हर्निया: आंत का उतरना
हर्निया: आंत का उतरना

हर्निया: आंत का उतरना  

अविनाश सिंह
व्यूस : 11532 | अकतूबर 2015

आयुर्वेदिक दृष्टिकोण आयुर्वेद ग्रंथों में तरह-तरह से आंत उतरने के बारे में लिखा गया है, जिनसे लोग अक्सर ग्रस्त हो जाते हैं। उदर गह्नर में अमाशय, आंत आदि विभिन्न अंग होते हैं और जो भोजन नली अमाशय से गुर्दे तक जाती है, वह कई स्थानों से जुड़ी होती है तथा उसे उदर के ही पर्दे का सहारा होता है। आंत उतरने पर, जब तक वह अपने स्थान पर वापस नहीं आ जाती, तब तक अस्वाभाविकता के कारण कष्ट और पीड़ा का होना स्वाभाविक है, इससे तकलीफ बहुत बढ़ जाती है, खासकर उस वक्त, जब तक उतरी हुई आंत किसी तरह भी अपने स्थान पर वापस नहीं आ जाती। कभी-कभी इससे रोगी की मृत्यु भी हो जाती है। हर्निया अपने आप में रोग नहीं है। यह एक मात्र उदर की दीवार की निर्बलता है, जिसके कारण स्वस्थ एवं निरोग आंत उदर की दीवार की कमजोर मांसपेशियों में से मार्ग पाने पर, नीचे खिसक आती हैं।


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यदि उचित समय पर उपाय करके उदर की दीवार की इन कमजोर मांसपेशियांे को सशक्त कर देने में देरी न हो, तो आंत उतरना जानलेवा नहीं होता। हर्निया कभी भी, किसी को भी हो सकता है। छोटे बच्चों से लेकर वृद्ध लोगों तक को ऐसा हो सकता है। शरीर में हर्निया का सबसे प्रमुख स्थान उदर है और इसके अतिरिक्त सामान्यतः बनने वाली हर्निया इस प्रकार है:- वंक्षण हर्निया (इंग्यूनल हर्निया) इस प्रकार की हर्निया साधारणतः दो कारणों से होती है- एक तो उदर की दीवार की मांसपेशियांे की दुर्बलता से, दूसरा बार-बार प्रसव प्रक्रिया से गुजरने, किसी चोट आदि के कारण और शल्य-चिकित्सा से उदर के अंदर दबाव के एकदम अत्यधिक बढ़ जाने से, जैसे पुरानी खांसी, क्षय, दमा आदि, जोर से खांसते रहने, मल त्याग में अधिक जोर लगाने आदि से आंत उदर दीवार के कोटर से सरक कर वंक्षणी नलिका में आ जाती है। इस प्रकार की हर्निया प्रायः बड़ी आयु वालों को होती है।

नाभि हर्निया (अंबिलिक हर्निया) यह तीन प्रकार की होती है:

1. शैशव नाभि हर्निया: इस प्रकार की हर्निया में शिशु के खांसने या जोर लगाने पर नाभि में से एक थैली सी निकल आती है। इसका प्रमुख लक्षण यह है कि शिशु की नाभि स्पष्ट रूप से उभरी होती है।

2. जन्मजात नाभि बाह्य हर्निया यह शिशु में जन्म से ही होती है। समय पर इस हर्निया की शल्य-क्रिया न होने पर कोश के फटने का डर रहता है जो घातक सिद्ध होता है।

3. वयस्कों में परनाभि हर्निया इस प्रकार की हर्निया प्रायः अधिक आयु की मोटी स्त्रियों में उनकी नाभि के ऊपर एक छोटी थैली के रूप में शुरू होती है।


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यह हर्निया उन स्त्रियों में भी अधिक होती है, जो कई बार गर्भधारण और प्रसव प्रक्रिया से गुजरती हैं। उदर की पेटी की शल्य-चिकित्सा द्वारा हर्निया के कष्ट से छुटकारा मिल जाता है। और्वी हर्निया: यह स्त्रियों और पुरूषों में समान रूप से ही होती है। किंतु पुरूषों में यह वंक्षण हर्निया की अपेक्षा काफी कम ही होती है। यह हर्निया जोर से खांसने या जोर लगाने पर आर्वी नलिका पर एक उभार के रूप में प्रकट हो जाती है।

इसका सरल उपाय शल्य चिकित्सा है। हायेटस हर्निया: यह हर्निया अधिकतर ग्रास प्रणाली में छिद्र से होती है, जिसका कारण छिद्र का बड़ा आकार होना है। यह हर्निया मध्य आयु के व्यक्तियों में, विशेषकर स्त्रियों में अधिक होता है। इसके लक्षण प्रायः अनिश्चित तथा अन्य अंगों से संबंधित प्रतीत होते हैं। लक्षणहीन हायेटस हर्निया में चिकित्सा की विशेष आवश्यकता नहीं होती। आभ्यंतर हर्निया: यह हर्निया बाह्य रूप में प्रकट नहीं होती, बल्कि अंदर ही अप्रत्यक्ष रूप में पैदा होती है और रोगी के जीवन के लिए भारी जटिलताएं पैदा करती है।

इसके लक्षण कभी-कभी आंत्र अवरोध के रूप में भी प्रकट होते हैं जिसका शल्य चिकित्सा से ही उपचार हो पाता है। हर्निया से बचाव और उपचार: हर्निया का एक मात्र सफल उपचार शल्य चिकित्सा ही है। परंतु यदि हर्निया का आकार छोटा है और उससे होने वाले कष्ट सहनीय हैं, तो आंत की पेटी बांधने और भोजन संबंधी सावधानियां रखने तथा कुछ व्यायाम आदि से आराम आ जाता है। आंत की पेटी हर्निया की वृद्धि और वेदना को रोकने का एक यांत्रिक साधन है। इसे जहां तक संभव हो सके, हर समय लगाए रखना चाहिए। केवल सोते समय, लेटने के पश्चात उतार लें।

हर्निया के रोगी को गैस, कब्ज की शिकायत न हो, इसकी सावधानी रखनी चाहिए और मल त्याग के समय वे अधिक जोर न लगाएं। जोर से खांसना, वजन उठाना, तेजी से दौड़ना आदि भी वर्जित है, रोगी की स्थिति को मद्देनजर रखते हुए आंशिक उपवास कराएं या 5-7 दिन तक रोगी को रस-आहार या फल-आहार देना चाहिए। बाद में रोगी को धीरे-धीरे ठोस आहार पर लाएं और सलाद, उबली सब्जियां, फल मौसम अनुसार सेवन कराएं। ज्योतिषीय दृष्टिकोण ज्योतिष के अनुसार काल पुरूष की कुंडली में आंत का संबंध षष्ठ भाव और कन्या राशि से है। कन्या राशि का स्वामी बुध होता है और षष्ठ भाव का कारक ग्रह मंगल होता है। इसलिए षष्ठ भाव, षष्ठेश, षष्ठकारक मंगल, बुध, लग्न, लग्नेश जब दुष्प्रभावों में रहते हैं, तो आंतों से संबंधित रोग होते हैं, जिनमें हर्निया रोग भी शामिल है। शरीर में हर्निया उदर के ऊपरी भाग से लेकर उदर के निचले भाग तक कहीं भी हो सकती है।

काल पुरूष की कुंडली में पंचम और सप्तम भाव भी शामिल है। इसलिए इन भावों के स्वामी और कारक ग्रहों का निर्बल होना उदर में उस स्थान को दर्शाते हैं जिस भाग में हर्निया होती है। हर्निया रोग आंत के उदर की दीवार के कोटर से बाहर निकलने से होता है जिसे आंत का उतरना भी कहते हैं। उदर की दीवार की निर्बलता के कारण आंत अपने स्थान (कोटर) से बाहर निकलकर नीचे की तरफ उतर जाती है। ऐसा उपर्युक्त भाव, राशि एवं ग्रहों के दुष्प्रभाव और निर्बलता के कारण होता है।

जब इन ग्रहों की दशा-अंतर्दशा रहती है और संबंधित ग्रह का गोचर विपरीत रहता है तो हर्निया रोग होता है।

विभिन्न लग्नों में हर्निया रोग मेष लग्न: लग्नेश मंगल सप्तम भाव में सूर्य से अस्त हो, षष्ठेश बुध राहु से युक्त या दृष्ट षष्ठ भाव में हो और शनि लग्न, पंचम या दशम भाव में हो तो हर्निया रोग या उदर में आंतों से संबंधित रोग होता है।

वृष लग्न: लग्नेश एवं षष्ठेश शुक्र अष्टम भाव में गुरु राहु से युक्त या दृष्ट, षष्ठ भाव में पंचमेश बुध, सप्तम भाव में शनि से युक्त हो तो हर्निया जैसा रोग होता है।

मिथुन लग्न: मंगल पंचम, षष्ठ या सप्तम भाव में राहु या केतु से दृष्ट या युक्त हो, बुध अस्त हो, गुरु षष्ठेश से युक्त या दृष्ट हो तो जातक को हर्निया जैसे रोग का सामना करना पड़ता है।

कर्क लग्न: लग्नेश चंद्र बुध से युक्त होकर षष्ठ भाव में हो और राहु-केतु की दृष्टि में हो, शुक्र पंचम या सप्तम भाव में हो और शनि से युक्त या दृष्ट हो तो हर्निया रोग हो सकता है।

सिंह लग्न: बुध षष्ठ भाव में, पंचमेश गुरु और नवमेश मंगल राहु या केतु से युक्त होकर सप्तम भाव में हो, शुक्र अष्टम भाव में हो तो जातक को हर्निया रोग देता है।

कन्या लग्न: मंगल-गुरु एक- दूसरे से युक्त या दृष्ट षष्ठ भाव में हो, बुध-सूर्य सप्तम भाव में,राहु-केतु, षष्ठ या अष्टम भाव में हो तो हर्निया जैसा रोग हो सकता है।

तुला लग्न: गुरु षष्ठ भाव में राहु एवं मंगल से युक्त हो, शनि बुध सप्तम भाव में हो और शुक्र अस्त हो तो हर्निया रोग होता है।

वृश्चिक लग्न: बुध षष्ठ भाव में राहु से युक्त या दृष्ट हो, मंगल अष्टम भाव में, सूर्य सप्तम भाव में एवं चंद्र लग्न में हो तो हर्निया जैसा रोग होता है।

धनु लग्न: बुध-शुक्र षष्ठ भाव में, सूर्य सप्तम भाव में मंगल से युक्त हो, राहु-केतु दशम भाव में हो तो जातक को हर्निया जैसा रोग होता है।

मकर लग्न: गुरु षष्ठ भाव में केतु से युक्त या दृष्ट हो, बुध सप्तम भाव में शुक्र से युक्त, शनि चतुर्थ भाव में चंद्र से युक्त हो तो जातक को हर्निया हो सकता है।

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कुंभ लग्न: गुरु षष्ठ भाव में बुध से युक्त एवं राहु से दृष्ट हो, शुक्र सप्तम भाव में सूर्य से अस्त हो तो जातक को हर्निया रोग का सामना जीवन में करना पड़ता है।

मीन लग्न: शुक्र शनि षष्ठ भाव में राहु या केतु से युक्त या दृष्ट हो, चंद्र मंगल सप्तम भाव में, बुध पंचम भाव में हो, लग्नेश गुरु अस्त हो तो जातक को हर्निया रोग हो सकता है। उपरोक्त सभी योग से रोग का समय संबंधित ग्रहों की दशा, अंतर्दशा एवं गोचर स्थिति से जानना चाहिए। रोग अवधि भी इसी तरह से जानें। रोग संबंधित ग्रहों की दशा एवं गोचर के विपरीत रहते अपनी चरम सीमा पर होता है। इसके उपरांत रोग से राहत मिलती है।


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