ज्योतिष द्वारा रोग निर्णय
ज्योतिष द्वारा रोग निर्णय

ज्योतिष द्वारा रोग निर्णय  

गोपाल कृष्ण गोयल
व्यूस : 19983 | जनवरी 2009

नमामि धन्वन्तरिमादि देवं सुरासुरैर्वन्दिते पदमद्मम्। लोके जरा रूग्भयमृत्युनाशं धातारमीशं विविधौषधीनम्।। भगवान धन्वन्तरि को नमन करने के साथ-साथ मैं उन अष्टादश ज्योतिषशास्त्र प्रवर्तक आयार्चों को भी नमन करता हूं जिनका उल्लेख काश्यप मुनि ने इस प्रकार किया है- सूर्यः पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। कश्यपो नारदो गर्गो मरीचिर्मनुर¯िराः।। लोमशः पोलिशश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः। शौनकोऽष्टादशाश्चैते ज्योतिषशास्त्र प्रवर्तकाः।। यह सारा ब्रह्मांड पंच महाभूतों का बना है। इन्हीं पंच महाभूतों से मानव शरीर की रचना होती है। शरीर में तीन धातुओं कफ, पित्त और वायु का समावेश है जिनके असंतुलन से हम रोगग्रस्त और संतुलन से स्वस्थ होते हैं।

सर्वेषामेव रोगाणां निनं कुपिताः मलाः’’। सूर्य, चंद्रादि ग्रहों का प्रभाव भूमंडल के सभी जीवों, वनस्पतियों, पेड़-पौधों तथा जड़ और चेतन पदार्थों पर पड़ता है। उसी प्रकार, विभिन्न नक्षत्रों और अग्नि, वायु, जल तथा पृथ्वी तत्व राशियों का प्रभाव भी उनके गुणानुसार समस्त भूमंडल पर पड़ता है। ज्योतिष का उक्त सभी तत्वों से गहरा संबंध है अतः इसके सिद्धांतों के विश्लेषण से विभिन्न शारीरिक और मानसिक रोगों का पूर्वानुमान, उनकी पहचान तथा समय रहते उनका निदान संभव है। उŸारकालामृत के अनुसार ‘‘भावपतेश्च काकवशात तत् तत् फलं योजयेत’’। किसी अंग विशेष और रोग से संबंधित भाव, भाव के स्वामी और कारक ग्रह के विश्लेषण से रोग के विषय में फल कथन किया जा सकता है।


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यदि भाव और भावेश पापी हों और उसका कारक पाप स्थान में हो या पाप ग्रह से युत या दृष्ट हो तो उस भाव से संबंधित अंग रोग से पीड़ित होगा। भाव और रोग प्रथम भाव: शिरो रोग, मानसिक रोग, नजला, दिमागी कमजोरी, शारीरिक एवं मानसिक अक्षमता। द्वितीय भाव: मृत्यु, नेत्र रोग, कर्ण रोग, मुख रोग, नासा रोग, दंत रोग। तृतीय भाव: गले की खराबी, गंडमाल, श्वास कास, दमा, हाथ के रोग, फेफड़े के रोग। चतुर्थ भाव: छाती, हृदय और पसलियों के रोग, पागलपन। पंचम भाव: मंदाग्नि, अरुचि, पित्तज रोग, जिगर, तिल्ली, गुर्दे तथा पेट के रोग। षष्ठ भाव: प्रमेह, मधुमेह, प्रदर, उपदंश, अपेंडिक्स, हर्निया, आंतों की बीमारी, कमर दर्द। सप्तम भाव: प्रमेह, मधुमेह, प्रदर रोग, उपदंश, गर्भाशय के रोग, वस्ति प्रदेश के रोग। अष्टम भाव: गुप्त रोग, वीर्य विकार, अर्श, भगंदर, उपदंश, संसर्ग जन्यरोग, मूत्रकृच्छ। नवम् भाव: मासिक धर्म, जिगर दोष, रक्त विकार, वायु विकार, मज्जा रोग, कूल्हे का दर्द। दशम भाव: गठिया, कंपवात तथा अन्य वात रोग, चर्मरोग, घुटने का दर्द। एकादश भाव: पैर में चोट, पैर की हड्डी टूटना, पिंडलियों में दर्द, रक्त विकार, शीत जन्य विकार। द्वादश भाव: एलर्जी, कमजोरी, नेत्र विकार, पोलियो, रोग प्रतिरोधक क्षमता की कमी। इसी प्रकार जब राशियां छठे भाव में हों, छठे भाव के स्वामी से युक्त या दृष्ट हों, पापाक्रांत हों तो जातक को विभिन्न रोग होते हैं।

विभिन्न राशियों का अशुभ स्थिति में होने वाले रोगों का संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है। राशि और रोग मेष: पित्त ज्वर, गर्मी के रोग, हाजमे संबंधी रोग, सिर या दिमाग के रोग, कृशता, नेत्र रोग, सिर दर्द, तनाव, उन्माद, अनिद्रा। वृष: त्रिदोष जन्य रोग, गले व श्वास नली के रोग। मिथुन: दमा, हाथ के रोग, रक्त विकार, फेफड़े के रोग। कर्क: पागलपन, उन्माद, अरुचि, फेफड़े के रोग जैसे टी.बी., प्लूरिसी, छाती की बीमारियां, दिल के रोग, रक्त विकार। सिंह: फोड़ा, ज्वर, वन्य पशु या शस्त्र आघात, पेट के रोग, हृदय के रोग, वायु विकार। कन्या: पेड़ू के रोग, स्त्रियों को कोख के रोग तथा अन्य गुप्त रोग दिवास्वप्न, पूर्वाभास, जिगर व तिल्ली के रोग, आमाशय के रोग, कमर दर्द।

तुला: मनिंजाइटिस, सन्निपात, वीर्य विकार, क्लीवता, मधुमेह, प्रदर रोग, बहुमूत्र। वृश्चिक: संग्रहणी, पांडुरोग, जिगर व तिल्ली के रोग, दंश, फोड़े, विष, अर्श, भगंदर, संक्रामक रोग। धनु: शस्त्र से चोट, लकड़ी या पेड़ से चोट, जलाघात, जांघ के रोग, घुटनों के रोग, जिगर दोष, ऋतु विकार, अस्थिभंग, रक्त विकार। मकर: पेट शूल, एपेंडिसाइटिस, पेट का अल्सर अरुचि, मन्दाग्नि, बुद्धिभ्रम, नर्वस ब्रेक डाउन, असामान्य रक्तचाप, चर्म रोग, वात रोग। कुंभ: क्षय, खांसी, मोतीझारा, आंत के रोग, पिंडली या टखने के रोग, जलोदर, ऐंठन, गर्मी। मीन: जलीय रोग, एलर्जी, चर्म रोग, रक्त विकार, आंव, गठिया, आमवात, ग्रंथि रोग।


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ग्रहों के विषय में रोग का विचार निम्न प्रकार से करना चाहिए:

1. षष्ठ भाव,

2. षष्ठ भावेश व उसके साथ बैठा ग्रह,

3. षष्ठ भाव में बैठा ग्रह,

4. अष्टम भाव या द्वादश भाव में बैठा ग्रह तत्संबंधी रोग देता है

5. अन्यथा पीड़ित ग्रह,

6. अति निर्बल ग्रह,

7. क्रूर षष्ठ्यांश में स्थित ग्रह,

8. अवरोही ग्रह,

9. मारक ग्रह,

10. निर्बल लग्नेश,

11. निर्बल लग्नस्थ ग्रह। ऊपर वर्णित ग्रहों के विचार से जो रोग दो तीन प्रकार से बन रहा हो, वह रोग जातक को होता है। रोग निर्णय के लिए लग्न कुंडली और चंद्र कुंडली दोनों देखनी चाहिए। विभिन्न ग्रहों की अशुभ स्थिति के फलस्वरूप होने वाले रोगों का विवरण इस प्रकार है।

सूर्य: पित्तज बुखार, पित्त विकार, शरीर में जलन, हृदय रोग, नेत्र रोग, पेड़ू या कोख के रोग, तेजहीनता, हड्डियों में दर्द, सिर या दिमाग के रोग, अस्थिक्षय, मूच्र्छा, रक्तस्राव में अनियमितता। चंद्र: निद्रा (अनिद्रा या अतिनिद्रा) रोग, सोते हुए चलना, आलस्य, संग्रहणी, पूय रोग, शीतज्वर, पीलिया, मानसिक रोग, पागलपन, अरुचि, मंदाग्नि, मतिभ्रम, जल या स्त्रियों से भय, बालारिष्ट, मकर आदि जानवरों से भय, स्तन के रोग, लिंफेटिक ग्लैंडुलर रोग, पांडु रोग, क्षय, प्रदर रोग। मंगल: अग्नि, विष, शस्त्र से भय, पित्त ज्वर, तृषा, कुष्ठ, फोड़ा-फुंसी, अपस्मार, शत्रु भय, नासिका रोग, स्नायु रोग। बुध: चर्म रोग, मतिभ्रम, नासिका रोग, गला व वाक् रोग नाड़ी मंडल के रोग, पीलिया, दुःस्वप्न, त्रिदोष जन्य रोग, जीभ, पेट और फेफड़े के रोग, श्वास नालिका रोग, मूच्र्छा, हिस्टीरिया, न्यूमोनिया, गलगंड, मंद बुद्धि। गुरु: मांस संबंधी रोग जैसे गुल्म, रसौली, अर्बुद, कैंसर, मधुमेह, आंत्रपुच्छ, कर्णरोग, मतिमंदता, कब्जरोग, मोटापा, गुर्दे व जिगर के रोग, तनाव, दंत रोग, जांघ के रोग। शुक्र: मूत्र संबंधी रोग, प्रमेह, वीर्य विकार, रक्ताल्पता, उपदंश, रुक्षता, नामर्दी, कफ, प्रदर रोग, प्रर्वर्सन। शनि: वात रोग, टांग के रोग, थकान, आंत के रोग, मोतीझारा, उदर रोग, अतिचिंता, मतिभ्रम, फूहड़पन, बालों के रोग, गलन, सूजन, स्राव, दुर्गंध आना, आलस्य, अपच, तेजाब से हानि, घुटनों के रोग, मज्जा रोग। राहु: कोढ़, दुर्मति, विषाक्तता, सर्पभय, अकारण भय, भ्रांति जलन, वैर, वैमनस्य, विलगता, चर्मरोग, स्पर्श के रोग, चेचक, लंबी बीमारी, जिसका निदान मुश्किल हो कैंसर जैसे असाध्य रोग। केतु: सुस्ती, अकर्मण्यता, चोट, जटिल रोग, अलर्जी, प्रतिरोधक शक्ति का हास, एड्स, सैप्टिक, हृदयगति रुकना कीटाणुजन्य रोग।


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परंपरागत ज्योतिष में उक्त 9 ग्रहों का ही विश्लेषण किया जाता है। दूरतम होने के कारण हर्षल, नेपच्यून व प्लूटो की गणना नहीं की जाती। किंतु इन ग्रहों के मानव शरीर पर पड़ रहे प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। इन तीनों ग्रहों के कुप्रभाव से होने वाले रोगों का संक्ष्प्ति विवरण इस प्रकार है। हर्षल: शारीरिक एवं मानसिक रोग, हाथ एवं पिंडलियों के रोग, रक्तविकार। नेपच्यून: कमजोर स्वास्थ्य, मस्तिष्क रोग।

प्लूटो: मानसिक रोग। ग्रहों के अतिरिक्त विभिन्न उपग्रहों, धूमों (धूम व्यतिपात, परिघ, इंद्रचाप एवं उपकेतु) और गुलिकादि (गुलिक एवं मांदी) के कुप्रभाव के फलस्वरूप भी जातक मानसिक रोग से पीड़ित होता है। अवरोही- जो ग्रह अपने परमोच्च एवं परमनीच के बीच की 6 राशियों में से किसी में भी स्थित हो वह अवरोही कहलाता है।

अवरोही ग्रह की दशा को अवरोहिणी कहते हैं तथा प्रत्येक ग्रह की अवरोहिणी दशा के समय रोग की उत्पति होती है। अतः अवरोही ग्रह रोग कारक माना जाता है। क्रूर षष्ठ्यांश में स्थित ग्रह- प्रत्येक राशि में 60 षष्ठ्यांश होते हैं। इन 60 षष्ठ्यांशों के स्वामियों के नाम इस प्रकार हैं- 1. घोर, 2. राक्षस, 3. देव, 4. कुबेर, 5. यक्षोगण, 6. किन्नर 7. भ्रष्ट, 8. कुलध्न, 9. गरल, 10. अग्नि, 11. माया, 12. यम 13. वरुण, 14. इंद्र, 15. कला, 16. सप्र, 17. अमृत, 18. चंद्र, 19. मृदु, 20. कोमल, 21. पद्म, 22. विष्णु, 23. गुरु, 24. शिव, 25. देव, 26. आर्द्र, 27. कलिनाश, 28. क्षितीश, 29. कमलाकार, 30. मंदात्मज, 31. मृत्युकर, 32. काल, 33. दावाग्नि, 34. घोरा, 35. अधम, 36. कंटक, 37. सुधा 38. अमृत, 39. पूर्णचंद्र, 40. विषदग्ध, 41. कुलनाश, 42. मुख्य, 43. वंशक्षय, 44. उत्पादक, 45. काल, 46. सौम्य, 47. मृदुष्ट, 48. सुशीतल, 49. दंष्ट्राकाल, 50. इंद्रमुख, 51. प्रवीण, 52. कालाग्नि, 53. दंडायुध, 54. निर्मल, 55. शुभाका, 56. अशोधन, 57. शीतल, 58. सुध, समुद्र, 59. भ्रमण, 60. इंदुरेखा।

विषम राशियों में षष्ठ्यांश के स्वामियों की गणना घोर से इंदुरेखा तक यथा क्रमेण तथा समग्र राशियों में षष्ठ्यांश के स्वामियों की इंदुरेखा से घोर तक व्युत्क्रम से की जाती है। उक्त 60 षष्ठ्यांशों के स्वामियों मंे से जिनके नाम शुभ हैं, उन्हें शुभ षष्ठ्यांश तथा जिनके नाम क्रूर हैं उन्हें क्रूर षष्ठ्यांश कहते हैं। क्रूर षष्ठ्यांश में स्थित ग्रह की दशा में रोग होते हैं अतः क्रूर षष्ठ्यांश में स्थित ग्रह रोग कारक कहलाते हैं।


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भावों, राशियों और ग्रहों की तरह ही नक्षत्रों के कुप्रभाव से भी मानव शरीर पर रोग की दृष्टि से अपना प्रभाव रखते हैं जिनका विवरण अगले पृष्ठ पर दिया जा रहा है। नक्षत्र और रोग अश्विनी- सिर में चोट, घाव, वात शूल, मूर्छा, मस्तिष्क में रक्त संचय, मिर्गी, आधा सीसी का दर्द पक्षाघात, मस्तिष्क ज्वर, मस्तिष्कीय रक्तस्राव आत्मविस्मृति अनिद्रा, मलेरिया, चेचक। भरणी- सिर या मस्तक पर नेत्रों के निकट चोट, रतिरोग, सूजाक, चर्मरोग, ठंड, कंपन, ज्वर, गर्मी से चेहरा व दृष्टि प्रभावित।

3.(अ) कृत्तिका- 1 चरण रोग- तीव्र ज्वर, मलेरिया, प्लेग, चेचक, खसरा, मस्तिष्क ज्वर, दुर्घटना, घाव, चोट, अग्नि, दुर्घटना, फाइलेरिया, विस्फोट से दुर्घटना।

(ब) कृत्तिका- 2,3,4 चरण रोग- मुहांसे, चोट, रक्तनेत्र, नेत्रसूजन (आंखंे आना), गले के रोग टांसिल बढ़ना, गर्दन में सूजन व अकड़न, नाक में पाॅली पस, फोड़े, फुंसी, चक्कर आना, घुटने में ट्यूमर।

4. रोहिणी- गले सूजन, घेघा, शीत ज्वर, ठंड, कफ, ज्वर, पैरों में दर्द, सिर में दर्द, छाती में दर्द, स्त्रियों के मासिक धर्म में अनियमित, सूजन, कुक्षिशूल, रक्त स्राव।

5.(अ) मृगशिरा- 1,2 चरण रोग- मुहांसे, चेहरे पर चोट, गले में सूजन, दर्द, गलफेड़े, कान के पीछे गांठे, नाक में पाॅलीपस, गलघोंटू, रतिरोग, खांसी-जुकाम, कब्ज, मल-मूत्रावरोध।

(ब) मृगशिरा- 1,2,4 चरण रोग- रक्त दोष, खुजली, साइटिका, भुजाओं में घाव या फ्रैक्चर, कंधांे में दर्द, गुप्तांगों में रोग, हृदय की बाहरी झिल्ली में सूजन।

6. आद्र्रा- गले में खराबी, गलफेड़े, दमा, सूूखी खांसी, गलघांेटू, श्वांस के रोग, कान के रोग।

7.(अ) पुनर्वसु- 1,2,3 चरण रोग- निमोनिया, फ्लूरोसी, कान में सूजन व दर्द, फेफड़ों में कष्ट, घेघा, क्षय रोग, रक्तविकार, कमर दर्द, सिरदर्द, ज्वर, ब्रोंकाइटिस, हृदय की बाहरी झिल्ली की सूजन।

(ब) पुनर्वसु- 4 चरण रोग- क्षयरोग, निमोनिया, कफ-कास, रक्तविकार, बेरी-बेरी, जलशोथ, आमाशय मंे सूजन, अनियमित भूख, श्वास नली मंे सूजन, पीलिया।

8. पुष्य- क्षय, कैंसर, पीलिया, पायरिया, गजचर्म (एग्जीमा), स्कर्वी, मितली, आमाशय में छाले, श्वास नलिका में घाव, पिŸााशय में पथरी।

9. अश्लेषा- वात रोग, श्वास विकार, जलशोथ, अपच, पीलिया, घबराहट, उन्माद, स्नायु दौर्बल्य, कफज रोग, उदर विकार, गुर्दों की सूजन, घुटनों व पैरों में दर्द।

10. मघा- हृदयाघात, पीठ दर्द, मेरुरज्जु की झिल्ली में सूजन, हैजा, दिल का ज्यादा धड़कना, मूच्र्छा, किडनी में पथरी, त्रिदोषों में असंतुलन, मानसिक रोग।

11. पूर्वाफाल्गुनी- गर्भपात, हृदय में सूजन, हृदय रोग, वाल्व में खराबी, मेरुदंड में बल पड़ना, रक्ताल्पता, रक्तचाप, नाड़ीदोष, टांगांे में दर्द, टखने में सूजन।

12.(अ) उŸारा फाल्गुनी-1 चरण रोग- पीठ व सिर में दर्द, वात-विकार, प्लेग, खसरा, रक्तचाप, मोतीझारा, मूच्र्छा, मानसिक रोग। (ब) उŸारा फाल्गुनी- 2,3,4 चरण रोग- आंत्रशोथ, आमाशय के रोग, गले व गर्दन में सूजन और दर्द, यकृत विकार, पैŸिाक ज्वर।

13. हस्त- गैस बनना, पेट दर्द, आंत्रशोथ, मंदाग्नि, अफरा, हैजा, आंतज्वर, पेचिश, श्वास रोग, आंतों में कीड़े, स्नायुशूल, उन्माद।

14.(अ) चित्रा- 1,2 चरण रोग- पेट में घाव, तीव्र दर्द, कीड़े, पेट में खुजली, टांगों में दर्द, कीड़ों, सर्पों व जंगली जानवरों के काटने से घाव, हैजा, मूलविकार, पथरी।


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(ब) चित्रा- 3,4, चरण रोग- गुर्दे व ब्लैडर में सूजन, बहुमूत्र रोग, पथरी, सिरदर्द, मस्तिष्क ज्वर, कमर दर्द, लू लगना।

15. स्वाति- मूत्ररोग, मूत्रनली में छाले या मवाद, चर्मरोग, कोढ़, श्वेत दाग, बहुमूत्र रोग, गुर्दों के रोग।

16.(अ) विशाखा- 1,2,3 चरण रोग- गर्भाशय डायबिटीज, बेहोशी, गुर्दे के रोग, इंसुलिन की कमी, चक्कर आना।

16.(ब) विशाखा- 4 चरण रोग- गर्भाशय के रोग, प्रोस्टेट वृद्धि, मूत्ररोग, अधिक रक्तस्राव, गुर्दे में पथरी, घाव व मवाद, जलोदर। 1

7. अनुराधा- मासिक धर्म में अनियमितता एवं रक्तस्राव में रुकावट, दर्द, बंध्यत्व, कब्ज, सूखी बवासीर, कूल्हे की हड्डी का फेक्चर, गले में दर्द, कफ, नजला।

18. ज्येष्ठा- श्वेतप्रदर, खूनी बवासीर, रतिरोग, प्रजननांग संबंधी रोग, भुजाओं व कंधों में दर्द, ट्यूमर।

19. मूल- कटिवात, गठिया, कमरदर्द, श्वास रोग, निम्न रक्तचाप, मतिभ्रम।

20. पूर्वाषाढ़ा- गठिया, कटिवात, साइटिका, मधुमेह, प्रमेह, अफारा, फेफड़ों में कैंसर, श्वास रोग, घुटनों में सूजन, शीत प्रकोप, रक्त विकार, धातुक्षय।

21.(अ) उŸाराषाढ़ा- 1 चरण रोग- साइटिका, गठिया, कमरदर्द, पक्षाघात, उदरदर्द, चर्मरोग, नेत्ररोग, श्वसन संबंधी रोग। (ब) उŸाराषाढ़ा- 2,3,4 चरण रोग- गैस, एग्जीमा, चर्म रोग, कोढ़, श्वेत कुष्ठ, गठिया, हृदयरोग, अनियमित धड़कन, पाचन असंतुलन।

22. श्रवण- गजचर्म (एग्जीमा) रोग, कोढ़ फोड़े, गठिया, क्षयरोग, फ्लूरोसी, अतिसार, संग्रहणी, अपच, फाइलेरिया।

23.(अ) धनिष्ठा- 1,2 चरण रोग- पैरों में चोट, अपंगता, फोड़े ,हिचकी, मितली, सूखी खांसी।

(ब) धनिष्ठा- 3,4 चरण रोग- टांगों में फ्रैक्चर, रक्तविकार, रक्तोष्णता, धड़कन में अनियमितता, मूच्र्छा, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, स्नायु गुच्छ रोग।


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24. शतभिषा- टांग में फ्रैक्चर, अपंगता, गठिया, हृदय रोग, गजचर्म (एग्जीमा), कोढ़, उच्च रक्तचाप।

25.(अ) पूर्वाभाद्रपद- 1,2,3 चरण रोग- निम्न रक्तचाप, टखनों में सूजन, दिल का आकार बढ़ जाना, जलशोथ। (ब) पूर्वाभाद्रपद- 4 चरण रोग- पैरों में सूजन, पैरों में गांठंे, लीवर वृद्धि, आंतरोग, हर्निया, पीलिया, अतिसार।

26. उŸाराभाद्रपद- गठिया, पैर में फ्रैक्चर, अपच, कब्ज, हर्निया, जलोदर, क्षयरोग, उदरवात।

27. रेवती- पैरों में ऐंठन व दर्द, पैरों की विकृति, आंतों में छाले, बहरापन, कानों में मवाद, गुर्दे में सूजन, थकान। द्रेष्काण द्वारा अंग एवं तत्संबंधित रोग निदान- द्रेष्काण एक राशि के तृतीय भाग को कहते हैं।

अतः एक राशि के तीन द्रेष्काण हुए। राशि 300 की होती है इसलिए पहला द्रेष्काण 00-100 दूसरा, 100-200 तथा तीसरा 200-300 का होता है। उदित द्रेष्काण (प्रथम, द्वितीय या तृतीय) के आधार पर शरीर को तीन भागों में बांट कर लग्न आदि भावों के माध्यम से किस अंग में रोग, घाव, चोट, गांठ आदि का विचार किया जाता है।

यदि लग्न में प्रथम द्रेष्काण हो तो लग्न आदि शिर से मुख तक के विभिन्न अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लग्न शिर का, द्वितीय एवं द्वादश भाव क्रमशः दाहिने एवं बायें कान का, चतुर्थ एवं दशम भाव क्रमशः दाहिने एवं बायंे नथुने का, पंचम एवं नवम भाव क्रमशः दाहिने एवं बायें गाल का, षष्ठ एवं अष्टम भाव क्रमशः दाहिने एवं बायें गाल का, षष्ठ एवं अष्टम क्रमशः ठोड़ी के दाहिने एवं बायें भाग का तथा सप्तम भाव मुख का प्रतिनिधित्व करता है।

यदि लग्न मंे द्वितीय द्रेष्काण हो तो लग्नादि भाव कंठ से नाभि तक के विभिन्न अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यथा- लग्न कंठ का, द्वितीय एवं द्वादश भाव क्रमशः दाहिने एवं बायंे हाथ का, चतुर्थ एवं दशम क्रमशः दाहिनी एवं बायीं बगल का, पंचम एवं नवम क्रमशः हृदय के दाहिने एवं बायें भाग का, षष्ठ एवं अष्टम भाव क्रमशः हृदय (वक्ष) के दाहिने एवं बांये भाग का षष्टम एवं अष्टम क्रमशः पेट के दाहिने एवं बायंे भाग का तथा सप्तम नाभि का प्रतिनिधित्व करता है। यदि लग्न में तृतीय द्रेष्काण हो तो लग्न आदि भाव वस्ति से पैर तक के विभिन्न अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।


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यथा लग्न वस्ति का, द्वितीय एवं द्वादश भाव क्रमशः लिंग और गुदा का, तृतीय एवं एकादश क्रमशः दाहिने एवं बायें ऊरु का, पंचम एवं नवम क्रमशः दाहिने एवं बायें घुटने का, षष्ठ एवं अष्टम क्रमशः दाहिनी एवं बायीं जंघा का तथा सप्तम भाव पैर का प्रतिनिधित्व करता है। रोगों का वर्गीकरण- रोग दो प्रकार के माने गए हैं। 1. जन्मजात 2. आगंतुक अपंगता, कुबड़ापन, अंधत्व, काणत्व, मूकता, बंध्यत्व, नपुंसकता, जड़ता आदि जन्मजात रोगों की श्रेणी में आते हैं। इन रोगों का विचार जन्मकुंडली तथा गर्भाधान कुंडली से किया जाता है।

दुर्घटना, चोट, घात, महामारी आदि आगंतुक रोगों की श्रेणी में आते हैं। इस प्रकार के रोगों का विचार षष्ठ स्थान से किया जाता है। इस प्रकार के मानसिक रोगों में षष्ठेश का संबंध चतुर्थ भाव व चंद्रमा से रहता है। अदृष्टिनिमिŸा जन्य रोग वे रोग हैं जिनका कारण प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता तथा जो पूर्वार्जित कर्मों के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं। इन रोगों की जानकारी बाधक ग्रहों के विश्लेषण से प्राप्त की जा सकती है। लग्न भाव का बाधक ग्रह समस्त शरीर को प्रभावित कर सकता है।

भाव विशेष का बाधक स्थान भाव के द्वारा इंगित अंग में रोग प्रदान करता है। ज्योतिष में रोग निदान के कुछ आवश्यक सूत्र- जन्म कुंडली में जिस भाव में पाप ग्रह की स्थिति, युति या दृष्टि हो उस भाव संबंधित अंग में रोग या पीड़ा होती है। जन्म कुंडली में भाव 4,7,8 या 12 में यदि चंद्र हो तो रोगी और वैद्य दोनों के लिए होता है। सूर्य, मंगल या शनि जिस भाव में हो, उस भाव वाले अंग में या उस भाव में जो राशि हो, उस राशि वाले अंग में रोग होता है। सूर्य, मंगल या शनि से दृष्ट होने से चर्म रोग तथा कांति को हानि पहुंचाने वाले रोग होते हैं। सूर्य पापयुत या पापदृष्ट हो तो चर्म रोग तथा कांति को हानि पहुंचाने वाले रोग होते हैं। छठे भाव का सूर्य रक्त, पिŸाजनित रोग, ज्वर, अग्नि, चोट एवं नेत्र रोग देता है। छठे भाव में अन्य राशियों में सिर में चोट द्वारा घाव देता है। यदि जातक महिला हो तो कुंडली के सप्तम भाव का सूर्य प्रदर रोग या गर्भपात करा देता है।

चंद्र यदि पापयुत या दृष्ट तथा पाप राशिस्थ हो, तो जातक को मानसिक रोग होता है। षष्ठ भावस्थ चंद्र यदि स्वगृही हो तो जातक की मृत्यु नदी, तालाब या कुएं में डूबने से हो सकती है। चंद्र की इस स्थिति के फलस्वरूप मुख में घाव, छाले पड़ना, खाते समय जीभ कट जाना, हलक में काग बैठ जाना आदि रोग देता है। मंगल पाप राशि युत या दृष्ट हो तो जातक रक्त रोग से ग्रस्त होता है। षष्ठेश मंगल छठे भाव में हो तो गले में चोट, मस्तक पीड़ा, नकसीर, टांसिल, नेत्ररोग, मनोवैकल्य आदि की संभावना रहती है। बुध पापयुत या पापदृष्ट हो अथवा पापराशि में स्थित हो तोे जातक को कुष्ठ, क्षय एवं शोथ रोग होते हैं। मंगल बुध से युत या दृष्ट हो तो गलित कुष्ठ रोग होता है। गुरु यदि पापयुत या पापदृष्ट हो अथवा पापराशि में स्थित हो तो मनोरोग से ग्रस्त होता है। सूर्य और चंद्र एक साथ हांे या एक दूसरे को देखते हों तो भी मनोरोग होता है। षष्ठेश गुरु यदि छठे भाव में हो तो आंतों का रोग होता है। कैंसर, प्रमेह, ट्यूमर, रसौली, आदि रोग तभी करता है जबकि मंगल अष्टम स्थान में हो या गुरु को देखता हो। पीनस रोग भी यही योग करता है। यही योग मनुष्य को शराबी भी बना देता है। शुक्र पापयुत, पापदृष्ट तथा पाप राशि में होने से श्ुाक्र संबंधी रोग देता है।


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षष्ठेश शुक्र छठे भाव में हो या षष्ठेश भी हो किंतु छठ, सातवें, आठवें भाव में दूषित हो तो मनुष्य को गुप्त रोगी देता है। प्रमेह, वीर्यपात, पेशाब की बीमारियां, शुगर, धातुस्राव, धातुक्षीण्ता, प्रेमजन्य रोग होते हैं, आंखों में जाला, फूला तथा शुक्र काना करके ही छोड़ता हैं। छठे या सातवें भाव का शनि वात कफ श्वास प्रमेहादि रोग उत्पन्न करता है। पैरों में गठिया, जोड़ों का दर्द तथा पैर के तलुओं में पीड़ा होती है।

राहु-केतु जब 6,7,8,12 वें स्थान में हो तो मनुष्य को उलझन में डाल देने वाली बीमारियां उत्पन्न करते हैं। सिर दर्द, अफरा, वायु गोले का दर्द, बगलों में गांगन, आंख में गुहेरी हाथों में सूजन, जिगर में खराबी, तिल्ली का बढ़ जाना आदि रोग होते हैं। लग्नेश और षष्ठेश का संबंध मनुष्य को रोग विशेष से चिन्तित करता है। सूर्य, मंगल, शुक्र, शनि गोचर में जब एक ही स्थान में हो तो मनुष्य अवश्य रोगी होता है। ज्वर, सन्निपात, पलेग वगैरह तभी होते हैं जब मंगल-शनि शुभ दृष्टि से रहित हो कर रोग कारक बनें। गुरु से चिंता रूपी रोग होता है। और गुरु पापग्रह के साथ होकर रोग का कारण बनता है तब संग्रहणी, शोथ, अतिसार रोग होता है।

शुक्र मंगल से युत व दृष्ट होने से वीर्य विकृत हो जाता है। शुक्र यदि जल राशि में हो तो बहुमूत्र का कष्ट होता है। जन्म राशि में मंगल, शनि, राहु, या केतु स्थित हो तो शरीर में पीड़ा, हृदय रोग, स्त्री कष्ट, बंधु सुख में कष्ट होता है। शनि, मंगल, बुध एवं गुरु ये चारों साथ हों, चतुर्थ भाव में शुक्र हो तथा दिन में जन्म हो, तो जातक लूला होता है। शनि एवं मंगल दोनों षष्ठ भाव में राहु भाग्यांश हों, तो जातक लूला होता है।

मीन, वृश्चिक मेष, कर्क, या मकर राशि में पापग्रहों के साथ चंद्रमा एवं शनि हो, तो जातक लगड़ा होता है। शनि एवं षष्ठेश ये दोनों बारह वें भाव में और इन पर पापग्रहों की दृष्टि हो, तो जातक पंगु होता है। यदि लग्नेश मेष या वृश्चिक राशि चतुर्थभाव के नवांश में हो, तो जातक कुबड़ा होता हैं। लग्न में मंगल का द्रेष्काण हो और उस पर पापग्रहों की दृष्टि हो तो गर्भस्थ शिशु का सिर नहीं होता है। पंचम भाव में मंगल का दे्रष्काण हो और उस पापग्रहों की दृष्टि हो तो गर्भस्थ बालक के हाथ नहीं होता है। नवम भाव में मंगल का द्रेष्काण हो तथा उस पर पापग्रहों की दृष्टि हो तो गर्भस्थ शिशु के पैर नहीं होते हैं। आधान लग्न में बुध या शनि हो और उस पर पापग्रहों की दृष्टि हो, तो हाथ-पैर रहित पिण्डाकर बालक का जन्म होता है।


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कर्क, वृश्चिक या मीन राशि में स्थित बुध को अमावस्या का चंद्रमा देखता हो तो जातक गूंगा होता है। धनेश एवं गुरु दोंनों त्रिक स्थान में हों, तो जातक गूंगा होता है। शनि से चतुर्थ में बुध तथा षष्ठेश त्रिक स्थान में हो, तो जातक बहरा होता है। विषम राशि में स्थित सूर्य एवं चंद्रमा एक दूसरे को देखता हो, तो भी नपुंसकता का योग होता है। लग्न में सूर्य 12 वें भाग में चंद्रमा तथा त्रिकोण स्थान में मंगल हो, तो जातक जन्मजात जड़ होता है। दशम भाग में रवि तथा चतुर्थ में मंगल हो, तो पत्थर से चोट लगती है। राहु एवं शनि के साथ चतुर्थेश हो तथा उस पर मंगल की दृष्टि हो तो पत्थर से चोट लगती है। सप्तम या एकादश भाव में राहु हो तो काठ या लाठी से चोट लगती है।

एकादश स्थान में सूर्य एवं मंगल हांे, तो शस्त्र से चोट लगती है। प्रश्न कुंडली द्वारा रोग एवं उसकी अवधि का ज्ञान- लग्नेश जिस भाव में हो उस भाव से संबंधित अंग रोगग्रस्त होता है। चंद्र जिस राशि में हो उस राशि से संबंधित अंग में बीमारी होती है। षष्ठेश और सप्तमेश जिस राशि में स्थित हों उससे संबंधित अंग रोगग्रस्त होता है।

2. निम्नलिखित ग्रह स्थितियों में रोगी शीघ्र स्वस्थ्य होता है। यदि लग्नेश के साथ शुभ ग्रहों से दृष्ट कंेद्र में स्थित चंद्र का इत्थसाल हो। यदि लग्नेश और केवल शुभ ग्रहों से दृष्ट केंद्र में स्थित चंद्र और वक्री सप्तमेश सूर्य और अष्टमेश के प्रभाव से मुक्त हों। यदि चंद्र लग्न में चर या द्विस्वभाव राशि में हो और लग्नेश शुभ ग्रहों से दृष्ट हो या चंद्र चैथे या दशम भाव में अपनी ही राशि में हो या उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो शुभ ग्रहों के साथ लग्नेश का इत्थसाल हो। चंद्र अपनी राशि में हो और उसका शुभ ग्रहों के साथ इत्थसाल हो। भाव 4 या 7 में स्थित चंद्र या सूर्य शुभ ग्रहों से दृष्ट हो।

यदि लग्नेश अष्टमेश से बली हो। यदि लग्न, पंचम, सप्तम या अष्टम भाव में शुभ ग्रह हो। भाव 3,6,10 या 11में स्थित चंद्र शुभ ग्रहों से दृष्ट हो। यदि उक्त भावों में अशुभ ग्रह हों तो मृत्यु की संभावना रहती है। यदि लग्नेश और दशमेश मित्र हों रोग का सही उपचार होगा और रोगी स्वास्थ्य लाभ करेगा। अन्य रोग बढ़ेंगे। लग्न में स्थित एक बली ग्रह रोगी की रक्षा करता है। भाव 3,6,9 या 11में अशुभ ग्रह हों तो रोग पूर्वजों से विरासत में मिला है। षष्ठेश और अष्टमेश के बीच परिवर्तन हो तो ऐसी स्थिति शीघ्र लाभ करेगा।

3. विलंब से स्वास्थ्य लाभ यदि भाव 8, 9 या 12 में अशुभ ग्रह हों या लग्न में चंद्र या शुक्र हो या लग्नेश स्वगृही मंगल के साथ स्थित हो तो स्वास्थ्य लाभ विलंब से होता है।


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यदि मंगल लग्न या 12वें भाव में हो तो अत्यंत कष्ट के बाद स्वास्थ्य लाभ होता है। यदि लग्नेश लग्न में या 12वें भाव में हो या अष्टमेश केंद्र में हो और लग्नेश भाव 6,8 या 12 में हो तथा चंद्रमा निर्बल हो तो स्वास्थ्य लाभ में विलंब होता है। यदि चंद्र का वक्री ग्रह के साथ इत्थसाल हो तो रोग चिरकालिक होता है। यदि लग्नेश छठे में और षष्ठेश लग्न में हो तो स्वास्थ्य लाभ विलंब से होता है।

4. रोग दोबारा हो जाना यदि चंद्र की राशि में वक्री ग्रह हों तो गलत औषधि के कारण रोग हो जाता है। यदि चैथे या 7वें भाव में वक्री ग्रह हों तो स्वास्थ्य लाभ में विलंब होता है।

रोग के निदान के लिए कौलक (षष्ठांश) का प्रयोग- महर्षि जैमिनी के अनुसार कौलक का प्रयोग बीमारी का पता न लगने देने वाली बुरी आत्माओं तथा शेष आयु का पता लगाने के लिए किया जाता है। कौलक एक राशि (300) के छठे भाग को कहते हैं। हरेक द्रेष्काण में 5-5 अंश के दो कौलक होते हैं। विषम राशियों में इनकी गिनती मेष से कन्या तक तथा सम राशियों में तुला से मीन तक होती है।

कौलक प् प्प् प्प्प् प्ट ट टप् अंश 0.50 50.100 50.150 150.200 200.250 250.300 विषम राशि 1 2 3 4 5 6 समराशि 7 8 9 10 11 12 कौलक के विषय में ध्यान रखने योग्य बातें

1. प्रत्येक द्रेष्काण में 5-5 अंश के दो कौलक होते हैं।

2. पहला कौलक (0-50) बुरी आत्माओं के प्रभाव और अंदरूनी बीमारियों का प्रतिनिधित्व करता है।

3. दूसरा कौलक (50-100) बुरी आदतों के प्रभाव और बाह्य बीमारियों का प्रतिनिधित्व करता है।

4. गणना इस प्रकार होती है विषम राशियों के लिए गिनती भचक्र के अनुसार सत्य होगी। सम राशियों के लिए गिनती भचक्र के अनुसार अपसत्य होगी। यदि किसी कौलक में राहु/केतु स्थित हों तो क्रम उल्टा हो जाएगा। तात्पर्य यह कि विषम राशियों के लिए क्रम भचक्र से अपसत्य तथा सम राशियों के लिए भचक्र से सत्य क्रमानुसार होगा।

5. अंदरूनी बीमारियां, जो पहले कौलक (0-50) से संबद्ध हैं, इस प्रकार हैं- बीमारी किसी आंतरिक अंग से संबंध रखती हो। बुरी आत्माओं के प्रभाव या बीमारियां जिनका कारण अज्ञात हो। इनमें वे बीमारियां भी शामिल हैं जो पंचम्, अष्टम व बाधक स्थान से संबंध होने के कारण हुई हांे। वंशानुगत बीमारियां।

6. बाह्य बीमारियां, जो दूसरे कौलक (50.100) से संबद्ध हैं, इस प्रकार हैं- खान-पान में असंयम के तथा विषमय भोजन के कारण हुई बीमारियां। ऐसी बीमारियां, जिनका कारण ज्ञात हो तथा जो शत्रुओं द्वारा उत्पन्न की हुई स्थिति के कारण हुई हों। इनमें वे बीमारियां भी आती हैं जिनका संबंध छठे और नौवें भावों से हो। दुर्घटना के कारण हुई बीमारियां। बीमारियों का कारण ज्ञात करने के लिए अन्य वर्ग चक्रों का प्रयोग भी करना चाहिए। रोग का निदान करने के लिए द्वादशांश का प्रयोग: एक राशि के बारहवें भाग को एक द्वादशांश कहते हैं। इसकी गणना सभी राशियों में विचारणीय राशि से ही आरंभ की जाती है।


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राशि सम हो या विषम, गिनती वहीं से शुरू की जाती है। एक द्वादशांश 20-300 का होता है। द्वादशांश तथा द्रेष्काण का घनिष्ठ संबंध है। हरेक द्रेष्काण में 20-30’ के चारों द्वादशांश होते हैं। हरेक दे्रष्काण का पहला द्वादशांश उसी राशि का होता है, जिसका कि द्रेष्काण। शेष द्वादशांश लगातार सव्यक्रम में होते हैं। द्वादशांश वर्गचक्र द्वादश भाव के फलों की सूक्ष्मता से व्याख्या करता है।

द्वादश भाव त्रिक स्थान है, अतः कष्टकारी होता है। लंबी बीमारी का विचार यहीं से किया जा सकता है। अतः इस वर्गचक्र का रोग निदान में खूब प्रयोग होता है। चिकित्सा ज्योतिष में उक्त कष्टों के अतिरिक्त अन्य कष्ट भी देखे जाते हैं। मान्यता यह भी है कि बीमारी जब राशिचक्र तथा नवांश चक्र से पकड़ में नहीं आती हो तब द्रेष्काण तथा द्वादशांश कुंडलियों की सहायता लेनी चाहिए। उदाहरण कुंडली-पुरुष लग्न 12ः03’ः50’’ सूर्य 9ः53ः05 चंद्र 15ः45ः03 मंगल 12ः03ः40 बुध 29ः11ः57 गुरु 03ः34ः16 शुक्र 1ः18ः23 शनि 0ः48ः53 राहु 22ः55ः45 केतु 22ः55ः45 उदाहरण कुंडली 1 जन्म लग्न कंुडली में मंगल तथा राहु तृतीय भाव में विद्यमान है, अतः तृतीय भाव पर पाप प्रभाव है जो कि फेफड़े, श्वास नलिका संबंधी तकलीफ की ओर इशारा करता है।

जब जातक की राहु की दशा शुरू हुई तो जातक के म्ेपदवीपसपे बवनदज बढ़ गए और जातक को म्ेपदवचीपसपं रोग हो गया। जन्मांग में नौवंे भाव में केतु विद्यमान है जिस पर मंगल, राहु और शनि की दृष्टि है। नौवां भाव दिल के बायीं ओर का प्रतिनिधित्व करता है। जातक के दिल की शल्य क्रिया शनि/चंद्र की दशा/अंतर्दशा में हुई। नवांश चक्र में देखें तो केतु चतुर्थ भाव में बैठकर इस भाव को और कर्क राशि को पापाक्रांत कर रहा है। चतुर्थ भाव और कर्क राशि दोनों हृदय का प्रतिनिधित्व करते हैं। केतु चर राशि में है इसलिए जातक को प्रभावित कर रहा है।

जातक की व्चमद भ्मंतज ैनतहमतल हुई। दे्रष्काण चक्र को अगर देखें तो लग्न में द्वितीय द्रेष्काण (120ः03’ः50’’) उदित हो रहा है जो चर राशि (मकर) का है। द्रेष्काण लग्न में केतु, बृहस्पति और चंद्र स्थित हैं तथा यह ‘भोग’ द्रेष्काण है जो रजस है, मनुष्य है। इसके देवत ब्रह्मा और ऋषि दुर्वासा हैं। ये पुरुष द्रेष्काण हैं जो सौम्य श्रेणी के हंै। द्वितीय द्रेष्काण का उदय होना गले से नाभि के बीच के किसी रोग संकेत देता है। द्वादशांश चक्र को देखें तो अष्टमेश सूर्य, राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी होकर सप्तम भाव में स्थित है तथा पंचम भावस्थ शनि से दृष्ट है।


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चतुर्थ भाव राहु से दृष्ट है। चंद्र तथा मंगल की युति है। कंुभ राशि में केतु शनि से दृष्ट है। यहां हम देखते हैं कि चतुर्थ तथा पंचम भाव एवं सूर्य व चंद्र पाप प्रभाव में हैं। यह हृदय रोग का सूचक है। जातक के हृदय की शल्य चिकित्सा हुई। सप्तम व अष्टम भाव पापाक्रांत हैं। शुक्र पर अष्टम भाव से राहु की दृष्टि है। शुक्र की तुला राशि भी केतु से दृष्ट होकर पाप प्रभाव में है। यही तुला राशि मंगल से भी दृष्ट है, अतः पाप प्रभाव हुआ। उधर शुक्र पहले ही राहु से दृष्ट है। यह प्रोस्टेट गं्रथि (पौरुषग्रंथि) के रोग की ओर इंगित करता है।

जातक की पौरुष गं्रथि की शल्य क्रिया हुई। कौलक (क्16,षष्ठांश) के अनुसार कुंडली का रोग निदान इस कुंडली में चंद्र 150ः45’ः30’’ का है अर्थात् यह अपने द्रेष्काण के द्वितीय कौलक में हुआ जो सम राशि में है। इसलिए चंद्र प्रथम कौलक (0-50) के फल देगा अर्थात् आंतरिक अंग से संबंधित कोई रोग होगा। मंगल 120ः03’ः40’’ का है अर्थात् यह अपने द्रेष्काण के प्रथम कौलक में है और सम राशि में है। इसलिए मंगल द्वितीय कौलक के फल अर्थात् बाह्य अंग के रोग की सूचना दे रहा है। शनि 60ः48‘ः53’’ का है अर्थात् यह अपने द्रेष्काण के द्वितीय कौलक तथा सम राशि में है, इसलिए प्रथम कौलक के फल अर्थात् आंतिरिक अंग की बीमारी का संकेत देता है।

राहु/केतु 220ः55‘ः45’’ के हैं अर्थात् अपने द्रेष्काण के प्रथम कौलक तथा सम राशि में हैं, इसलिए दोनों जातक के प्रथम कौलक से संबद्ध अर्थात् आंतरिक अंग की बीमारी के सूचक हैं। ऊपर वर्णित तथ्यों के अनुसार शनि, राहु, केतु तथा चंद्र प्रथम कौलक के फल देंगे। जातक को राहु/राहु की दशा में म्ेपदवचीपसपं हुआ। इस दशा का प्रभाव जातक के फेफड़ों पर पड़ा जो आंतरिक अंग हैं। शनि/चंद्र की दशा में जातक की व्चमद भ्मंतज ैनतहमतल की हुई। दोनों ग्रह शनि राहु-चंद्रमा प्रथम कौलक के फल दे रहे हैं। शनि/मंगल की दशा मंे जातक की पौरुष ग्रंथि की शल्य क्रिया हुई जो सफल रही किंतु मंगल और राहु की युति के कारण खून बहुत निकला और जातक का जीवन बहुत मुश्किल से बच पाया। मंगल पर बुध, शुक्र और गुरु की राशि दृष्टि है।

अतः जातक को प्रथम तथा द्वितीय दोनों कौलकों के फल मिले। नक्षत्र के अनुसार यदि देखें तो उदाहरण कुंडली के जातक का जन्म हस्त नक्षत्र में हुआ। वह मंदाग्नि एवं उदर विकार ग्रस्त है। उदाहरण कुंडली 2 - रोगग्रस्त गुर्दे को निकालना। लग्न 260 16’, सूर्य 150 42’, चंद्र 10 24’, मंगल 160 07’, बुध 200 01’, गुरु 240 53’, शुक्र (व) 290 14’, श (व) 11029’, राहु 80 41’, केतु 80 41’ यह मेष लग्न की कुंडली है। इस लग्न के लिए शनि पापी ग्रह है। वक्री शनि की दृष्टि लग्न पर है, इसलिए पाप प्रभाव तीव्रतर है। गुरु द्वादशेश होकर लग्न में बैठा है तथा उस पर पापी शनि की दृष्टि है। बुध तृतीय व षष्ठेश होने से पाप प्रभाव दे रहा है। बुध की युति क्रूर ग्रह सूर्य के साथ है तथा यह राहु केतु अक्ष में है। नवांश में शनि राहु तथा सूर्य से पाप कर्तरी में है। गुरु-षष्ठेश मंगल से दृष्ट है। दे्रष्काण में मारक स्थान में स्थित होने के कारण शनि मारक हुआ। यह राहु-केतु अक्ष में भी है। गुरु भी राहु-केतु अक्ष में है। गुरु पर शनि तथा मंगल की दृष्टि भी है।

द्वादशंाश में शनि लग्नेश है तथा उस पर सूर्य तथा मंगल की दृष्टि भी है। गुरु नीच का होकर द्वादश में स्थित है और द्वितीयेश होने के कारण मारक भी है। अष्टमेश बुध और शनि के बीच राशि परिवर्तन है अतः इन दोनांे में संबंध है। जातक का शनि/गुरु/बुध में ( 6 जनवरी 1996 से 16 मई 1996 तक) आप्रेशन हुआ और जातक का गुर्दा निकाला गया। नोट-

1. इस जन्म पत्री में एक बात विशेष है कि गुरु के अंश लग्न के अंशों के बहुत करीब हंै, इसीलिए गुरु अपने 4 वर्गों के अंदर लग्न में ही है। किंतु वह द्वादशांश में ही द्वादश भाव में है अतः जातक का बचाव कर रहा है।

2. दूसरी विशेष बात है कि तीनों पापी ग्रह (सूर्य, राहु व शनि) तृतीय तथा एकादश भाव में हैं। हालांकि शनि वक्री है फिर भी आप्रेशन के पश्चात् जातक शीघ्र ही स्वस्थ हो गया।


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3. केतु की प्रत्यंतर दशा भी अशुभ नहीं है क्योंकि केतु नवम भाव में है और गुरु द्वारा दृष्ट है। मधुमेह निदान के ज्योतिषीय योग- किसी व्यक्ति को मधुमेह तब होता है, जब लीवर ग्लूकोज का चयापचय करना बंद कर देता है अर्थात् शरीर ग्लूकोज से ऊर्जा लेना बंद या कम कर देता है। ग्लूकोज का बनना जब कम हो जाता है तब व्यक्ति को डायाबेटिक मेलिटस की बीमारी होती है। लीवर और अग्न्याशय दोनों ही पेट के ऊपरी भाग में स्थित हैं और यह क्षेत्र पंचम भाव के अधिकार क्षेत्र में आता है। गुरु ग्रह लीवर तथा अग्न्याशय के एक भाग का तथा शुक्र अग्न्याशय के शेष भाग का कारक है। शुक्र का शरीर की हार्मोन प्रक्रिया पर आधिपत्य है। इसलिए गुरु, शुक्र और पंचम भाव का विचार मधुमेह के ज्योतिषीय निदान के लिए किया जाता है। इसी प्रकार का विचार जिगर के रोग के निदान के लिए भी किया जाता है

किंतु उसमें शुक्र को शामिल नहीं किया जाता। अब ज्योतिषीय योगों का विश्लेषण प्रस्तुत है।

1. गुरु जब नीच का हो या भाव 6,8,12 में हो।

2. शनि और राहु जब गुरु पर युति या दृष्टि द्वारा पाप प्रभाव डाल रहे हों।

3. गुरु अस्त होकर राहु-केतु के अक्ष में हो।

4. शुक्र छठे भाव में स्थित हो तथा गुरु 12 वें भाव से उस पर दृष्टि डाल रहा हो।

5. पंचमेश की युति यदि षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश से हो।

6. गुरु वक्री हो तथा भाव 6,8 या 12 में स्थित होकर पाप प्रभाव में हो। नोट- मधुमेह एक ऐसी बीमारी है जो शरीर द्वारा ळसनबवेम की शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाता और वह ळसनबवेम खून में अधिक मात्रा में हो जाता भ्ंतउवदम की कमी के कारण होता है जिसे प्देनसपद कहते हैं।

यह भ्ंतउवदम पैंक्रियाज ग्रंथि द्वारा उत्पन्न किया जाता है और यह शरीर द्वारा इसे प्रयोग करने में मदद देता है। जब शरीर में प्देनसपद की कमी हो जाती है, शरीर में ळसनबवेम का स्तर बढ़ जाता है और शरीर का हर अंग इस कारण बुरी तरह प्रभावित होता है और अंधा तक हो सकता है। उदाहरण कुंडली 3 जन्म तिथि- 27.3.1911, समय 20ः01ः01, दिल्ली लग्न 4056,’ सूर्य 13011,’ चंद्र 5053’, मंगल 170,27’, बुध 20025’, गुरु (व) 20053’, शुक्र 11048’, शनि 12049’, राहु 17033’, केतु 17033’ इस जातक को मधुमेह के बारे में 1951 में पता चला। इसका मधुमेह इतना बढ़ गया कि वह अंधा होग गया। गुरु षष्ठेश होकर तथा वक्री होकर लग्न में बैठा है जो कि राहु-केतु के अक्ष में है और शनि से दृष्ट है। शुक्र अष्टमेश होकर राहु-केतु के अक्ष में तथा शनि व मंगल के पाप प्रभाव में हैं।

शनि पंचमेश होकर राहु-केतु के अक्ष में तथा मंगल के पाप प्रभाव में है। नवांश में गुरु व शुक्र दोनों ही शनि के पाप प्रभाव में हैं। राहु केतु का अक्ष पंचम व एकादश भाव पर है। द्रेष्काण में पंचम भाव, पंचमेश व शुक्र तीनों ही राहु-केतु के अक्ष में हैं। पंचमेश शुक्र पर अष्टम भाव स्थित मंगल की दृष्टि है। शुक्र की शनि से युति है। गुरु षष्ठेश होकर पंचम भाव को देख रहा है। द्वादशांश में गुरु पंचमेश होकर अष्टम में स्थित है। शुक्र की सूर्य से युति है। पंचम भाव व पंचमेश दोनों ही शनि से पीड़ित हैं।

विंशोŸारी दशा - 28 अगस्त 1948 से 7 मई 1951 तक शनि मंे बुध की दशा चली। महादशा नाथ पंचमेश होकर पाप प्रभाव में है तथा बुध, जो अंतर्दशा नाथ है, छठे भाव में है और द्वादशेश होकर नीचस्थ है। एकादशेश सूर्य भी बुध से युत है। नवांश में बुध शनि तथा मंगल के पाप प्रभाव में है। द्रेष्काण में बुध अष्टमस्थ मंगल से दृष्ट है और द्वादशांश में राहु-केतु के अक्ष में तथा शनि से दृष्ट है। इसके पश्चात् केतु की अंतर्दशा आई जो शनि से दृष्ट है और केतु की दृष्टि भी पंचमेश शनि पर है।

नवांश और द्रेष्काण में पंचम भाव में स्थित केतु पाप प्रभाव डाल रहा है। योगिनी दशा - भ्रामरी दशा 9 मई 1950 से 9 मई 1954 तक चली। जन्म कंुडली में मंगल (महादशा नाथ) की पंचमेश शनि पर दृष्टि है। नवांश तथा द्रेष्काण में अष्टमस्थ मंगल की पंचमेश शनि दृष्टि है। द्वादशांश में मंगल कर्क अर्थात् नीच का है। अपेंडिसाइटिस अपेंडिसाइटिस एक आम बीमारी है जो एक छोटे से आप्रेशन से ठीक हो जाती है, किंतु यदि आप्रेशन समय पर न हो तो यह जानलेवा भी हो सकती है।


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ज्योतिषीय निदान- इस रोग के निदान के लिए प्राचीन ग्रंथों में किसी योग उल्लेख नहीं है, किंतु नए शोधों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वृष और मिथुन राशियों तथा शुक्र का पाप प्रभाव में होना इस रोग का एक कारण हो सकता है। इसका विचार षष्ठ भाव से किया जाता है। शुक्र का पाप प्रभाव में होना अपेंडिसाइटिस का कारण माना जा सकता है।

रोग की गंभीरता इस बात पर निर्भर करती है कि शुक्र का पाप प्रभाव में होना सूर्य के कारण है या मंगल अथवा शनि के कारण। या फिर शुक्र राहु और केतु के अक्ष के अंतर्गत है। छठे भाव और षष्ठेश की स्थिति से अपेंडिक्स की स्थिति का पता चलता है। देखना होता है कि ये दोनों पा प्रभाव में हैं या नहीं। उदाहरण कुंडली संख्या 4 इस कुंडली में वृष तथा मिथुन राशियां, छठा भाव, षष्ठेश, तथा शुक्र सभी पाप प्रभाव में हैं।

शनि वक्री है जो वृश्चिक राशि से शुक्र पर अपनी दृष्टि द्वारा पाप प्रभाव डाल रहा है। नवांश कुंडली में भी शुक्र छठे भाव में स्थित होकर सूर्य तथा षष्ठेश गुरु से दृष्ट है। द्रेष्काण कुंडली में शुक्र राहु-केतु के अक्ष तथा षष्ठेश गुरु, अष्टमेश शनि व मंगल के पाप प्रभाव में है। द्वादशांश में शुक्र द्वादश भाव में है और षष्ठेश गुरु से दृष्ट है।

राहु/शुक्र/राहु की दशा में जातक के अपेंडिक्स का आप्रेशन हुआ और वह ठीक हो गया। राहु और शुक्र (महादशा, अंतर्दशा व प्रयत्यंतर्दशा नाथ) षष्ठेश गुरु, अष्टमेश वक्री शनि और मंगल के प्रभाव में हैं। इसी काल में यदि योगिनी दशा देखें तो वह उल्का/मुद्रा (शनि और बुध) की थी। शनि वर्ग चक्रों में अष्टमेश है। जन्म कुंडली में यह छठे भाव में वक्री है जिससे यह भाव तथा शुक्र दोनों प्रभावित हैं। बुध की भी शुक्र से युति है जो राहु-केतु के अक्ष में है और मंगल, षष्ठेश गुरु और वक्री शनि से दृष्ट है।



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