति से संचरण या प्रेषण बड़ा लाभकारी होता है।
ऐसा करने से रोग निरोधिनी शक्ति प्रबल होती है और रोगबल शनैः शनैः क्षीण होता जाता है। कभी-कभी तो एक दो बार के अभ्यास से ही पूर्ण लाभ हो जाता है। अभ्यास अंग विशेष की ओर रूधिर और प्राण का संचार करने के लिए सीधे बैठ जाइये। यदि बैठना संभव न हो तो पीठ के बल सीधा लेटने में भी कोई हानि नहीं है। अब सबसे पहले पांच से दस बार तक इस प्रकार श्वास निःश्वास करें कि श्वांस निकालने में जितना समय लगे उतना ही समय श्वांस को बाहर और अंदर रोकने में लगाया जाये।
क्रिया 1: मान लें दस बार ऊँ कहते हुए श्वांस ली है, तो उसे तब तक अंदर ही रोके रखिए, जब तक आप पांच बार ऊँ ऊँ न कह लें। तत्पश्चात् दस बार ऊँ कहते हुए सांस छोड़ना चाहिये और पांच बार ऊँ कहने तक दूसरी सांस नहीं लेनी चाहिए। सांस भरने और सांस छोड़ने पर सांस को अंदर या बाहर रोकने की मात्रा, भरने और छोड़ने की मात्रा की आधी होनी चाहिए।
क्रिया 2: जब यह क्रिया पांच दस बार कर चुकें, तब सांस भरते हुए ऐसी भावना करनी चाहिये कि रक्त संचार के साथ ही साथ मेरा सूर्यचक्र स्थित प्राण-प्रवाह रोगपीड़ित स्थान की ओर दौड़ रहा है। सांस को अंदर रोके-रोके फिर भावना द्वारा प्राण को पीड़ित अंग की ओर प्रवाहित होने का मनस चित्र खींचें। ऐसा तब तक करते रहें, जब तक आप सांस को आसानी से रोक सकते हों।
क्रिया 3: तत्पश्चात् धीरे-धीरे श्वांस को बाहर निकालें और इसे विश्वास के साथ भावना करें कि सब दोष, विकार और सूजन या दर्द भाप बनकर उड़े जा रहे हैं। सांस को बाहर ही रोककर पुनः मन ही मन कहें कि प्राण-शक्ति पाकर मेरा वह अंग स्वस्थ और सबल हो गया है। इस क्रिया को पंद्रह मिनट से आधा घंटा तक करना चाहिए।
निष्कर्ष आप इस क्रिया के पश्चात् इस अवधि में प्रत्यक्ष अनुभव करेंगे कि आपकी पीड़ा का परिमाण वेगपूर्वक घट रहा है। इस क्रिया को 6-6 घंटे के अंतर से दिन में तीन बार तक किया जा सकता है। हल्के कष्ट एक दो बार के करने से ही मिट जाते हैं। किंतु जीर्ण रोग की शांति में कुछ दिन या कुछ सप्ताह लग सकते हैं। अतः धैर्यपूर्वक बिना घबराये भाव-भारित हृदय से यह प्राणायाम अवश्य करना चाहिये। अवश्य लाभ होगा।
1. पीड़ा-शमन के इस उपचार के समय दुखित अंग को अपने ही हाथों का मृदु स्पर्श देकर प्राण-विद्युत के प्रवाह को द्रुत करने में बड़ी मदद मिलती है। भावना सबल होती है क्योंकि स्पर्श से रक्त और प्राण उस ओर दौड़ते हुए प्रत्यक्ष देखे जाते हैं।
2. यह ध्यान रहे यदि सिर में या ऊध्र्वागों में पीड़ा हो तो प्राण संचार को नीचे की ओर ही प्रेरित किया जाये क्योंकि ऊध्र्वांगों में रक्त दबाव बढ़ने से ही प्राण-पीड़ा होती है। ऐसी दशा में यदि रक्त के बहाव का ध्यान मस्तिष्क की ओर करेंगे तो रक्त दबाव बढ़ जायेगा। ऐसे में लाभ के बजाय हानि की संभावना है।
3. पीड़ित प्रदेश पर अंगुलियों को मोड़कर मन ही मन आत्मा द्वारा कहें ‘निकल जाओ’ ‘विकार भाग’ ‘तनाव भाग’ ‘दर्द -भाग’ ऐसा कहते हुए मार्जन भी किया जा सकता है। यह क्रिया उसी ढंग से करनी चाहिये जिस प्रकार तमाशा दिखाने वाले किसी माध्यम को बेहोश (सम्मोहित) करने के लिए करते हैं।
4. यह भी सत्य सिद्ध है कि अंगुलियों के सिरों से चुंबकीय किरणें (जिन्हें अध्यात्म शास्त्र में प्राण कहते हैं) बराबर निकलती हैं। अतः मार्जन के द्वारा विद्युत-प्रवाह विकृत अंग पर डालने से प्राकृतिक रोगनिवारिणी शक्ति को बल मिलता है और रोग के शमन कार्य में तेजी आती है। प्राणायाम के प्रयोग से विविध रोगों को नष्ट किया जा सकता है।
धीरे-धीरे प्रयत्न करना चाहिये कि आपकी सांस कहां रूके, और वह श्वांसरोपण लगभग 6 मिनट से आठ मिनट तक हो। जब आप छः या इससे ज्यादा मिनट तक श्वांस स्थापित करने में सफल हो जाएं तो श्वांस स्खलित नहीं होगा। तभी आपको आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिये।