प्राण को जीवनी शक्ति और प्राणायाम को देह स्थित जीवनी शक्तियों का नियमन कहना अधिक उपयुक्त होगा। क्रुद्ध होने पर हमारी श्वास चंचल हो उठती है, क्योंकि प्राणशक्ति विचलित हो जाती है।
इसके विपरीत जब हम शांत होते हैं, तो हमारी श्वास-प्रश्वास की क्रिया भी सम होती है। अतः सांस के विधिपूर्वक नियमन का अभ्यास आवश्यक है, जिससे हमारे भीतर का प्राण् ातत्व शांत और तनावशून्य हो जाए। यह स् व ा भ् ा ा िव क ह ै िक निष्ठापूर्वक लबं ेसमय तक ध्यानाभ्यास करने वाले लोग अपनी प्रगति की समीक्षा करना चाहेंगे।
आत्म विश्लेषण करने पर बहुत लागे ा ंे का े यह लगता है कि बहुत वर्षांे तक अभ्यास करन े पर भी व े लक्ष्य की ओर अधिक नहीं बढ़ पाए हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि वे निराश हो जाते हैं।
वे पूछते हैं, ‘मैंने अधिक प्रगति क्यों नहीं की? क्या मैं सही मार्ग का अनुसरण कर रहा था?’ वस्तुस्थिति का निष्पक्ष विश्लेषण न कर पाने के कारण कुछ लोग यह कह कर कि ‘मैं ध्यान का अधिकारी नहीं हूं, वह मेरे लिए नहीं है’, आध्यात्मिक साध् ाना का त्याग कर देते हैं।
यह कोई असाधारण परिस्थिति नहीं है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं से पूछना चाहिए, ‘मैंने गलती कहां की?’ हमारे आध्यात्मिक जीवन की प्रारंभिक तैयारी में कुछ बारीक गलतियां हो सकती हैं। हो सकता है कि कोई दीर्घकालीन गहरी आदत या प्रवृत्ति, जिसे हम सोचते हों कि हमने पूरी तरह जीत लिया है, अभी भी विद्यमान हो।
बद्धमूल प्रवृत्तियों को दूर करना कठिन होता है। वे झाड़-झंखाड़ की तरह होती हैं। अगर बगीचे की कुछ दिनों तक देखभाल न करें, तो वे अपने आप उग आते हैं। उन्हें उगाना नहीं पड़ता। लेकिन हमें निराश नहीं होना चाहिए। हमें शांतिपूर्वक विषय पर विचार करना चाहिए और जहां कहीं भी प्रमाद उपस्थित हो, उसे दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए।
आध्यात्मिक साधना भी एक प्राणहीन ढर्रे में परिण् ात हो सकती है। ‘मैंने कुछ प्रगति की है और अब मैं पूर्ण सुरक्षित हूं। मैंने महापुरुषों के भवन में प्रवेश कर लिया है और अब विश्राम कर सकता हूं’ यह सोचना बहुत आसान है। सावध् ाान! शैतान इसी क्षण की प्रतीक्षा में रहता है। वे सारे गहरे संस्कार अभी भी विद्यमान हैं।
उनकी उपस्थ्ािित के प्रति सजग होकर सावधानीपूर्वक आचरण करना चाहिए। एक बार परिस्थिति को हृदयंगम करके समस्याओं को दूर करने के प्रयास के लिए हमें तत्पर हो जाना चाहिए। हम जैसे सामान्य श्रेणी के अधिकांश साधकों के लिए बाधाएं वस्तुतः बहुत बड़ी नहीं हैं।
लेकिन महापुरुषों की बाधाएं कहीं अधिक बड़ी होती हैं। ईसा मसीह को दिया गया शैतान का प्रलोभन तथा बुद्ध के समक्ष उपस्थित होने वाला प्रलोभन दोनों सचमुच बहुत विराट थे। हमारे लिए ऐसे बड़े प्रलोभनों की आवश्यकता नहीं है। छोटे-मोटे प्रलोभन ही हमें पथभ्रष्ट करने के लिए पर्याप्त हंै।
बाधाएं भले ही बड़ी न हों पर उन्हें पहचानना तथा उनका सामना करने की विधि जानना हमारे लिए आवश्यक है। इन समस्याओं के समाधान क े सबस े सक्षम उपाया ंे म ंे से एक अपने इष्ट के प्रति समर्पण तथा उनसे सहायता की याचना करना है।
साधना में लगे लोग सामान्यतः श्रद्ध ालु होते हैं, अतः उनके लिए भगवान को पकड़े रहना तथा उन पर निर्भर रहना बहुत सहायक होता है। और एक बार भगवान की शरण लेने के बाद हमें अपनी साधना तथा कर्तव्यों का पालन यथासाध्य करते जाना चाहिए।
सारांश यह कि हमें भगवत्-स्मरण, ध्यान और भगवन्नाम के जप के नियम का यथावत पालन करते रहना चाहिए। ऐसा करने पर हम सभी बाध् ााओं को पार कर सकते हैं तथा अपने अंतरतम से ही आवश्यक मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं।
अतः यदि हम किसी साधना-पद्ध ति का अनुसरण कर रहे हों तो हमें अपने प्रति ईमानदार होना चाहिए तथा मन ही मन अपनी दुर्बलताओं और अपने सबल पक्षों का अंकन करना चाहिए। वस्तुतः केवल अपने सबल पक्षों का अंकन और दुर्बलताओं की उपेक्षा करने के प्रलोभन से बचना भी आवश्यक है। पर सत्य तो यह है कि कुछ दुर्बलताएं भी हैं।
वहीं यह भी सत्य है कि एक सांकल उतनी ही मजबूत होती है, जितनी उसकी दुर्बलतम कड़ी। अतः यदि हममें कोई बुरी आदत हो, तो हमें उसकी जानकारी होनी चाहिए तथा उसे दूर करने का उपाय करना चाहिए। हममें से कई लोग आध्यात्मिक प्रगति में बाधक अपनी दुर्बलताओं को पहचान नहीं पाते।
भारतीय साधक परंपरा में आंतरिक शत्रुओं का उल्लेख है। इनमें काम, क्रोध, लोभ, अहंकार और ईष्र्या मुख्य हैं। ये सब बाहर नहीं हैं; हमारे अंदर ही हैं। हमें प्रमाद पर भी नजर रखना चाहिए क्योंकि अपनी दुर्बलता के लिए सफाई देना बड़ा आसान है। इसके बाद है संशय।
जब किसी वस्तु की प्राप्ति कठिन होती है, तो हम उसकी प्राप्ति की संभावना में शंका करने लगते हैं। कभी-कभी हममें उत्साह का अभाव हो जाता है। उत्साह एक अतिरिक्त हाथ के समान है। अतः जब उत्साह की कमी होती है तब छोटे-मोटे काम भी कठिन लगने लगते हैं। इंद्रिय विषयों के प्रति आसक्ति भी अतिसूक्ष्म बाधा है।
हममें से अधिकांश लोग इन्हें महत्व नहीं देते और अपने आपसे यही कहते हैं कि ये आदतें हानिकारक नहीं हैं। इन्हें मामूली और निरापद आदतें मानते हैं। लेकिन बहुत सी तथाकथित निरापद आदतें मिलकर काफी हानि पहुंचा सकती हैं।
ध्यान की साधना में प्राणायाम बहुत महत्वपूर्ण है। यदि हम एक स्थिर और सुखकर आसन में बैठ न सकें और श्वास-प्रश्वास को नियमित न बना सकें, तो हमें तनावशून्यता का अनुभव नहीं होगा और यह एक निश्चित बाधा बन जाएगी।
कई पुस्तकों में प्राणायाम का अनुवाद श्वास-प्रश्वास किया गया है। यह ठीक नहीं है, क्योंकि श्वास- प्रश्वास देह में प्राण की विद्यमानता का द्योतक मात्र है। प्राण को जीवनी शक्ति और प्राण् ाायाम को देह स्थित जीवनी शक्तियों का नियमन कहना अधिक उपयुक्त होगा।
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