भद्रा सामान्यतः विष्टि करण को कहते हैं। जिन तिथियों के पूर्वार्द्ध अथवा उत्तरार्द्ध में विष्टि नामक करण विद्यमान हो, उस तिथि को ‘भद्राक्रांत’ तिथि कहा जाता है। अतः भद्रा की जानकारी मूलतः करण ज्ञान पर आधारित है। वैदिक काल के विकास में पंचांग निर्माण की प्रक्रिया पूर्व में एकांग ‘तिथि’ मात्र पर आधारित थी। नक्षत्र समावेश से यह ‘द्वयांग’ बना । क्रमशः धीरे-धीरे योग, करण, तथा वार को ग्रहण करके पंचांग की सार्थकता सिद्ध हुई। पंचांग के पांच अंगों की उपयोगितानुसार तिथियों के प्रयोग से व्रत, पर्व तथा अनुष्ठान द्वारा धन प्राप्ति एवं कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया गया। सप्त वारों में दैनिक कार्य-कलाप निवृत्ति से स्वास्थ्य और आयुष्य वृद्धि संभव हुई।
नक्षत्रानुसार सांस्कारिक परम्पराएं निभाने से पापों से निवृत्ति तथा विभिन्न योग-रोग निवारण की धारणा पुष्ट हुई। इसी प्रकार विभिन्न करणों का उचित प्रयोग कार्य-सिद्धिदायक कहा गया जो ‘करण’ शब्द की व्याकरणिक उत्पत्ति से भी प्रकट होता है। बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि ये सात करण चर संज्ञक हैं अर्थात प्रत्येक माह में प्रत्येक की आठ आवृत्तियां पूर्ण होती हैं। इसके अतिरिक्त चार स्थिर करण भी हैं जो मास में केवल एक बार ही आते हैं। इनकी तिथियां और उनके भाग निश्चित (स्थिर) हैं। इनके नाम क्रमशः शकुनि, चतुष्पाद, नाग तथा किस्तुघ्न हैं। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के पश्चात भाग में शकुनि, अमावस्या के पूर्वार्द्ध में चतुष्पाद और उत्तरार्द्ध में नाग तथा शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्द्ध में किस्तुघ्न नामक करण होता है। इस प्रकार कुल ग्यारह (11) करण प्रचलित हैं। भद्रा की स्थिति: भद्रा की स्थिति के विषय में मुहूत्र्त चिन्तामणि के शुभाशुभ प्रकरण श्लोक 41 ‘शुक्ले पूर्वा.......’ के अनुसार शुक्ल पक्ष की अष्टमी और पूर्णिमा के पूर्वार्द्ध तथा एकादशी और चतुर्थी के उत्तरार्द्ध में भद्रा होती है।
इसी प्रकार कृष्ण पक्ष की तृतीया और दशमी के उत्तरार्द्ध में तथा सप्तमी और चतुर्दशी के पूर्वार्द्ध में विष्टि करण (भद्रा) होता है। (ज्ञातव्य है कि इस सिद्धांत के विपरीत वेदांग कालीन तथा जैन ग्रंथों में करण पूर्वार्द्ध-उत्तरार्द्ध के स्थान पर दिन एवं रात्रि के आधार पर दिए गए हैं) भद्रा का स्वरूप: ‘मुहूत्र्त गणपति’ के अनुसार ‘‘पुरा देवासुरे युद्धे शंभु कायाद्विनिर्गता। दैत्यघ्नि रासभास्या च विष्टिर्लोगूलिनी क्रमात्। सिंह ग्रीवा शवारूढ़ा सप्तहस्ता कृशोदरी। अमरैः श्रवण प्रांते सा नियुक्ता शिवाज्ञयाः।। महोग्रया विकरालस्या पृथुदंष्ट्र भयानका। कार्याग्नि भुवमायाति वह्नि ज्वाला समाकुला।।’’ अर्थात पूर्वकाल में देव-दैत्यों के युद्ध में महादेव जी के शरीर से भद्रा उत्पन्न हुई। दैत्यों के संहार हेतु गर्दभ के मुख और लंबी पूंछ वाली यह भद्रा तीन पैरों वाली है। सिंह जैसी गर्दन, शव पर आरूढ़, सात हाथों तथा शुष्क उदर वाली, महाभयंकर, विकरालमुखी, पृथुदृष्टा तथा समस्त कार्यों को नष्ट करने वाली अग्नि ज्वाला युक्त यह भद्रा देवताओं की भेजी हुई प्रकट हुई है।
भद्रा का निवास: विभिन्न ग्रंथों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि विभिन्न राशियों में चंद्रमा के संचारवश भद्रा का निवास क्रमशः स्वर्ग, पाताल तथा पृथ्वी लोक पर होता है। किंतु विभिन्न ग्रंथकारों में इस विषय में कतिपय मतभेद भी हैं, जिनका विवरण निम्नानुसार है- - अधिकाधिक विद्वानों के अनुसार क्रमशः मेष, मिथुन तथा वृश्चिक राशियों में चंद्रमा के रहने वाली भद्रा का वास स्वर्गलोकं में, कन्या, तुला, धनु तथा मकर के चंद्रमा में इसका वास पाताल (नाग) लोक में तथा कर्क, सिंह, कुंभ और मीन के चन्द्र समय में इसका वास भूलोक (पृथ्वी) में होता है। स्वर्ग में निवास करने वाली भद्रा ‘ऊध्र्वमुखी’, पाताल वासिनी ‘अधोमुखी’ तथा पृथ्वी वासिनी भद्रा ‘सम्मुख’ कहलाती है। कुंभ कर्कद्वये मृत्र्ये स्वर्गेज्ब्जेज्जात्रयेऽलिगे। स्त्री धनुर्जूकन क्रेऽधो भद्रा तत्रैव तत्फलम्।। मुहूत्र्त चिंतामणि।।
- द्वितीय पक्ष के समर्थकों द्वारा मेष, वृष, कर्क तथा मकर के चंद्रमा में स्वर्गलोक, सिंह, वृश्चिक, कुंभ तथा मीन के चंद्रमा में पृथ्वी लोक और मिथुन, कन्या, तुला तथा धनु के चंद्रमा में भद्रा का वास पाताल लोक में बताया गया है। ‘‘मेष मकर वृष कर्कट स्वर्गे, कन्या मिथुन तुला धन नागे। कुंभ मीन अलिके सरिमृत्यौ विचरति भद्रा त्रिभुवन मध्ये।।’’ - तृतीय पक्षानुसार मेष, कर्क, तुला और मकर राशिगत चंद्र संचार में भद्रा स्वर्ग लोक, कन्या, धनु, कुंभ तथा मीन राशिगत चंद्र रहने पर पाताल और वृषभ, मिथुन, सिंह, तथा वृश्चिक राशिगत चंद्र संचार होने पर भद्रा पृथ्वी लोक में निवास करती है। प्रस्तुत संदर्भ में ‘जयोतिर्वद भरणम’ का श्लोक निम्न है- ‘‘रसातलस्था तिमि-कार्मुकांगना-घट स्थिते राजनि भूमिगा भवेत्। द्विरेफ-गो-द्वंद-न खायुधानुगे, विष्टिर्दिवस्था ननु शे षराशिगे।।’’ भद्रा का वास ‘भूर्लोकस्था सदा त्याज्या स्वर्ग पातालगा शुभा’’ के अनुसार कृत्याकृत्य के उद्देश्य से स्वर्ग निवासिनी, पाताल निवासिनी भद्रा समस्त कार्यों में शुभदायी (प्रशस्त) तथा पृथ्वी वासिनी भद्रा समस्त कार्यों की नाशक और कष्टप्रद होती है।
भद्रा का अंग विभाग: भद्रा का अंग विभाग मुहूत्र्त प्रकाश के निम्न श्लोक पर आधारित है। ‘‘मुखे पंच गलेत्वेका वक्षस्येकादश स्मृताः। नाभौ चतस्त्रः षट् श्रौणो तिस्त्रः पुच्छाख्य नाडिकाः।। मुखे कार्य हानिर्गले प्राण नाशौ हृदि द्रव्य नाशःकालिनाभिदेशे। कटावर्थ विघ्न सनं पुच्छा भागे जयश्चेति भद्रा शरीरे फलं स्यात्।।’’ अर्थात भद्रा की आरंभिक 5 घटियां मुख, पुनः 1 घटी गले की, 11 घटी वक्ष की, पुनः 4 घटियां नाभि की, 6 घटियां कटि (कमर) की तथा अंतिम 3 घटियां पुच्छ की हैं। मुख की 5 घटियों में समस्त शुभ कार्यों का क्रियान्वयन नष्ट होता है। गले की एक घटी मृत्युकारक है, और वक्ष की ग्यारह घटियां दरिद्रता कारक, कटि की छह घटियां मलिनताकारक तथा नाभि की 4 घटियां कार्य नाशक बताई गई हैं। मात्र अंतिम तीन घटियां (पुच्छ) कार्य को सिद्ध करने वाली होती हैं।
कुछ विद्वानों ने दशमी व अष्टमी की प्रथम 5 के उपरांत एकादशी और सप्तमी के पीछे की 12, तृतीया और पूर्णिमा के बाद की 10 तथा चतुर्दशी और चतुर्थी की अंतिम 3 घटियों में भद्रा का पुच्छ बताया है। भद्रा के मुख की मात्र 5 घटियां ही त्याज्य कही गई हैं। शुक्ल पक्ष में चतुर्थी के आठवें प्रहर की अंतिम तीन घटियां भद्रा के पुच्छ की हैं और अष्टमी के प्रथम प्रहर की अंतिम 3 घटियों को कुछ विद्वानों ने भद्रा के पुच्छ की घटियां बताया है। इसी क्रम में एकादशी के छठे प्रहर की अंतिम तीन तथा पूर्णिमा के तृतीय प्रहर की अंतिम तीन घटियां भद्रा के पुच्छ की स्वीकृत हैं। कृष्ण पक्ष में तृतीया के सप्तम प्रहर की, सप्तमी को द्वितीय प्रहर की अंतिम, दशमी को पंचम प्रहर की तथा चतुर्दशी के चतुर्थ प्रहर की अंतिम तीन घटियां मात्र ही शुभ कार्यों में प्रशस्त होती हैं।
भद्रा का उद्भव: भद्रा के उद्भव से संबंधित ‘श्रीपति’ का निम्न श्लोक ग्रंथों में उपलब्ध है। मूलक्र्षे शूलयोगे रवि दिन दशमी फाल्गुन कृष्णा याता विष्टिर्निशायां प्रभवति नियतं शंकर पहिचांगे।।’’ अर्थात फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि रविवार को मूल नक्षत्र, शूलयोग में रात्रि समय भद्रा का उद्भव भगवान शंकर के शरीर से हुआ। भद्रा की मुख दिशा: भद्रा का मुख चतुर्दशी में पूर्व, अष्टमी में अग्नि कोण, सप्तमी में दक्षिण, पूर्णिमा में नैर्ऋत्य, चतुर्थी में पश्चिम, दशमी में वायव्य, एकादशी में उत्तर तथा तृतीया में ईशान कोण की ओर रहता है। भद्राकाल में उसके मुख की तरफ वाली दिशा में यात्रा वर्जित है, मात्र पुच्छ वाली दिशा (विपरीत) में यात्रा फलप्रद तथा सिद्धि दायक बताई गई है। भद्रा का परिहार: स्वीकार्यता की दृष्टि से भद्रा के कुछ परिहार वाक्य (उपाय) विभिन्न मुहूर्त ग्रंथों में उपलब्ध हैं, जिनका विश्लेषण अध्ययन योग्य है- - तिथि के पूर्वार्द्ध अर्थात प्रथम तीस घटियों में होने वाली भद्रा का रात्रि में दोष नहीं होता।
इसी प्रकार तिथि के उत्तरार्द्ध अर्थात पिछली तीस घटियों में व्याप्त भद्रा यदि दिन में हो तो आवश्यक कार्य में त्याज्य नहीं होती - ‘‘तिथेः पूर्वार्द्धजा रात्रौ दिने भद्रा परार्द्धजा। भद्रा दोषो न तत्र स्यात्कार्येत्वावश्यके सति’’ गर्ग।। - ‘ब्रह्मयामल’ का मत है कि दिन की भद्रा यदि रात्रि में तथा रात्रि की भद्रा दिन में हो तो वह अशुभ न होकर सिद्धि दायक होती है। देखिए: ‘‘दिवा भद्रा यदा रात्रौ-रात्रि भद्रा यदा दिवा। न तत्र भद्रा दोषः स्यात्सा भद्रा भद्रदायिकी।।’’ वृहददैवज्ञ रंजन।। - ‘चण्डेश्वर’ का मत है कि शुक्ल पक्ष की भद्रा ‘वृश्चिक’ तथा कृष्ण पक्ष की भद्रा ‘सर्पिणी’ संज्ञक है। इसके अनुसार सर्प संज्ञक भद्रा के मुख की 5 और वृश्चिक संज्ञक के पुच्छ की 3 घटियों का काल समस्त शुभ कार्यों को दूषित करने वाला है।
‘‘सर्पिणी च सिते पक्षे वृश्चिकी च सितेतरे। सर्पिणी मुखतो त्याज्या लांगूले वृश्चिकी त्यज्येत।।’’ कई आचार्यों के मत से दिन की भद्रा को सर्पिणी तथा रात्री की भद्रा को वृश्चिकी भी कहा गया है- ‘‘दिवा सर्पिणी रात्रौ वृश्चिकी चापरे जगः’’ - शीघ्र बोध का मत है कि कृष्ण पक्ष में सप्तमी और चतुर्दशी की तथा शुक्ल पक्ष में अष्टमी और पूर्णिमा की पूर्व दल भद्रा दिन संज्ञक है- यदि यह रात्रि में पड़ जाए। शुक्ल पक्ष में चतुर्थी-एकादशी, कृष्ण पक्ष में तृतीया-दशमी की पर दल भद्रा रात्रि संज्ञक है। यदि यह दिन में पड़ जाए तब इसका दोष नहीं होता अपितु ऐसी भद्रा सुखप्रद होती है।
Û ऋषि ‘भृगु’ का निम्न वाक्य भद्रा अनूठा परिहार (उपाय) प्रस्तुत करता है। ‘‘सोमे शुक्रे च कल्याणी शनौ चैव तु वृश्चिकी गुरु पुण्यवती ज्ञेया चान्यवारेषु भद्रका।।’’ अर्थात चंद्रवार तथा शुक्रवार की भद्रा कल्याणकारी, शनिवार तथा रविवार की वृश्चिकी तथा गुरुवार की भद्रा पुण्य प्रदान करने वाली होती है। इसके अतिरिक्त अन्य वारों में व्याप्त भद्रा अशुभ फल प्रदान करने वाली होती है। परिहार में विशेष: भद्रा वस्तुतः शुभ मुहूर्तों मंे अति दूषित काल के रूप में परिभाषित है और किसी भी शुभ कार्य के क्रियान्वयन में इसे स्वीकार्य नहीं कहा गया है तथापि जो वाक्य इसके परिहार स्वरूप उपलब्ध हैं, उनका अनुसरण अत्यंत आवश्यकता और अपरिहार्य परिस्थितियों मात्र में ही किया जाना चाहिए। अर्थात जब भद्रा के परिहार बिना भी शुभ काल उपलब्ध हो रहा हो तब परिहार वाक्यों के प्रयोग से बचना चाहिए तथा भद्रा रहित शुभ काल ही मात्र ग्रहण किया जाना चाहिए। भद्रा के परिहार वाक्यों की व्याख्या में ‘पीयूषधारा’ कार का मत है- ‘‘तस्मात्शुभ कार्याणां भद्रा रूप दुष्ट दिन-व्यतिरिक्त काल प्रतीक्षायोग्यत्वे तदैव कार्यं, न दुष्ट दिने अबाधे नोपपत्तौ बाधौ न न्याय्यः, इति न्यायाद् वचनस्य निषेध एवं तात्पर्यच्च।
अवश्य कत्र्तव्यस्य तु शुभ कर्मणः कालांतरः-प्रतीक्षा मसहमानस्य एवमादि पहिार माश्रित्य दुष्ट दिने कृतिरूचितैव।।’’ सारांश यह कि यदि शुभ कार्य हेतु भद्रा से दूषित समय से रहित काल (भद्रा से अव्याप्त काल) की प्रतीक्षा की जा सकती हो तब ऐसे भद्रा रहित काल में ही अभीष्ट शुभ कार्य करने चाहिए, न कि परिहार आधारित भद्रा के दूषित काल में। परिहार वाक्यों का आश्रय तो मात्र उन कार्यों में प्रायोगिक कहा गया है जहां अभीष्ट कार्य योजना अनिवार्य और शीघ्र करना अपेक्षित हो अथवा उसके लिए विलंब की गुंजाइश न हो। भद्रा में कृत्याकृत्य: यद्यपि समस्त मुहूर्त ग्रंथों में एकमत से भद्राकाल में शुभ कार्यों का स्पष्ट वर्जन निर्धारित है तथापि इस काल में कृत्याकृत्य का निर्धारण मुख्यतः निम्न वाक्यों पर आधारित है- - वृहस्पति का कथन है कि भद्रा में वध, बंधन, विष, अग्नि, शस्त्र छेदन, शत्रु का उच्चाटन आदि निन्दित कार्य तथा घोड़ा, महिष एवं ऊंट आदि का दमन करना शुभदायक होता है- ‘‘वध-बंध विषागन्य स्त्रच्छेदनोच्चाटनादियत्। तुरंग महिषोष्ट्रा विकर्म विष्टया तु सिद्धयति।।’’ - आचार्य लल्ल के अनुसार युद्ध, राज दर्शन, भयप्रद घात तथा हठ, चिकित्सक के आगमन और शत्रु उच्चाटन सहित हाथी, मृग, ऊंट तथा धनादि के संग्रहादि जैसे कार्यों में भद्रा सदैव ग्रहण योग्य है- ‘‘युद्धे भूपति दर्शने भयप्रद धाते च पाते हठे वैद्यस्यागमने शत्रो समुच्चाटने।
गज मृगोष्ट्रा श्वादिके संग्रहे स्त्री सेवायां भद्रा सदा गृह्यते।।’’ - भृगु का मत भी इन्हीं के सदृश है। ”विवादे शत्रुहनने भयार्थे राजदर्शने। इक्षुदंडे तथा प्रोक्ता भद्रा श्रेष्ठा विधियते’’ के रूप में विवाद, शत्रु दमन, राज दर्शन तथा दंडादि देने जैसे कार्यों में भद्रा द्वारा आक्रांत काल शुभ माना गया है। - इसके अतिरिक्त सभी मुहूर्त ग्रंथों ने विवाह, जातक संस्कार, दैनिक कृत्यों के क्रियान्वयन तथा कार्यारंभ जैसे कार्यों में अन्य कुयोगों के समान ही भद्रा काल को सदा त्याज्य घोषित किया है- ‘‘वर्जयेद्वार वेलां च गण्डांतं जन्मभं तथा भद्रां क्रकचयोगं च तिथ्यंतं यमघंटकं दग्धातिथि च भांत च कुलिकं विर्वजयेत।।’’ खगोलीय दृष्टिकोण से भद्रा आकाश का एक निश्चित भाग (अंश) होता है जो पृथ्वी के भ्रमण तथा घूर्णनवश कभी पृथ्वी के नीचे अधः कपाल में, कभी ऊपर ऊध्र्व कपाल में और कभी के समानांतर स्थित रहता है। सामान्य धारणा यह है कि करण तिथि का आधा मान होता है।
अर्थात जैसे प्रत्येक तिथि निर्माण में सूर्य-चंद्र के भोगांशों में परस्पर 12 अंश का अंतर अपेक्षित होता है, वैसे ही करण निर्माण में इन भोगांशों का अंतर 6 अंश होना आवश्यक है। किंतु जैसा कि विदित है वेदांगकालीन तथा जैन ग्रंथों में करण दिन और रात्रि के आधार पर विस्तारित किए गए हैं। अथर्ववेदीय ज्योतिष ‘आर्थवण’ अध्यात्म ज्योतिष ग्रंथों में यह मान्यता सिद्धांतकालीन 6 अंश पर आधारित नियम से सर्वथा भिन्न है। भद्रा में वर्जनीय कार्य: - रक्षा बंधन: प्रति वर्ष मनाया जाने वाला यह राष्ट्रीय त्योहार श्रावण मास की पूर्णिमा को आता है। इस श्रावणी (उपाकर्म) का बहुत बड़ा महत्व है। जहां एक ओर बहनें अपने भाइयों की कलाई में राखियां बांधती हैं और भाई उनकी रक्षा का वचन देते हंै वहीं दूसरी ओर ब्राह्मण अपने अपने यजमानों को और गुरु अपने शिष्यों को रक्षासूत्र बांधकर शुभाशीर्वाद देते हैं।
ब्राह्मण नया यज्ञोपवीत धारण करते हैं और आध्यात्मिक एवं भौतिक तत्वों के ज्ञाता, मनीषी, ऋषि-मुनि, तपस्वी, साधु-संत उपाकर्म करके नव ज्ञान, नवीन अन्वेषण, अध्ययन की ओर अग्रसर होते हैं। अतः ऐसे उत्तम पवित्र दिन में ये सभी शुभ कार्य भद्राकाल में करने का पूर्ण निषेध रहता है। ”श्रावणी (उपाकर्म) भद्रोपरि रक्षाबंधनं शुभम्।“ - होलिका-दहन: फाल्गुन मास की पूर्णमासी को यह राष्ट्रीय त्योहार बड़े उल्लास के साथ प्रति वर्ष संपूर्ण देश में मनाया जाता है। इस पर्व को भी भद्रा के दोष काल में मनाने का ज्योतिषीय दृष्टिकोण से पूर्ण निषेध रहता है। तात्पर्य यह कि होलिका-दहन का कार्य भद्रा रहित अवधि में ही किया जाए। जलती होली की अग्नि में जौ, गेहूं और चने की बालों को भूना जाता है।
इस कार्य को नवान्नेष्टि यज्ञ कहते हैं जिसे संपादित करने से कृषकों को बैकुंठ की प्राप्ति होती है। अतः एकम तिथि, चतुर्दशी तिथि, भद्रा युक्त पूर्णिमा और दिन के समय होलिका-दहन करना पूर्णतः वर्जित है, अन्यथा राजा को नेष्ट। भद्रा में कार्य एवं दोष निवृत्ति के उपाय: कौरवों और पांडवों के बीच जो महाभारत का युद्ध हुआ उस समय धर्मराज युधिष्ठिर के प्रश्न करने पर भगवान श्री कृष्ण ने उत्तर देते हुए कहा था, ”छायासूर्यसुतेदेवि विष्टिरिष्टार्थदायिनी। पूजितासी यथा-शक्त्या भद्रेभद्रप्रदा भवः“ अर्थात विष्टि रवि भार्या छाया से उत्पन्न शनिश्चर भगिनी है जो थोड़े से पूजन-अर्चन से संसार के प्राणियों का अनिष्ट दूर कर उनका भला करती है। यदि कोई भी व्यक्ति प्रातः समय उठकर भद्रा के द्वादश नामों का उच्चारण करे तो उसे बीमारी नहीं सताएगी। रोगी रोग से मुक्त हो जाता है। ग्रह अपनी प्रतिकूलता छोड़कर अनुकूल हो जाते हैं।
विघ्न-बाधा शांत हो जाती है। युद्ध में, राजकुल में, द्यूत में सर्वत्र विजय मिलती है। भद्रा के बारह नाम निम्न हैं। - धन्या, दधिमुखी, भद्रा, महामारी, खर-आनना, कालरात्रि, महारुद्रा, विष्टि, कुलपुत्रिका, भैरवी, महाकाली, असुर-क्षयकरी - मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार भद्रा को मध्याह्न काल पश्चात शुभ माना गया है। - जो स्वर चले सोई डग दीजे, भरणी भद्रा एक न लीजे। - पूरब-गौधूली, पश्चिम-प्रात, उत्तर-दोपहर दक्षिण-रात। का करे भद्रा, का दिशा शूल, कह भड्डरी सब चकनाचूर।। - प्रविसि नगर कीजै सब काजा। हृदय राखि कौसल पुर राजा।। - प्रत्येक पंचांग और कैलेंडर में भद्रा के प्रारंभ होने व समाप्त होने का समय उल्लिखित रहता है। उसका अनुसरण करते हुए निज-कार्य में प्रवृत्त होना चाहिए। - इसी तरह पंचांग, समाचार पत्र, दूरदर्शन आदि के माध्यम से दैनिक चंद्र स्थिति ज्ञात कर भद्रा वास का निरूपण करते हुए अपने कार्य/यात्रादि आरंभ कर सकते हैं बशर्ते चंद्रमा कर्क, सिंह, कुंभ और मीन राशियों में न हो।
Û दिशा का निरूपण करते हुए भी स्व कार्य हेतु यात्रारंभ कर सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि किसी को कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि के पूर्वार्द्ध काल में उत्तर दिशा की यात्रा करनी हो, तो उसके लिए ऐसा भद्रा वाला दिन दोषकारक नहीं रहेगा क्योंकि कृष्ण पक्ष की सप्तमी वाली भद्रा का वास दक्षिण दिशा में होता है। उत्तर दिशा गामी के लिए दक्षिण दिशा उसकी पीठ पीछे रहेगी। पीठ पीछे की भद्रा शुभ मानी जाती है। - भद्रा वाले दिन भद्रा के पुच्छकाल को ज्ञात कर, जो ज्योतिष शास्त्रानुसार 24.24 मिनट की तीन घटियों अर्थात 72 मिनट अर्थात 1 घंटे 12 मिनट का समय होता है, उस काल में आवश्यक कार्य कर सकते हैं बशर्ते ऐसे पल आपके लिए अनुकूल हों।
Û रात्रि-दिन के भेद से भद्रा की संज्ञा ज्ञात कर भद्रा वाले दिन में यात्रारंभ/कार्यारंभ कर सकते हैं। - स्वर्ग और पाताल में वास करने वाली भद्रा का 67 प्रतिशत समय पूर्ण भद्राकाल में से शुभ है, इसमें कार्य कर लें। - शनिवासरीय वृश्चिकी भद्रा को छोड़कर देखें तो दिन के हिसाब से 85.7 प्रतिशत भद्रा शुभ रहती है। - गोधूलि बेला संपूर्ण कार्यों हेतु प्रशस्त व ग्राह्य है। इसमें अशुभ तिथि, नक्षत्र या करण का दोष नहीं लगता। - यात्रारंभ में ‘रवि को ताम्बूल, सोम को दर्पण, मंगल गुड़धनिया चर्वण, बुध्ध मिठाई गुरु को राई शुक्र कहै मोहि दही सुहाई शनि को बायविरंगहि खावे, इन्द्रहि जीति नर घर को आवे।’ - कुलगुरु, पुरोहित की आज्ञानुसार दोष शांति आदि के उपरांत भद्राकाल में कार्य करना सोच सकते हैं।