2 दिसंबर 2014 इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व मोहित हुए अर्जुन को श्रीमद्भगवद् गीता का उपदेश दिया था। अतः अर्जुन का मोह भंग होने के कारण भी इसे मोक्षदा एकादशी कहते हैं। इसे मौनी एकादशी भी कहते हैं। गीता जयंती भी इसी दिन मनायी जाती है। सत्यव्रती,जितेंद्रिय, पुण्यात्मा, धर्मात्मा, देवात्मा धर्मराज युधिष्ठिर ने अकारण करुणालय, विराट्विराटेश्वर, पूर्ण ब्रह्म, जगत्नियंता, आत्माभिराम, सच्चिदानंद स्वरूप, माता यशोदा के लाड़ले भगवान श्री कृष्ण से सानंद श्री चरणों में मस्तक झुका कर धर्मयुक्त प्रश्न किया कि हे भगवन्! आप प्राणी मात्र को सुख देने वाले हैं और जगत के पति हैं। कृपा कर मेरे मन-मस्तिष्क में व्याप्त संशय को दूर कीजिए। मार्गशीर्ष (अगहन) मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम क्या है? उस दिन कौन से देवता की पूजा की जाती है और उसकी विधि क्या है? धर्मराज युधिष्ठिर के लोक कल्याणकारी प्रश्न को सुन कर, मंद-मंद मुस्कुराते हुए, भगवान श्री कृष्ण बोले: हे राजन्! आपने अति उत्तम प्रश्न किया है। आप एकाग्र चित्त हो कर सुनिए। मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी मोक्षा तथा मोक्षदा के नाम से प्रसिद्ध है।
इस दिन श्री दामोदर भगवान की पूजा, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से, भक्तिपूर्वक करनी चाहिए। ईश्वर श्रद्धा और भाव के भूखे हैं। कहा भी है: भाव का भूखा हूं, भाव ही बस सार है। भाव से जो भजै, उसका बेड़ा पार है।। दशमी को एक समय भोजन करें। एकादशी को उपवास कर पुनः द्वादशी को प्रातः काल दामोदर भगवान् (विश्व रूपधारी भगवान अनंत) की, संपूर्ण उपचारों से, पूजा करें। फिर ब्राह्मणों को भोजन करावें और दक्षिणा दे कर विदा करने के पश्चात स्वयं भाई-बंधुओं के साथ भोजन करें। इस प्रकार व्रत कर के मनुष्य, इह लोक में मनोवांछित भोगों को भोग कर, पहले और पीछे की दस-दस पीढ़ियों का उद्धार कर के, भगवान श्री हरि के धाम में जाता है। मोक्षदा एकादशी के दिन मिथ्या भाषण, चुगली तथा परस्त्री गमन आदि नहीं करना चाहिए। एक एकादशी व्रत के प्रभाव से माता-पिता, पुत्रादि को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस संबंध में पुराणों की एक कथा है: प्राचीन गोकुल नगर में वैरवानस नाम का एक राजा राज्य करता था। वह राजा अपनी प्रजा का पुत्रवत् पालन करता था। उसके राज्य में चारों वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण रहते थे। रात्रि को एक दिन राजा ने स्वप्न में अपने पिता को नर्क में पड़े देखा। इस स्वप्न को देख कर राजा बड़े व्याकुल और उद्विग्न हो गये।
प्रातः काल होते ही राजा दरबार में ब्राह्मणों के समक्ष रात्रि के स्वप्न का वृत्तांत सुनाने लगे कि हे ब्राह्मणों ! मैंने अपने पिता को नर्क में पड़ा देखा। उन्होंने मुझसे कहा कि हे पुत्र! अब मैं नर्क भोग रहा हूं। मेरी यहां से मुक्ति करो। अब मैं क्या करूं? कहां जाऊं? इस दुःख के कारण मेरा शरीर तप रहा है। आप लोग मुझे ऐसे तप, दान, व्रत आदि बतावें, जिनसे पिता की मुक्ति हो। उस पुत्र का जीवन व्यर्थ है, जो पिता का उद्धार न करे। राजा के करुणापूर्ण वचनों को सुन कर ब्राह्मण बोले: हे राजन् ! यहां से थोड़ी दूर पर भूत, वर्तमान एवं भविष्य के ज्ञाता, पर्वत नाम के एक ़ऋषि का आश्रम है। आप यह सब बातें उनसे जा कर पूछ लीजिए। वह आपके प्रश्नों का उत्तर भली भांति दे सकते हैं। यह सुन कर राजा पर्वत मुनि के आश्रम पर गया। उस आश्रम में अनेक शांत चित्त योगी एवं मुनि तपस्या कर रहे थे। यज्ञ धूम्र से वातावरण सुवासित हो रहा था। उसी जगह चारों वेदों के ज्ञाता त्रिकालज्ञ, साक्षात् ब्रह्मा के समान, पर्वत मुनि विराजमान थे। राजा ने वहां जा कर उनको साष्टांग प्रणाम किया। पर्वत मुनि ने राजा से सांगोपांग कुशल-क्षेम पूछी। राजा ने कहा कि भगवन! आपकी कृपा से मेरा राज्य पूरी तरह कुशल है, परंतु अकस्मात एक संकट आ गया है, जिससे मेरे चित्त में अशांति छा गयी है।
ऐसा सुन कर पर्वत मुनि ने एक क्षण के लिए आंखें बंद की और भविष्य को विचारने लगे। फिर बोले: राजन्! मैंने अपने योग बल से तुम्हारे पिता के सब कुकर्मों को जान लिया है। उन्होंने पूर्व जन्म में, कामांध हो कर, सौत के कहने पर, पत्नी को ऋतुदान मांगने पर भी नहीं दिया। उसी पाप के फल से तुम्हारे पिता को नरक भोगना पड़ा है। तब राजा बोला कि महात्मन् ! मेरे पिता के उद्धार के निमित्त कोई उपाय बताइए। पर्वत मुनि बोले कि हे राजन् ! आप मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को उपवास कर के उसके पुण्य को अपने पिता के निमित्त संकल्प कर दें। उस एकादशी के पुण्य के प्रभाव से अवश्य ही आपके पिता की मुक्ति होगी। मुनि के वचनों को सुन कर राजा अपने महल में आया और कुटुंब सहित मोक्षदा एकादशी का व्रत किया। फिर उस उपवास के पुण्य को राजा ने अपने पिता को अर्पण कर दिया। उस पुण्य के प्रभाव से राजा के पिता को मुक्ति मिल गयी और स्वर्ग में जाते हुए अपने पुत्र से कहने लगा कि हे पुत्र! तेरा कल्याण हो। यह कह कर वह स्वर्ग को चले गये। इस एकादशी का व्रत करने वाले के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और अंत में उसको स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है। इस व्रत से बढ़ कर मोक्ष देने वाला कोई व्रत नहीं है।
इस कथा को पढ़ने तथा सुनने से बाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है। यह व्रत मोक्ष देने वाला तथा चिंतामणि के समान सभी चिंताएं दूर करने वाला है। इस दिन श्री कृष्ण भगवान और श्रीमद्भगवद् गीता का पूजन एवं पाठ संपूर्ण मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारण कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही होता है। द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है। एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं उन्हे ्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चैथाई अवधि है। व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्याह्न के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए।
कुछ कारणों की वजह से अगर कोई प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं है तो उसे मध्याह्न के बाद पारण करना चाहिए। कभी कभी एकादशी व्रत लगातार दो दिनों के लिए हो जाता है। जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब स्मार्त-परिवारजनों को पहले दिन एकादशी व्रत करना चाहिए। दूसरे दिन वाली एकादशी को दूजी एकादशी कहते हैं। संन्यासियों, विधवाओं और मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक श्रद्धालुओं को दूजी एकादशी के दिन व्रत करना चाहिए। जब-जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब-तब दूजी एकादशी और वैष्णव एकादशी एक ही दिन होती हैं।भगवान विष्णु का प्यार और स्नेह के इच्छुक परम भक्तों को दोनों दिन एकादशी व्रत करने की सलाह दी जाती है।