प्रचेताओं को भगवान का वरदान
प्रचेताओं को भगवान का वरदान

प्रचेताओं को भगवान का वरदान  

ब्रजकिशोर शर्मा ‘ब्रजवासी’
व्यूस : 4256 | अप्रैल 2015

परमहंस, आत्मज्ञानी व भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त पूज्य गुरुदेव श्री शुकदेव बाबा के श्री चरणों में विराजमान तत्त्वाभिलाषी महाराज परीक्षित ने पूछा - भगवान् ! आपने राजा प्राचीन-बर्हि के जिन पुत्रों का वर्णन किया था, उन प्रचेताओं ने रूद्र गीत के द्वारा श्री हरि की आराधना करके क्या सिद्धि प्राप्त की और जगत् में क्या-क्या कार्यों का संपादन किया तथा किस प्रकार परमपद का लाभ प्राप्त हुआ? श्री शुकदेव बाबा ने कहा- राजन् । एक बार यही प्रश्न विदुर जी ने श्री मैत्रेय जी से पूछा था, तो जैसा उन्होंने वर्णन किया है, मैं श्रवण कराता हूं एकाग्रचित्त होकर कर्णेन्द्रिय पुटों से पान करो। पिता के आज्ञाकारी प्रचेताओं ने समुद्र के अंदर खड़े रहकर रुद्रग्रीत के जप रूपी यज्ञ और तपस्या के द्वारा समस्त शरीरों के उत्पादक भगवान् श्री हरि को प्रसन्न कर लिया। तब संपूर्ण कारणों के भी कारण पुराण पुरूष दस हजार वर्ष से भी अधिक तपस्वी जीवन को जीने वाले प्रचेताओं के समक्ष श्री नारायण गरुड़ेजी के कंधे पर बैठे हुए, श्री अंग में मनोहर पीतांबर और कंठ में कौस्तुभ मणि से सुशोभित सौम्य विग्रह से व अपनी दिव्य प्रभा से सब दिशाओं का अंधकार दूर करते हुए प्रकट हो गए।

आदि पुरूष श्री नारायण ने भी तपस्या जनित क्लेश को शांत करते हुए शरणागत प्रचेताओं की ओर दयादृष्टि से निहारते हुए मेघ के समान गंभीर वाणी में कहा - ‘राजपुत्रों तुम्हारा कल्याण हो ! तुम सबमें परस्पर बड़ा प्रेम है और स्नेहवश तुम एक ही धर्म का पालन कर रहे हो। तुम्हारे इस आदर्श सौहार्द से मैं बहुत प्रसन्न हूं। मुझसे वर मांगो। जो पुरुष सायंकाल के समय प्रतिदिन तुम्हारा स्मरण करेगा, उसका अपने भाइयों में अपने ही समान प्रेम होगा तथा समस्त जीवों के प्रति मित्रता का भाव हो जायेगा। जो लोग प्रातःकाल और सायंकाल एकाग्रचित्त से रूद्रगीत द्वारा मेरी स्तुति करेंगे, उनको मैं अभीष्ट वर और शुद्ध बुद्धि प्रदान करूंगा। तुम लोगों ने बड़ी प्रसन्नता से अपने पिता की आज्ञा शिरोधार्य की है, इससे तुम्हारी कमनीय कीर्ति समस्त लोकों में फैल जायेगी। तुम्हारे एक बड़ा ही विख्यात पुत्र होगा। वह गुणों में किसी भी प्रकार ब्रह्माजी से कम नहीं होगा तथा अपनी संतान से तीनों लोकों को पूर्ण कर देगा। राजकुमारों कण्डु ऋषि के तपोनाश के लिए इंद्र की भेजी हुई प्रम्लोचा अप्सरा से एक कमलनयनी कन्या उत्पन्न हुई थी। उसे छोड़कर वह स्वर्गलोक को चली गयी। तब वृक्षों ने उस कन्या को लेकर पाला पोसा। जब कन्या भूख से व्याकुल होकर रोने लगी तब औषधियों के राजा चंद्रमा ने दयावश उसके मुंह में अपनी अमृवर्षिणी तर्जनी अंगुली दे दी।


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तुम्हारे पिता ने तुम्हें संतान उत्पन्न करने की आज्ञा दी है। अतः तुम शीघ्र ही उस देवोपम सुंदरी कन्या से विवाह कर लो। तुम सभी एक ही धर्म में तत्पर व एक ही स्वभाव वाले हो; इसलिये तुम्हारे ही समान धर्म व स्वभाव वाली वह सुंदरी कन्या तुम सभी की पत्नी होगी तथा तुम सभी में उसका समान अनुराग होगा। तुम लोग मेरी कृपा से दस लाख दिव्य वर्षों तक पूर्ण बलवान् रहकर अनेकों प्रकार के पार्थिव व दिव्य भोग भोगोगे। अंत में मेरी अविचल भक्ति से हृदय का समस्त वासनारूप मल दग्ध हो जाने पर तुम इस लोक तथा परलोक के नरकतुल्य भोगों से उपरत होकर मेरे परमधाम को जाओगे। श्रीशुकदेव जी कहते हैं - राजन् ! भगवान् के दर्शनों से प्रचेताओं का रजोगुण-तमोगुण मल नष्ट हो चुका था। जब उनसे सकल पुरूषार्थों के आश्रय और सबके परम सुहृदय, श्री हरि ने इस प्रकार कहा, तब प्रचेताओं ने हाथ जोड़कर गद्गद वाणी से कहा - प्रभो। भक्तों के क्लेश दूर करने वाले आपको हमारा नमस्कार है। आपका वेग मन और वाणी के वेग से बढ़कर है तथा आपका स्वरूप सभी इन्द्रियों की गति से परे है। वास्तव में जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिए आप माया के गुणों को स्वीकार करके ही ब्रह्मा, विष्णु और महादेव रूप धारण करते हैं।

आप ही समस्त भागवतों के प्रभु वसुदेवनंदन भगवान् श्रीकृष्ण हैं, आपको नमस्कार है। जगदीश्वर ! आप मोक्ष का मार्ग दिखाने वाले और स्वयं पुरुषार्थ स्वरूप हैं। आप हम पर प्रसन्न हैं, इससे बढ़कर हमें और क्या चाहिए। बस हमारा अभीष्ट वर तो आपकी प्रसन्नता ही है। हम आपसे केवल यही मांगते हैं कि जब तक आपकी माया से मोहित होकर हम अपने कर्मानुसार संसार में भ्रमण करते रहें तब तक जन्म-जन्म में हमें आपके प्रेमी भक्तों का संग प्राप्त होता रहे। भगवन् ! आपके प्रिय सखा भगवान शंकर के क्षणभर के समागम से ही आज हमें आपका साक्षात दर्शन प्राप्त हुआ है। आप जन्म मरणरूप दुःसाध्य रोग के श्रेष्ठतम वैद्य हैं, अतः अब हमने आपका ही आश्रय लिया है। हमने अन्नादि को त्यागकर दीर्घकाल तक जल में खड़े रहकर तपस्या की है, वह सब आप सर्वव्यापक पुरूषोत्तम के संतोष का कारण हो - यही वर मांगते हैं। आप सत्त्वमूर्ति भगवान् वासुदेव को हम नमस्कार करते हैं। राजन श्री शुकदेव जी कहते हैं प्रचेताओं के इस प्रकार स्तुति करने पर शरणागतवत्सल श्री भगवान ने प्रसन्न होकर कहा- ‘‘तथास्तु’’। श्रीहरि अभीष्ट वर देकर परमधाम को चले गये। इसके पश्चात् प्रचेताओं ने समुद्र के जल से बाहर निकलकर देखा कि सारी पृथ्वी को ऊंचे-ऊंचे वृक्षों ने ढंक दिया है, यह देखकर वे वृक्षों पर कुपित होते हुए अपने मुख से प्रचंड वायु और अग्नि पृथ्वी को वृक्ष, लता आदि से रहित कर देने के लिए छोड़ने लगे।


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ब्रह्माजी ने जब यह देखा कि वे सारे वृक्षों को भस्म कर रहे हैं, तब वे वहां आये और प्राचीनबर्हि के पुत्रों को युक्तिपूर्वक समझाकर शांत किया। फिर जो कुछ वृक्ष वहां बचे थे, उन्होंने डरकर ब्रह्माजी के कहने से वह कमलनयनी कन्या लाकर प्रचेताओं को दे दी। प्रचेताओं ने भी उस मारिषा नाम की कन्या से विवाह कर लिया। इसी के गर्भ से ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष ने, श्रीमहादेव की अवज्ञा के कारण अपना पूर्व शरीर त्यागकर जन्म लिया। इन्हीं दक्ष ने चाक्षुष मन्वन्तर आने पर, जब कालक्रम से पूर्व सर्ग नष्ट हो गया, भगवान की प्रेरणा से इच्छानुसार नवीन प्रजा उत्पन्न की। इन्हें ब्रह्माजी ने प्रजापतियों के नायक के पद पर अभिषिक्त कर सृष्टि की रक्षा के लिए नियुक्त किया और इन्होंने मरीचि आदि दूसरे प्रजापतियों को अपने-अपने कार्य में नियुक्त किया। ये कर्म करने में बड़े दक्ष (कुशल) थे, इसी से इनका नाम ‘दक्ष’ हुआ। श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन् । दस लाख वर्ष बीत जाने पर जब प्रचेताओं को विवेक हुआ, तब उन्हें श्रीहरि भगवान् के वाक्यों की याद आयी और वे अपनी भार्या मारिषा को पुत्र के पास छोड़कर तुरंत घर से पश्चिम दिशा में समुद्र के तट पर जहां जाजलि मुनि ने सिद्धि प्राप्त की थी; वहीं जा पहुंचे और जिससे ‘समस्त भूतों में एक ही आत्मतत्व विराजमान है’ ऐसा ज्ञान होता है, उस आत्मविचार रूप ब्रह्मसूत्र का संकल्प करके बैठ गए।

उन्होंने प्राण, मन, वाणी और दृष्टि को वश में किया तथा शरीर को निश्चेष्ट, स्थिर और सीधा रखते हुए आसन को जीतकर चित्त को विशुद्ध कर ब्रह्म में लीन कर दिया। ऐसी स्थिति में उन्हें देवता और असुर दोनों के ही वंदनीय श्री नारदजी ने देखा और प्रचेताओं के समक्ष जैसे ही पहुंचे, प्रचेतागणों ने देवर्षि को खड़े होकर विधिवत् पूजा-प्रणामादि से संतुष्ट कर दिव्य आसन समर्पित किया। जब नारदजी सुखपूर्वक बैठ गए तब वे कहने लगे। प्रचेताओं ने देवर्षि नारदजी से कहा- भगवन् ! आपका स्वागत है, आज बड़े भाग्य से हमें आपका दर्शन हुआ। भगवान् शंकर और श्रीविष्णुभगवान् ने हमें जो उपदेश दिया था, उसे गृहस्थी में आसक्त रहने के कारण हम लोग भूल गये हैं। अतः आप हमारे हृदयों में उस परमार्थ तत्व का साक्षात्कार कराने वाले अध्यात्म ज्ञान को फिर प्रकाशित कर दीजिए, जिससे हम सुगमता से ही इस दुस्तर संसार-सागर से पार हो जाएं। सदा-सर्वदा भगवान् श्रीकृष्ण की लीला-कथाओं में ही रमण करने वाले भगवन्मय श्री नारदजी ने कहा-राजाओं ! इस लोक में मनुष्य का वही जन्म, वही कर्म, वही आयु, वही मन और वही वाणी सफल है, जिसके द्वारा सर्वात्म सर्वेश्वर श्रीहरि ही संपूर्ण प्राणियों की प्रिय आत्मा हैं।


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अतः तुम ब्रह्मादि समस्त लोकपालों के भी अधीश्वर श्री हरि को अपने से अभिन्न मानते हुए भजो, क्योंकि वे ही समस्त देहधारियों के एकमात्र आत्मा हैं। भगवान् स्वरूपानंद से ही परिपूर्ण हैं, उन्हें निरंतर अपनी सेवा में रहने वाली लक्ष्मीजी तथा उनकी इच्छा करने वाले नरपति ओर देवताओं की भी कोई परवाह नहीं है। इतने पर भी वे अपने भक्तों के तो अधीन ही रहते हैं। अहो ! ऐसे करूणासागर श्री हरि को कोई भी कृतज्ञ पुरुष थोड़ी देर के लिए भी कैसे छोड़ सकता है। नारद जी ने प्रचेताओं को इस उपदेश के साथ-साथ और भी बहुत सी भगवत्संबंधी बातें सुनायीं। इसके पश्चात् प्रचेताओं को संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त कर देवर्षि ब्रह्मलोक को चले गए। प्रचेतागण भी उनके मुख से संपूर्ण जगत् के पापरूपी मल को दूर करने वाले भगवत् चरित्र सुनकर भगवान् के चरण कमलों का ही चिंतन करने लगे और अंत में भगवद्धाम को प्राप्त हो गए।



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