ये अष्टकूट हैं वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रहमैत्री, गण, भकूट, नाड़ी। विवाह के लिए भावी वर-वधू की जन्मकुंडली मिलान करते समय नक्षत्र मेलापक के अष्टकूटों (जिन्हंे गुण मिलान भी कहा जाता है) में नाड़ी को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। नाड़ी व्यक्ति के मन एवं मानसिक ऊर्जा की सूचक होती है। व्यक्ति के निजी संबंध उसके मन एवं उसकी भावना से नियंत्रित होते हैं। जिन दो व्यक्तियों में भावनात्मक समानता या प्रतिद्वंद्विता होती है, उनके संबंधों में टकराव पाया जाता है। जैसे शरीर के वात, पित्त एवं कफ इन तीन प्रकार के दोषों की जानकारी कलाई पर चलने वाली नाड़ियों से प्राप्त की जाती है, उसी प्रकार अपरिचित व्यक्तियों के भावनात्मक लगाव की जानकारी आदि, मध्य एवं अंत्य नाम की इन तीन प्रकार की नाड़ियों के द्वारा मिलती है।
वैदिक ज्योतिष अनुसार आदि, मध्य तथा अंत्य - ये तीन नाड़ियाँ यथाक्रमेण आवेग, उद्वेग एवं संवेग की सूचक हैं, जिनसे कि संकल्प, विकल्प एवं प्रतिक्रिया जन्म लेती है । मानवीय मन भी कुल मिलाकर संकल्प, विकल्प या प्रतिक्रिया ही करता है और व्यक्ति की मनोदशा का मूल्यांकन उसके आवेग, उद्वेग या संवेग के द्वारा होता है। इस प्रकार मेलापक में नाड़ी के माध्यम से भावी दम्पत्ति की मानसिकता, मनोदशा का मूल्यांकन किया जाता है। वैदिक ज्योतिष के मेलापक प्रकरण में गणदोष, भकूटदोष एवं नाड़ी दोष - इन तीनों को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। यह इस बात से भी स्पष्ट है कि ये तीनों कुल 36 गुणों में से (6$7$8=21) कुल 21 गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शेष पाँचों कूट (वर्ण, वश्य, तारा, योनि एवं ग्रह मैत्री) कुल मिलाकर (1$2$3$4$5=15) 15 गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
अकेली नाड़ी के 8 गुण होते हैं, जो वर्ण, वश्य आदि 8 कूटों की तुलना में सर्वाधिक हैं। इसलिए मेलापक में नाड़ी दोष एक महादोष माना गया है। नाड़ी दोष:- नाड़ी दोष होने पर यदि अधिक गुण प्राप्त हो रहे हों तो भी गुण मिलान को सही माना जा सकता है अन्यथा उनमंे व्यभिचार का दोष पैदा होने की संभावना रहती है। मध्य नाड़ी को पित्त स्वभाव का माना गया है। इसलिए मध्य नाड़ी के वर का विवाह मध्य नाड़ी की कन्या से हो जाए तो उनमें परस्पर अहं के कारण सम्बंध अच्छे नहीं बन पाते। उनमें विकर्षण की संभावना बनती है। परस्पर लड़ाई-झगडे़ होकर तलाक की नौबत आ जाती है। विवाह के पश्चात् संतान सुख कम मिलता है। गर्भपात की समस्या ज्यादा बनती है।
अन्त्य नाड़ी को कफ स्वभाव का माना जाता है। इस प्रकार की स्थिति में प्रबल नाड़ी दोष होने के कारण विवाह करते समय अवश्य ध्यान रखें। जिस प्रकार वात प्रकृति के व्यक्ति के लिए वात नाड़ी चलने पर, वात गुण वाले पदार्थों का सेवन एवं वातावरण वर्जित होता है अथवा कफ प्रकृति के व्यक्ति के लिए कफ नाड़ी के चलने पर कफ प्रधान पदार्थों का सेवन एवं ठंडा वातावरण हानिकारक होता है, ठीक उसी प्रकार मेलापक में वर-वधू की एक समान नाड़ी का होना, उनके मानसिक और भावनात्मक ताल-मेल में हानिकारक होने के कारण वर्जित है। तात्पर्य यह है कि लड़का-लड़की की एक समान नाड़ियाँ हों तो उनका विवाह नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनकी मानसिकता के कारण, उनमें आपसी सामंजस्य होने की संभावना न्यूनतम और टकराव की संभावना अधिकतम पाई जाती है।
इसलिए मेलापक में आदि नाड़ी के साथ आदि नाड़ी का, मध्य नाड़ी के साथ मध्य का और अंत्य नाड़ी के साथ अंत्य का मेलापक वर्जित होता है जबकि लड़का-लड़की की भिन्न-भिन्न नाड़ी होना उनके दाम्पत्य संबंधों में शुभता का द्योतक है। यदि वर एवं कन्या की नाड़ी अलग-अलग हो तो नाड़ी शुद्धि मानी जाती है । वर एवं कन्या दोनों का जन्म यदि एक ही नाड़ी में हो तो नाड़ी दोष माना जाता है।
सामान्य नाड़ी दोष होने पर किस प्रकार के उपाय से दाम्पत्य जीवन को सुखी बना सकते हंै, आइए जानें। १- आदि नाड़ी - अश्विनी, आर्द्रा पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद २- मध्य नाड़ी - भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा,उत्तराभाद्रपद ३- अन्त्य नाड़ी - कृतिका, रोहिणी, अश्लेषा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, रेवती आदि, मध्य व अन्त्य नाड़ी का यह विचार सर्वत्र प्रचलित है लेकिन कुछ स्थानों पर चतुर्नाड़ी एवं पंचनाड़ी चक्र भी प्रचलित है।
लेकिन व्यावहारिक रुप से त्रिनाड़ी चक्र ही सर्वथा उपयुक्त जान पड़ता है। नाड़ी दोष को इतना अधिक महत्व क्यों दिया गया है, इसके बारे मंे जानकारी हेतु त्रिनाड़ी स्वभाव की जानकारी होनी आवश्यक है। आदि नाड़ी वात स्वभाव की मानी गई है, मध्य नाड़ी पित्त स्वभाव की मानी गई है एवं अन्त्य नाड़ी कफ स्वभाव की मानी गई है। यदि वर एवं कन्या की नाड़ी एक ही हो तो नाड़ी दोष माना जाता है । इसका प्रमुख कारण यही है कि वात स्वभाव के वर का विवाह यदि वात स्वभाव की कन्या से हो तो उनमंे चंचलता की अधिकता के कारण समर्पण व आकर्षण की भावना विकसित नहीं होती। विवाह के पश्चात् उत्पन्न संतान मंे भी वात सम्भावना रहती है। इसी आधार पर आद्य नाड़ी वाले वर का विवाह आद्य नाड़ी की कन्या से वर्जित माना गया है अन्यथा उनमें व्यभिचार का दोष पैदा होने की संभावना रहती है।
मध्य नाड़ी को पित्त स्वभाव का माना गया है इसलिए मध्य नाड़ी के वर का विवाह मध्य नाड़ी की कन्या से हो जाए तो उनमें परस्पर अहं के कारण संबंध अच्छे नहीं बन पाते। उनमें विकर्षण की सम्भावना बनती है। परस्पर लड़ाई-झगडे़ होकर तलाक की नौबत आ जाती है। विवाह के पश्चात् संतान सुख कम मिलता है। गर्भपात की समस्या ज्यादा बनती है। अन्त्य नाड़ी को कफ स्वभाव का माना गया है । इसलिए अन्त्य नाड़ी के वर का विवाह यदि अन्त्य नाड़ी की महिला से हो तो उनमें कामभाव की कमी पैदा होने लगती है। शान्त स्वभाव के कारण उनमें परस्पर सामंजस्य का अभाव रहता है। दाम्पत्य में गलत-फहमी होना भी स्वाभाविक होती है ।
नाड़ी दोष होने पर विवाह न करना ही उचित माना जाता है । लेकिन नाड़ी दोष परिहार की स्थिति में यदि कुंडली मिलान उत्तम बन रहा है तो विवाह किया जा सकता है । नाड़ी दोष परिहार
क) वर कन्या की एक राशि हो लेकिन जन्म नक्षत्र अलग-अलग हांे या जन्म नक्षत्र एक ही हों परन्तु राशियां अलग हों तो नाड़ी दोष नहीं होता है। यदि जन्म नक्षत्र एक ही हो लेकिन चरण भेद हो तो अति आवश्यक स्थिति में अर्थात् सगाई हो गई हो, एक दूसरे को पंसद करते हों तब इस स्थिति में विवाह किया जा सकता है ।
ख) विशाखा, अनुराधा, धनिष्ठा, रेवती, हस्त, स्वाति, आद्र्रा, पूर्वाभाद्रपद इन 8 नक्षत्रों में से किसी नक्षत्र में वर कन्या का जन्म हो तो नाड़ी दोष नहीं रहता है ।
ग) उत्तराभाद्रपद, रेवती, रोहिणी, विशाखा, आद्र्रा, श्रवण, पुष्य, मघा इन नक्षत्रों मंे भी वर कन्या का जन्म नक्षत्र पडे़ तो नाड़ी दोष नहीं रहता है । उपरोक्त मत कालिदास का है ।
घ) वर एवं कन्या के राशिपति यदि बुध, गुरु एवं शुक्र मंे से कोई एक अथवा दोनांे के राशिपति एक ही हांे तो नाड़ी दोष नहीं रहता है ।
ङ) आचार्य सीताराम झा के अनुसार-नाड़ी दोष विप्र वर्ण पर प्रभावी माना जाता है। यदि वर एवं कन्या दोनांे जन्म से विप्र हांे तो उनमें नाड़ी दोष प्रबल माना जाता है। अन्य वर्णों पर नाड़ी पूर्ण प्रभावी नहीं रहता। यदि विप्र वर्ण पर नाड़ी दोष प्रभावी मानें तो नियम का हनन होता है क्योंकि बृहस्पति एवं शुक्र को विप्र वर्ण का माना गया है। यदि वर कन्या के राशिपति विप्र वर्ण ग्रह हों तो इसके अनुसार नाड़ी दोष नहीं रहता। विप्र वर्ण की राशियों में भी बुध व शुक्र राशिपति बनते हैं।
च) सप्तमेश स्वगृही होकर शुभ ग्रहों के प्रभाव में हो एवं वर कन्या के जन्म नक्षत्र चरण में भिन्नता हो तो नाड़ी दोष नहीं रहता है। इन परिहारों के अलावा कुछ प्रबल नाड़ी दोष के योग भी बनते हैं जिनके होने पर विवाह न करना ही उचित है। यदि वर एवं कन्या की नाड़ी एक हो एवं निम्न में से कोई युग्म वर कन्या का जन्म नक्षत्र हो तो विवाह न करें ।
1.आदि नाड़ी - अश्विनी-ज्येष्ठा, हस्त-शतभिषा, उ.फा.-पू.भा. अर्थात यदि वर का नक्षत्र अश्विनी हो तो कन्या नक्षत्र ज्येष्ठा होने पर प्रबल नाड़ी दोष होगा । इसी प्रकार कन्या नक्षत्र अश्विनी हो तो वर का नक्षत्र ज्येष्ठा होने पर भी प्रबल नाड़ी दोष होगा। इसी प्रकार आगे के युग्मों से भी अभिप्राय समझें ।
2. मध्य नाड़ी- भरणी-अनुराधा, प ू र्व ा फ ा ल् ग ुन ी - उत र ाफ ा ल् ग ुन ी , पुष्य-पूर्वाषाढ़ा, मृगशिरा-चित्रा, चित्रा-धनिष्ठा, मृगशिरा-धनिष्ठा ।
3. अन्त्य नाड़ी- कृतिका-विशाखा, रोहिणी-स्वाति, मघा-रेवती। इस प्रकार की स्थिति में प्रबल नाड़ी दोष होने के कारण विवाह करते समय अवश्य ध्यान रखें । सामान्य नाड़ी दोष होने पर किस प्रकार के उपाय से दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने का प्रयास कर सकते हैं,
आइए जानें- नाड़ी दोष उपाय-
1. वर एवं कन्या दोनों की मध्य नाड़ी हो तो पुरुष को प्राण भय रहता है। इस स्थिति मंे पुरुष को महामृत्यंुजय जाप करना अति आवश्यक है। यदि वर एवं कन्या दोनों की नाड़ी आदि या अन्त्य हो तो स्त्री को प्राणभय की सम्भावना रहती है। इसलिए इस स्थिति मंे कन्या महामृत्युंजय जाप अवश्य करे।
2. अपनी सालगिराह पर अपने वजन के बराबर अन्न दान करंे एवं साथ में ब्राह्यण भोजन कराकर वस्त्र दान करें ।
3. नाड़ी दोष के प्रभाव को दूर करने हेतु अनुकूल आहार दान करें ।
4. वर एवं कन्या मंे से जिसे मारकेश की दशा चल रही हो उसको दशानाथ का उपाय दशाकाल तक अवश्य करना चाहिए।