तिथिर्वारश्च नक्षत्र योगः करण मेव च। एतेषां यत्र विज्ञानं पंचांग तन्निगद्यते।। तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण की जानकारी जिसमें मिलती हो, उसी का नाम पंचंाग है। पंचांग अपने प्रमुख पांच अंगों के अतिरिक्त हमारा और भी अनेक बातों से परिचय कराता है। जैसे ग्रहों का उदयास्त, उनकी गोचर स्थिति, उनका वक्री और मार्गी होना आदि। पंचांग देश में होने वाले व्रतोत्सवों, मेलों, दशहरा आदि का ज्ञान कराता है। इसलिए पंचांग का निर्माण सार्वभौम दृष्टिकोण के आधार पर किया जाता है।
काल के शुभाशुभत्व का यथार्थ ज्ञान भी पंचांग से ही होता है। साथ ही इसमें मौसम के साथ-साथ बाजार में तेजी तथा मंदी की स्थिति का उल्लेख भी रहता है। ज्योतिषगणित के आधार पर निर्मित प्रतिष्ठित पंचांगों में संभावित ग्रहणों तथा विभिन्न योगों का विवरण रहता है। एक अच्छे पंचांग में विवाह मुहूर्त, यज्ञोपवीत, कर्णवेध, गृहारंभ, देवप्रतिष्ठा, व्यापार, वाहन क्रय, लेने-देन तथा अन्यान्य मुहूर्त और समय शुद्धि, आकाशीय परिषद में ग्रहों के चुनाव आदि का उल्लेख भी होता है।
पंचांग का सर्वप्रथम निर्माण कब और कहां हुआ यह कहना कठिन है। लेकिन कहा जाता है कि इसका निर्माण सर्वप्रथम भगवान ब्रह्मा ने किया- सिद्धांत सहिता होरारूप स्कन्धत्रयात्मकम्। वेदस्य निर्मल चक्षु योतिश्शास्त्रमकल्मषम।। विनैतदाखिलं श्रौतं स्मार्तं कर्म न सिद्धयति। तस्माज्जगद्वितायेदं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा।। सतयुग के अंत में सूर्य सिद्धांत की रचना भगवान सूर्य के आदेशानुसार हुई थी, जिसमें कालगणना का बहुत ही सुंदर और सटीक वर्णन मिलता है।
काल की व्याख्या करते हुए सूर्यांशपुरुष ने कहा है- लोकानामंतकृत्काल कालोऽन्य कलनात्मकः। स द्विधा स्थूलसूक्ष्मत्वान्मूत्र्तश्चामूर्त उच्यते।। एक काल लोकों का अंतकारी अर्थात् अनादि है और दूसरा काल कलनात्मक ज्ञान (गणना) करने योग्य है। खंड काल भी स्थूल और सूक्ष्म के भेद से मूर्त और अमूर्त रूप में दो प्रकार का होता है। त्रुट्यादि की अमूर्त संज्ञा गणना में नहीं आती। प्राणादि मूर्तकाल को सभी गणना में लेते हैं।
6 प्राण का एक पल, 60 पलों की एक घटी और 60 घटियों का एक अहोरात्र होता है। एक दिन को प्राकृतिक इकाई माना गया। ग्रह गणनार्थ प्राकृतिक इकाई को अहर्गण के नाम से जाना जाता है। सूर्य सिद्धांत, परासर सिद्धांत, आर्य सिद्धांत, ब्रह्म सिद्धांत, ब्रह्मगुप्त सिद्धांत, सौर पक्ष सिद्धांत, ग्रह लाघव, मकरंदगणित आदि के रचनाकारों के अपने-अपने अहर्गण हैं। शाके 1800 में केतकरजी ने भारतीय तथा विदेशी ग्रह गणना का तुलनात्मक अध्ययन कर एक नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसे सूक्ष्म दृश्य गणित के नाम से जाना जाता है।
सभी सिद्धांत ग्रंथों में अपने-अपने ढंग से ग्रह गणना करने की विधियां लिखी हैं। किंतु इनमें परस्पर मतभेद है। शास्त्रसम्मत शुद्ध पंचांग गणना का मुख्य आधार ग्रह गणना ही है। वर्तमान समय में अधिकांश पंचांग सूक्ष्म दृश्य गणित के आधार पर बनाए जाते हैं। तिथि स्पष्ट करने की विधि अर्कोन चंद्र लिप्ताभ्यास्तयेया भोग भाजिताः। गतागम्याश्च षष्टिघ्रा नाडियौ भुक्तयंतरोद्धताः।। जिस दिन तिथि स्पष्ट करनी हो, उस दिन स्पष्टार्कोदय स्पष्ट चंद्र में से स्पष्ट सूर्य को घटा दें। शेष को राश्यादि के कला बनाकर 720 से भाग दें, शेष बची संख्या के अनुसार गत तिथि होगी। शेष को गत माना है, जिसे 720 में से घटाने पर गम्य होता है।
गम्य को 60 से गुणा करें। गुणनफल को सूर्य और चंद्र की गतियों के अंतर से भाग देने पर वर्तमान तिथि का घटी-पल सुनिश्चित हो जाता है। घटी-पल को घंटा-मिनट में परिवर्तित करने के लिए संस्कार करने पड़ते हैं। नक्षत्र स्पष्ट करने की विधि भगोगोऽष्टशती लिप्ताः खाश्विशैलास्तथा तिथौः। ग्रहलिप्ता भभोगाप्ता भानि भुकत्या दिनादिकम्।। नक्षत्र भोग 800 कला मान्य है। जिस दिन नक्षत्र स्पष्ट करना हो, उस दिन स्पष्ट चंद्र की सर्वकालाओं में 800 का भाग दें, भागफल गत नक्षत्र होगा। शेष गत कहा जाता है।
उस गत को 800 में से घटाने पर गम्य कहलाता है। गम्य को 60 से गुणाकर चंद्र की गति से भाग करने पर घटी-पल सुनिश्चित हो जाते हैं। योग स्पष्ट करने की विधि रविन्दु योगलिप्ताभ्यो योगा भगोग भाजिताः। गता गम्याश्च षष्टघ्रा भुक्तियोगाप्त नाडिकाः।। जिस दिन योग जानना हो, उस दिन स्पष्ट सूर्य और चंद्र की कुल कलाओं में 800 का भाग दें, लब्धांक गत योग होगा। शेष गत कहा जाता है, जिसे 800 में से घटाने पर गम्य हो जाता है। गम्य को 60 से गुणाकर सूर्य और चंद्र गति योग से भाग करने पर घटी-पल निश्चित हो जाते हैं।
करण स्पष्ट करने की विधि तिथि के आधे मान को करण कहते हैं। करण ग्यारह होते हैं- बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि, शकुनि, चतुष्पद, नाग और किंस्तुघ्न। विष्टि करण का ही नाम भद्रा होता है। चंद्र और सौर मास चांद्र मास 30 तिथियों का होता है, जिसकी गणना अमांत काल से की जाती है। सौर मास मेषादि संक्रांतियों में सूर्य भ्रमण के अनुरूप सुनिश्चित किए जाते हैं।
नवधा काल मान ब्राह्नं दैवं मनोर्मान पैत्रयं सौरंच सावनम्। नाक्षत्रंच तथा चाद्रं जैवं मानानि वै नव।। ब्राह्न, देव, मानव, पैत्र्य, सौर, सावन, नक्षत्र, चंद्र और बार्हस्पत्य ये 9 प्रकार के मान होते हैं। लोक व्यवहारार्थ मान पंचभिव्र्यवहारः स्यात् सौरचान्द्राक्र्ष सावनैः। बार्हस्पत्येन मत्र्यानां नान्य मानेन सर्वदा।। लोक व्यवहार में केवल सौर, चंद्र, नाक्षत्र, सावन और बार्हस्पत्य ये पांच मान ही मान्य हैं।
प्रभवाद्यब्द मानेतु बार्हस्पत्यं प्रकीर्तितम्। एतच्छुर्द्धि विलौक्यैव बुधः कर्म समारभेत्।। यज्ञ और विवाहादि में सौर मान, सूतकादि में अहोरात्र, गणनार्थ सावन, घटी-पल आदि काल ज्ञानार्थ नक्षत्र, पितृकर्म में चंद्र (तिथि और प्रभावादि संवत्सर गणनार्थ बार्हस्पत्य मान प्रयोग में लाया जाता है। उत्कृष्ट पंचांगों में ऊपर वर्णित सभी विषयों का शोधोपरांत समावेश किया जाता है। अतः शुभ फलों की प्राप्ति और अशुभ फलों से बचाव के लिए ऐसे ही पंचांगों का उपयोग करना चाहिए।