उद्योग के प्रारम्भ और उसके फलने-फूलने को लेकर देखा जाए तो मूलतः तीन बातें सामने आती हैं- धन, जोखिम और श्रम अर्थात् व्यक्ति के पास उचित धनराशि हो, उसके पास काम करने का जोश और जोखिम उठाने का धैर्य हो और सबसे ऊपर श्रम करने के लिए मानव शक्ति हो। परन्तु तदनन्तर उद्योग के सफल अथवा असफल होने के पीछे तीन नहीं बल्कि अनेक कारण हो सकते हैं।
व्यक्ति का सबसे पहले अपना भाग्य अहम भूमिका निभाता है। फिर उद्योग में संलग्न अन्य लोगों का भाग्य, बाजार का उतार-चढाव, मौसम, बिजली-पानी, कर भार, लेनदारी और देनदारी, कोई आकस्मिक आपदा अथवा दुर्घटना आदि...
उद्योग के असफल होने के पीछे उसका वास्तु दोष भी एक अहम भूमिका निभाता है। वास्तु नियमों के अनुकूल निर्माण नहीं हुआ है तो बड़े-बड़े अनेक उद्योग तक बंद होते देखे गए हैं। परन्तु अनेक ऐसे लोग भी हैं जो वास्तु शास्त्र के प्रति पूर्णतया अविश्वास रखते हैं। उनका मानना है कि वास्तु शास्त्र और कुछ नहीं बल्कि एक भ्रम है और यह सब अमीरों के चोचले हैं।
इस शास्त्र के पीछे जो कुछ भी मान्यताएं हों परन्तु अन्ततः यह तो न मानने वाला भी उद्योग में असफल होने के बाद एक बार अवश्य मानने लगता है कि इस शास्त्र के पीछे कुछ न कुछ सार है अवश्य।
जो कुछ भी है, यह सब एक अलग विषय है तथापि आइए देखते हैं कि वास्तु के अनुसार क्या नियम हो सकते हैं जो उद्योग-धंधों को सफलता अथवा असफलता देते हैं। यदि इन निमयों का पालन करते हैं तो अपने-अपने भाग्य और कर्मानुसार पूर्ण नहीं तो कुछ न कुछ प्रतिशत अन्तर अवश्य दिखाई देगा।
- उद्योग परिसर पूर्णतया वर्गाकार अथवा आयताकार होना चाहिए। आकार में 1ः2 का अनुपात एक अच्छा विकल्प हो सकता है। परिसर का उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम कोना पूर्णतया 90 अंश का होना चाहिए।
- भवन का मुख्य द्वार पूरब अथवा उत्तर दिशा में हो। पश्चिम दिशा में भी मुख्य द्वार हो सकता है परन्तु दक्षिण-पश्चिम में यह सर्वाधिक निकृष्ट सिद्ध होता है।
- भूतल से ऊपर वाले फ्लोर पर पानी की व्यवस्था पश्चिम अथवा उत्तर-पश्चिम दिशा में हो।
- भूतल के नीचे पानी की व्यवस्था परिसर के पूरब, उत्तर अथवा उत्तर-पूरब दिशा में होना चाहिए। बाग-बागीचे आदि भी इसी दिशा में शुभ फल देते हैं।
- भूलभूत सिद्धान्त के अनुसार पानी का निकास उत्तर-पश्चिम दिशा में हो। ऐसी व्यवस्था हो कि परिसर इस दिशा में स्वतः ही नीचा हो अथवा नीचा बना लिया जाए ताकि उसका ढलान उत्तर-पूरब दिशा में रहे तो यह बहुत ही उत्तम और भाग्यशाली सिद्ध होता है।
- भवन परिसर का उत्तरी-पूर्वी भाग जितना अधिक खुला हुआ होगा, उतना ही अधिक वह शुभ फलदायक सिद्ध होगा। वाहन आदि की पार्किंग व्यवस्था के लिए भी यह स्थान उत्तम है।
- परिसर के दक्षिण और पश्चिम दिशा की दीवारें अन्य दिशाओं की दीवारों से ऊँची और भारी होनी चाहिए।
- पूरब, उत्तर और उत्तर-पूरब दिशाओं में तार आदि से भी सीमा निर्धारित की जा सकती है।
- भवन के पश्चिमी भाग में प्रयोगशाला, कार्यालय बनाने शुभ होते हैं।
- 2 से 3 फीट अथवा अधिक छोड़कर दक्षिण-पूरब दिशा में जेनरेटर, ट्रांसफाॅर्मर आदि उपकरणों के लिए कमरा बनवाया जा सकता है। चैकीदार, सेवादार आदि के कमरे भी परिसर के इसी भाग में शुभ होते हैं। परन्तु उनकी दीवारें इन कमरों से छूते हुए नहीं होनी चाहिए। इसी दिशा में बिजली, अग्नि आदि से सम्बन्धित अन्य उपकरण लगाने भी शुभ सिद्ध होते हैं।
- दक्षिण-पश्चिम दिशा में कबाड़, भारी सामग्री अथवा उपयोग में न आने वाला अन्य सामान भी एकत्रित किया जा सकता है।
- सेवादारों अथवा अन्य कर्मचारी, मजदूरों आदि के लिए रहने की व्यवस्था उत्तर-पश्चिम दिशा में रखना शुभ होता है।
- उद्योग के लिए उपयोग की जा रही मशीन, प्लांट आदि भवन के दक्षिण-पश्चिम भाग में शुभ रहती हैं।
- सामान्य से नियम के अन्तर्गत प्रयोग होने वाले उपकरण, मशीन आदि जो अत्यधिक भारी हैं दक्षिण दिशा में तथा हल्की मशीनें आदि उत्तर दिशा में लगवाना शुभता देते हैं।
- बिक्री की निकासी के लिए तैयार माल उत्तर-पश्चिम दिशा में ऐसे रखना अथवा जमा करना शुभ है जहाँ से उसकी निकासी उत्तर दिशा से हो सके। वास्तु शास्त्र के ये बहुत ही सामान्य से नियम हैं। पूर्णतया वास्तु शास्त्र के अनुरूप निर्माण और अन्य संबंधित गतिविधियाँ तब ही सम्भव हो पाती हैं जब परिसर, भवन आदि की विशुद्ध स्थिति ज्ञात हो और स्थान, स्थान विशेष के सापेक्ष आनुपातिक गणनाओं के आधार पर ठीक-ठीक वास्तु के अनुरूप तालमेल बिठा लिया जाए।
यह कार्य इतना सरल नहीं है जितना कि बना दिया गया है। वास्तुशास्त्री को ज्योतिष, भूगोल, स्थान, वातावरण और सबसे ऊपर व्यक्ति-व्यक्ति की मानसिकता का पूर्णतया ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है तब ही वास्तुजनित दोषों का निराकरण सम्भव हो सकता है नहीं तो अज्ञानता के कारण वास्तु नियमों का पूरा-पूरा लाभ पाना असम्भव है। परिणामस्वरूप उद्योग धन्धे बंद हो ही रहे हैं और होते रहेंगे।
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