एक सही तिथिपत्रक का गणितीय आधार
एक सही तिथिपत्रक का गणितीय आधार

एक सही तिथिपत्रक का गणितीय आधार  

दार्शनेय लोकेश
व्यूस : 5297 | अप्रैल 2010

हिंदू संस्कृति में पंचांग का अपना विशेष महत्व है। जीवन के विभिन्न संस्कारों, यात्राओं, किसी कार्य के आरंभ आदि में पंचांग की सहायता ली जाती है। उद्देश्य केवल एक होता है - व्यक्ति और समाज के जीवन को सुखमय बनाना। अयन, विषुव, ऋतु, सौर एवं चंद्र, पक्ष, तिथि (सूर्य एवं चंद्र उदयास्त सहित), दिनमान, रात्रिमान और नक्षत्र पंचांग के मुख्य अंग हैं। इन सारे तथ्यों का विश्लेषण गणित के आधार पर किया जाता है। सौर मास से संक्रांतियां, षष्ठि, संवत्सर और वारों के आकलन को भी इस व्यवस्था से जोड़कर तिथिपत्रकों के क्षेत्र को और अधिक विस्तृत कर दिया गया।

वैदिक व्यवस्था में इनका कोई संदर्भ नहीं है। कालगणना में परिशुद्धता के लिए इन्हें अपनाया गया है। ऋग्वेद में ‘उक्षा दाधार पृथ्वीमुतद्याम’ कहा गया है। अर्थात सूर्य पृथ्वी को धारण किए हुए है। यह यथार्थ भी है। सूर्य के आकर्षण से निर्धारित एक नियत मार्ग में पृथ्वी सतत विचरण करती है। पृथ्वी पर से सूर्य जिस मार्ग पर चलता हुआ प्रतीत होता है, उसे जयोतिष की पारिभाषिक शब्दावली में क्रांतिवृŸा कहते हैं। इस क्रांतिवृत्त मार्ग के इधर-उधर 9 अंश से बने विस्तार को भचक्र कहते हैं। पृथ्वी की नियत गति के अनुसार अयन, विषुव, ऋतु एवं दिन-रात होते हैं।

संक्रांतियों के निर्धारण और पंचांग, जिसे तिथिपत्रक और पत्रा भी कहते हैं, की परिशुद्धता में अयन और विषुव तिथियों की भूमिका अहम होती है। जिस प्रकार पृथ्वी के सापेक्ष सूर्य क्रांतिवृŸा में रहता है उसी प्रकार पृथ्वी के सापेक्ष चंद्र अपने मंडल में भ्रमण करता है। चंद्र अधिक गतिमान है और वह जब सूर्य से 12 अंशों के अंतर पर आता है, तब एक तिथि का निर्माण पूरा करता है। इस प्रकार किसी भी तिथिपत्रक की गणना के मुख्य आधार सूर्य, चंद्र और पृथ्वी ही हैं।

एक चैथा घटक भी है और वह है नक्षत्र। ये नक्षत्र मुख्यतः 28 हैं। किसी आर्ष तिथिपत्रक हेतु ऋतु संबंध व्यवस्था अपनाना अनिवार्य है। पूरी छः ऋतुओं को उŸारायण तथा दक्षिणायन और वसंत तथा शरद संपात के विषुव बिंदुओं से नियंत्रित किया गया है। ये सभी बिंदु सही पंचांग की कसौटी हैं। अयनस्योŸार स्यादौ मकरं याति भास्करः। ततः कुंभं च मीनं च राशे राश्यान्तरं द्विजः।। अर्थात उŸारायण की शुरुआत के साथ भास्कर का मकर में प्रवेश माना जाए। इस तथ्य को गणित के आधार पर भी सिद्ध किया जा सकता है।


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इसी प्रकार शिवमहापुराण के श्लोक ‘तस्माद् दशगुणज्ञेयं रवि संक्रमणेबुधाः। विषुवे तद्दशगुणमयनेतद्दशस्मृतम्।।’ में यही बात स्पष्ट करते हुए भगवान शिव ने विषुव और अयन तिथियों को संक्रांतियों के साथ जोड़ते हुए उपदेश किया है। वराहमिहिर कहा है उद्गयनं मकरादौ ऋतवः शिशिरादयश्च सूर्यवशात्। द्विभवनं काल समान दक्षिण मयनं च कर्कटकात् ।।25।। सार यह है कि उŸारायण घटित होते ही सूर्य की मकर संक्रांति भी होगी। वास्तव में उŸारायण सूर्य की परमक्रांति (दक्षिण) का फलित है

और इस परमक्रांति का फलित है सूर्य का 270 अंश पर पहुंचना। इसी परमक्रांति के कारण उस दिन पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में दिनमान न्यूनतम और रात्रिमान अधिकतम होता है। इसके अतिरिक्त इस दिन सूर्य मकर वृŸा पर होता है अर्थात प्रतिच्छाया के रूप में निर्धारित मकर रेखा के ऊपर खड़े आपकी छाया का लोप होगा। आसमान में परमक्रांति, धरती पर प्रत्यक्ष सर्वाधिक असमान दिनरात और मकर या कर्क संक्रांति के दिन मकर या कर्क रेखा पर छाया लोप, ये तीन बातें मकर या कर्क संक्रांति और उŸारायण या दक्षिणायन की साक्षात पहचान हैं।

ग्रेगोरी कैलेंडर के अनुसार ये तिथियां 21-22 दिसंबर या 21-22 जून बनती हैं और इसी दिन शुरू होते हैं शिशिर ऋतु एवं तपस मास तथा वर्षा ऋतु एवं नभ् मास। चांद्र द्रमास निर्धारण इन संक्रांतियों की अनुवर्ती व्यवस्था है। तात्पर्य यह है कि तपस मास की उक्त संक्रांति घटित हो जाने पर जो शुक्ल पक्ष आएगा वही माघ शुक्ल पक्ष होगा।

इसी प्रकार नभस संक्रांति से श्रवण शुक्ल पक्ष को समझना चाहिए। स्यात्दादि युगं माघ स्तपः शुक्लो दिन। दिनंत्यचः।।6।। (यजुर्वेदांग ज्यो.) यहां यह भी जान लेना चाहिए कि जनवरी में कभी सूर्य का परमक्रांति पर पहुंचना संभव नहीं है, अस्तु वहां तक (जनवरी में किसी भी दिन 1 से 31 तारीख तक) संक्रांति भी असंभव है।

अगर कोई पंचांग या तिथिपत्रक 21-22 दिसंबर से हटकर कभी भी मकर संक्रांति दिखाए ऊपर वर्णित मानकों पर वह असफल कहलाएगा और उसे हम एक ही तिथिपत्रक नहीं कह सकते। आप उस पंचांग में दिनमान और रात्रिमान देखें। अगर लघुतम दिनमान से हटकर मकर संक्रांति दिखाई गई है, तो उस पंचांग के गलत होने में कोई संदेह नहीं। उसी प्रकार उŸार से दक्षिण क्रांति में आते हुए या दक्षिण से उŸार क्रांति में जाते हुए सूर्य पृथ्वी के सापेक्ष दो बार शून्य क्रांति पर आता है।

सूर्य उस दिन विषुवत रेखा पर होगा। इसीसे उस दिन को विषुव, विषुवत या पहाड़ी बोली में बिखोत कहा जाता है। इस दिन सारे भूमंडल में दिन और रात बराबर होते हैं। यही नहीं, इस दिन भूमध्य रेखा पर खड़े व्यक्ति का छायालोप भी होगा। यह इतनी प्रामाणिक तिथि है कि ठीक मध्याह्न में आप अपने स्थान पर किसी भी छड़ी की छाया से अपने स्थान का शुद्धतम भूपृष्ठीय अक्षांश भी जान सकते हैं।


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ये दिन वसंत ऋतु के संदर्भ का उक्त बिंदु होते हैं। अंग्रेजी कैलेंडर की वर्तमान व्यवस्था के अनुसार यह दिन 20-21 मार्च ही वैशाखी कहलाता है। अस्तु किसी भी पंचांग में दिनमान और रात्रिमान का बराबर होना देखें। यदि वह 20-21 मार्च को ही हो और वह पंचांग वैशाखी या वैशाख संक्रांति अप्रैल में बता रहा हो, तो निश्चित जानिए कि वह पंचांग सर्वथा गलत है। यहां आप यह भी देख सकते हैं कि अयन और विषुवों की चार संक्रांतियां ईस्वी कैलेंडर में कहां हो रही हैं।

ध्यान रखें कि कोई भी संक्रांति अगर किसी भी माह की 21-22 तारीख को होगी तो कोई भी अन्य संक्रांति किसी भी अन्य माह की 14-15 तारीख को नहीं हो सकती या फिर तभी हो सकती है यदि अगला महीना कम से कम 23-24 या 53-54 दिनों का हो, जो कि व्यवस्थांर्गत नहीं है। आजकल हम आचार्य मुंजाल की तरह ध्रुवों की मदद से गणित कर ग्रहों की स्थिति प्राप्त नहीं कर रहे हैं

जैसे कि लघुमानस के ये ग्रंथकार अपने समय में करने को मजबूर थे। उन्होंने पाया कि गणित में वर्णित स्थितियां वास्तविक अयन एवं विषुव बिंदुओं में सूर्य की स्थिति से मेल नहीं खा रही थीं अपितु एक निश्चित अंतर वर्ष भर बना रहता था। तकनीकी अभाव के कारण सही गणित में न पहुंच पाने से आचार्य मुंजाल को एक नियम बनाना पड़ा जिसमें इस ऊपर वर्णित अंतर को नियमानुसार घटा करके ही दृक स्थिति के तुल्य परिणाम हासिल करना होता था।

यदि हम भी आज गणितागत स्थितियों को ले रहे होते, तो हमें भी वही कुछ करना पड़ता जो उन्होंने किया। किंतु हम आज गणितागत नहीं अपितु आधुनिक सूक्ष्म वेधशालाओं से प्राप्त दृक् स्थितियां ही लेते हैं, जिनमें किसी प्रकार के धु्रवांक संशोधन (बीज संस्कार) की आवश्यकता नहीं रह जाती। इस प्रकार यदि कोई पंचांगकर्ता वेधशालाओं से दृक् स्थितियों को लेकर पुनः उसमें किसी भी तरह का संशोधन करता है, तो वह संशोधन सुधार के निमिŸा न होकर वास्तव में विकृति का हेतु बनता है।

ऐसी विकृत स्थितियों पर आधारित पंचांगों को आधुनिक भाषा में निरयन पंचांग कहकर पुकारा जाता है। अस्तु सही पंचांग के लिए दृक् स्थिति अर्थात सायन का होना आवश्यक है। इस प्रकार जो तिथिपत्रक या पत्रा संक्रांतियों की सही जानकारी देे, चांद्र मासों और नक्षत्रों की यथार्थ पहचान के साथ जानकारी दे, वही सही तिथिपत्रक होगा और वही सही व्रत-पर्वों और त्योहारों की जानकारी दे सकता है।

यही नहीं, सही ऋतुबोध एवं मलमास आदि की सही जानकारी भी ऐसे ही किसी सही तिथिपत्रक से मिल सकती है। तात्पर्य यह कि पंचांग अथवा तिथिपत्रक की परिशुद्धता के लिए उसका गणितीय विश्लेषण पर आधारित होना आवश्यक है।



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