पुण्यदायक है माघ मास (11 जनवरी से 09 फरवरी 2009 तक) पं. ब्रजकिशोर भारद्वाज 'ब्रजवासी' कहा गया है कि व्रत, दान और तपस्या से भी भगवान श्री हरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी माघ महीने में स्नान मात्र से होती है। इसलिए स्वर्गलाभ, सभी पापों से मुक्ति और भगवान वासुदेव की प्रीति प्राप्त करने के लिए माघस्नान करना चाहिए। भा रतीय संवत्सर का ग्यारहवां चंद्रमास और दसवां सौरमास 'माघ' महलाता है। इस महीने मघा नक्षत्र की पूर्णिमा होने से इसका नाम माघ पड़ा है। धार्मिक-आध्यात्मिक दृष्टि से इस मास का विशेष महत्व है। इस मास में प्रत्येक दिन प्रातःकाल तिल, जल, पुष्प, कुश और द्रव्य लेकर इस प्रकार संकल्प करना चाहिए- क्क तत्सत् अद्य माघे मासि अमुकपक्षे अमुकतिथिमारम्भ रविं यावत् अमुक गोत्राः अमुक शर्मा ;वर्मा/गुप्तोऽहंद्ध वैकुंठ निवास पूर्वक श्री विष्णुप्रीत्यर्थं प्रातः स्नानं करिष्ये। ;अमुक के स्थान पर संबंधित तथ्यों का उच्चारण करें।द्ध इसके बाद निम्न प्रार्थना करनी चाहिए- दुःख दारिद्र्य नाशाय श्रीविष्णो स्तोषणाय च। प्रातः स्नानं करोम्यद्य माघे पापविनाशनम्॥ मकरस्थे रवौ माघे गोविन्दाच्युत माधव। स्नानेनानेन मे देव यथोक्तफलदो भव॥ दिवाकर जगन्नाथ प्रभाकर नमोऽस्तुते। परिपूर्णं कुरूष्वेदं माघस्नानं महाव्रतम्॥ माघमासमिमं पुण्यं स्नाम्यहं देव माधव। तीर्थस्यास्य जले नित्यं प्रसीद भगवन् हरे। जल कहीं भी हो, गंगाजल के समान होता है। फिर भी प्रयाग, काशी, नैमिषारण्य, हरिद्वार, कुरुक्षेत्र तथा अन्य पवित्र तीर्थों और नदियों में स्नान का बड़ा ही महत्व है। नित्यप्रति स्नान दानादि करने से अनंत फल की प्राप्ति होती है। माघ मास के स्नान का प्रारंभ पौष मास की पूर्णिमा से होता है। यदि माघ में मलमास हो और स्नान निष्काम भाव से केवल धर्म दृष्टि रखकर किय जाए, तो उसका समापन 30 दिन में ही कर देना चाहिए और यदि सकाम भाव से किया जाए, तो दोनों माघों के 60 दिन तक स्नान करना चाहिए। स्नान का समय सूर्योदय से पूर्व श्रेष्ठ होता है। उसके बाद जितना विलंब हो उतना ही निष्फल होता है। प्रातः काल स्नान करने वाले के पास दुष्ट (भूत-प्रेत आदि) नहीं आते। इससे शरीर स्वच्छ होता है और पुण्य की प्राप्ति होती है। प्रातः काल स्नान करने वालों को सुंदर रूप, तेज, बल, दीर्घायु, आरोग्य, मेधा आदि की प्राप्ति होती है, वह लोभ से मुक्त हो जाता है और उसे दुःस्वप्न नहीं आते हैं- गुण दश स्नानपरस्य साधो। रूपं च तेजश्च बलं च शौचम्। आयुष्यमारोग्यमलोलुपत्वं दुःस्वप्न नाशश्च तपश्च मेधाः ॥ (दक्षस्मृति अ. 2/13) तीर्थों में स्नान का सुअवसर प्राप्त न हो सके तो तीर्थों का स्मरण करें अथवा ''पुष्करादीनि तीर्थानि गंगाद्यः सरितस्तथा। आगच्छन्तु पवित्राणि स्नानकाले सदा मम॥ हरिद्वारे कुशावर्ते बिल्वके नीलपर्वते। स्नात्वा कनखले तीर्थे पुनर्जन्म न विद्यते॥'' ''अयोध्या मथुरा माया कांची अवन्तिका। पुरी द्वारावती ज्ञेयाः सप्तैता मोक्षदायिकाः॥'' ''गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वति। नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरू॥'' आदि मंत्रों का उच्चारण करें। इस मास में शीतल जल के भीतर डुबकी लगाने वाले मनुष्य पापमुक्त हो कर स्वर्ग लोक जाते हैं। हरि कीर्तन के महत्व का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में लिखा है- माघ मकरगत रवि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥ देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहि सकल त्रिबेनीं। पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटुहरपहिंगाता॥ पद्मपुराण के उत्तरखंड में माघमास के माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि व्रत, दान और तपस्या से भी भगवान श्री हरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी माघ महीने में स्नान मात्र से होती है। इसलिए स्वर्गलाभ, सभी पापों से मुक्ति और भगवान् वासुदेव की प्रीति प्राप्त करने के लिए माघस्नान करना चाहिए- व्रतैर्दानैस्तपोभिश्च न तथा प्रीयते हरिः। माघमज्जनमात्रेण यथा प्रीणाति केशवः॥ प्रीतये वासुदेवस्य सर्वपापापनुत्तये। माघस्नानं प्रकुर्वीत स्वर्गलाभाय मानवः। इस माघ मास में पूर्णिमा को जो व्यक्ति ब्रह्मवैवर्तपुराण का दान करता है, उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। पुराणं ब्रह्मवैवर्त यो दद्यान्माघमासि च। पौर्णमास्यां शुभदिने ब्रह्मलोके महीयते॥ (मत्स्य पुराण 43/35) इस मास में स्नान, दान, उपवास और भगवान् माधव की पूजा अत्यंत फलदायी है। महाभारत के अनुशासन पर्व में उल्लेख है- दशतीर्थसहस्राणि तिस्रः कोटयस्तथा पराः॥ समागच्छन्ति मध्यां तु प्रयागे भरतर्षभ। माघमासं प्रयागे तु नियतः संशितव्रतः॥ स्नात्वा तु भरतश्रेष्ठ निर्मलः स्वर्गमाप्नुयात्। (महा., अनु. 25 । 36 -38) हे भरत श्रेष्ठ ! माघ मास की अमावस्या को प्रयाग राज में तीन करोड़ दस हजार अन्य तीर्थों का समागम होता है। जो नियमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करते हुए माघ मास में प्रयाग में स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर स्वर्ग में जाता है। जो माघ मास में ब्राह्मणों को तिल दान करता है, वह समस्त जन्तुओं से भरे हुए नरक का दर्शन नहीं करता- माघ मासे तिलान् यस्तु ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति। सर्वसत्वसमकीर्णं नरकं स न पश्यति॥ (महा., अनु. 66/8) जो माघ मास में नियमपूर्वक रोज एक समय भोजन करता है, वह धनवान् कुल में जन्म लेकर अपने कुटुंबजनों में श्रेष्ठ होता है। माघ तु नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्। श्रीसत्कुते जातिमध्ये स महत्वं प्रपद्यते॥ (महा. अनु. 106/21) माघ मास की द्वादशी तिथि को दिन-रात उपवास करके भगवान माधव की पूजा करने से उपासक को राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त होता है और वह अपने कुल का उद्धार करता है। अहोरात्रेण द्वादश्यां माघमासे तु माधवम्। राजसूयमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत॥ (महा. अनु. 109/5) जिन लोगों की चिरकाल तक स्वर्गलोक में रहने की कामना हो, उन्हें माघ मास में सूर्य के मकरराशि में स्थित होने पर स्नान अवश्य करना चाहिए। स्वर्गलोके चिरं वासो येषां मनसि वर्तते। यत्र क्वाप जले तैस्तु स्नातव्यं मृगभास्करे॥ इस प्रसंग में पद्मपुराण में एक बड़ी रोचक कथा आई है, जो इस प्रकार है- प्राचीन काल में नर्मदा के तट पर, सुव्रत नामक एक ब्राह्मणदेवता निवास करते थे। उन्होंने समस्त वेद-वेदांगों, धर्मशास्त्रों, गजविद्या, अश्वविद्या, मंत्रशास्त्र, सांखयशास्त्र, योगशास्त्र और चौंसठ कलाओं का अध्ययन किया था। वे अनेक देशों की भाषाएं और लिपियां भी जानते थे। इतने विज्ञ होते हुए भी उन्होंने अपने ज्ञान का प्रयोग धर्मकार्यों में नहीं किया, अपितु आजीवन धन कमाने के लोभ में ही फंसे रहे। लोभवश उन्होंने चांडाल से भी दान लेने में संकोच नहीं किया और इस प्रकार उन्होंने एक लाख स्वर्ण मुद्राएं अर्जित कर लीं। धनोपार्जन में लगे-लगे ही उन्हें वृद्धावस्था ने आ घेरा। सारा शरीर जर्जर हो गया। काल के प्रभाव से सारी इंद्रियां शिथिल हो गईं और वे कहीं आने-जाने में असमर्थ हो गए। सहसा उनका विवेक जागा। उन्होंने सोचा कि मैंने सारा जीवन धन कमाने में नष्ट कर दिया, अपना परलोक सुधारने की ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। अब मेरा उद्धार कैसे हो? मैंने तो कोई सत्कर्म किया ही नहीं। सुव्रत इस प्रकार पश्चाताप की अग्नि में दग्ध हो रहे थे। उधर रात्रि में चोरों ने उनका सारा धन चोरी कर लिया। सुव्रत को पश्चाताप तो था ही, धन के चोरी चले जाने पर उसकी नश्वरता का भी बोध हो गया। अब उन्हें चिंता थी तो केवल अपने परलोक की। व्याकुलचित्त हो वे अपने उद्धार का उपाय सोच रहे थे कि उन्हें यह आधा श्लोक स्मरण हो आया। माघे निमग्नाः सलिले सुशीते विभुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति॥ सुव्रत को अपने उद्धार का मूल मंत्र मिल मिल गया। उन्होंने माघ-स्नान का संकल्प लिया और चल दिए नर्मदा में स्नान करने। इस प्रकार वे नौ दिनों तक प्रातः नर्मदा के जल में स्नान करते रहे। दसवें दिन स्नान के बाद वे अशक्त हो गए और शीत से पीड़ित हो उन्होंने प्राण त्याग दिए। यद्यपि उन्होंने जीवनभर कोई सत्कर्म नहीं किया था, पाप कर्म से ही धनार्जन किया था, परंतु माघ मास में स्नान करके पश्चातापपूर्वक निर्मल मन हो प्राण त्यागने के फलस्वरूप उनके लिए दिव्य विमान आया और उस पर आरूढ़ हो वे स्वर्गलोक चले गए। इस प्रकार माघ स्नान की महिमा अपरंपार है। इस मास की प्रत्येक तिथि पर्व है। यदि अशक्तावश पूरे मास का स्नान संभव न हो तो शास्त्रों ने यह भी व्यवस्था दी है कि तीन अथवा एक दिन माघ स्नान व्रत का पालन अवश्य करना चाहिए- 'मासपर्यन्तं स्नानासम्भवे त्रयमेकाहं वा स्नायात्।' माघ स्नान चारों वर्णों के लोग कर सकते हैं। विद्वानों के मत-मतांतर से पौष शुक्ल पूर्णिमा से माघ शुक्ल पूर्णिमा तक अथवा सूर्य के मकर राशि में आने और पुनः उस राशि से निकल कर दूसरी राशि में जाने के दिन तक नित्य माघ स्नान और उसके अनंतर मौनव्रत धारण करना चाहिए। फिर भगवान का पूजनकर ब्राह्मणों को नित्यप्रति भोजन कराएं। कंबल, मृगचर्म, रत्न, कपड़े, जूते आदि का दान करें। स्नान पूर्ण होने पर एक या एकाधिक 30 द्विज दम्पति (ब्राह्मण-ब्राह्मणी) को षट्रस भोजन करवाकर 'सूर्यो मे प्रीयतां देवो विष्णुमूर्ति निरंजनः' मंत्र से सूर्य की प्रार्थना करें। फिर उन्हें दिव्य वस्त्र, सप्त धान्य, तीस मोदक, आभूषण, द्रव्य दक्षिणादि देकर ससम्मान विदा करें। स्वयं मासपर्यंत निराहार, शाकाहार, फलाहार या दुग्धाहार व्रत अथवा एकभुक्त व्रत करें। इस प्रकार काम, क्रोध, मद, मोह, लोभादि त्यागकर भक्ति, श्रद्धा, विनय और निःस्वार्थ भाव से स्नान करें, अश्वमेधादि के समान फल प्राप्त होगा, सारे पाप, ताप तथा दुःख दूर होंगे और चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होगी। माघ मास में स्नान और दान व्रत करने वाले इह लोक व परलोक का सुख प्राप्त कर लेते हैं। माघ मास में तीर्थों पर भक्तों के आगमन से मेलों का सा दृश्य उपस्थित हो जाने के कारण पर्व और उत्सव दोनों ही रूपों में इसकी मान्यता सिद्ध हो जाती है। माघ स्नान अरुणोदय से आरंभ कर प्रातः काल तक करें। शास्त्रों में उल्लेख है कि स्नान सूर्योदय से पूर्व हो तो अमृत तुल्य, सूर्योदय के समकाल हो तो जल तुल्य और सूर्योदय के पश्चात हो तो रक्त तुल्य होता है। अमृत, जल तथा रक्त तीनों द्रव पदार्थों का फल भी उसी रूप में व्रती को प्राप्त होता है। माघ मास की अमावस्या मौनी अमावस्या के नाम से जानी जाती है। इस तिथि पर मौन रहकर अथवा मुनियों के समान आचरणपूर्वक स्नान-दान करने का विशेष महत्व है। माघ मास के स्नान-दानादि व्रतों का लाभादि वर्णन तो बड़े-बड़े ज्ञानी संतमहापुरुष भी करने में असमर्थ हैं। बारह वर्षों के अंतराल पर तीर्थराज प्रयाग में कुंभ का मेला भी माघ मास में ही लगता है। अतः जीवन का कल्याण चाहने वाले सभी जनों को माघ मास के स्नानादि व्रतों का नियम-संयमपूर्वक पालन अवश्य करना चाहिए। इसके पालन से भगवत् धाम की प्राप्ति का मार्ग सहज ही प्राप्त हो जाता है और 'पुनरपि जन्मम् पुनरपि मरणम्' दोष से छुटकारा तथा श्री विष्णु के चरणारविन्दों की अविराम भक्ति प्राप्त हो जाती है।