यह कथा एक ऐसी नारी की है जिसके जीवन का आरंभ अत्यंत निर्धन परिवार में हुआ। लेकिन उसकी किस्मत न केवल उसे एक समृद्ध परिवार में ले गई, अपितु उसे जीवन का वह रंग भी दिखाया जिसकी कल्पना शायद उसने कभी नहीं की थी। सुमति का बचपन अत्यंत गरीबी में बीता। उसके पिता एक छोटी सी नौकरी करते थे जिससे एक अत्यंत बड़े परिवार का गुजर बसर काफी मुश्किल से होता था।
अनेक बार उन्हें धान कूट कर चावल से ही संतुष्ट होना पड़ता। सोलह साल की उम्र में ही सुमति का विवाह श्रीधर से हो गया। आंखों में अपने सुनहरे भविष्य के सपने संजोए सुमति अपनी ससुराल चली गई। श्रीधर वन रक्षक के पद पर आसीन थे वे अपने काम में अत्यंत व्यस्त रहते। विवाह के कुछ दिन तक तो उन्होंने घर के प्रति अधिक ध्यान दिया जिससे कि नवविवाहिता को अच्छा लगे लेकिन धीरे-धीरे वे अपनी पुरानी दुनिया में वापस लौटने लगे। कहते हैं शराब और शबाब का चस्का एक बार लग जाए तो छुड़ाए नहीं छूटता। सुमति का जादू अधिक दिन तक नहीं चला और उसे अधिकतर समय पति के इंतजार में ही बिताना पड़ता।
विवाह के एक वर्ष बाद ही सुमति ने एक पुत्री को जन्म दिया और उसका खाली समय पुत्री के साथ बीतने लगा। लेकिन जीवन के सभी ऐशो ऐराम होते हुए भी पति की बेरुखी उसे मर्माहत कर देती। आस पड़ौस में लोगों को अथवा अपने मायके में अपनी बहनों एवं बहनोइयों को चुहलबाजी करते या हंसते बोलते देखती तो उसका मन टीस से भर जाता।
वह अत्यंत दुखी रहने लगी। क्या सुखी जीवन का अर्थ अच्छा खाना, पहनना एवं पति के प्रति अपने कर्तव्य पूरे करना ही है? क्या उसकी इच्छाओं अथवा कामनाओं की कोई कद्र नहीं? वह भी अपने पति के साथ अपने मन की बात करना चाहती थी, हंसना चाहती थी, पर उन्हें तो बात करने का समय ही नहीं था। ऐसे ही चलते-चलते जाने कब पांच वर्ष बीत गए और वह तीन बच्चों की मां बन गई। चूंकि वह बिलकुल अनपढ थी और पति के पास परिवार के लिए समय नहीं था, सो घर पर बच्चों को पढ़ाने के लिए एक अध्यापक की व्यवस्था की गई। शिखर, जो वहीं सरकारी काॅलेज में प्रवक्ता के पद पर आसीन थे, सुमति के घर उसके बच्चों को पढ़ाने आने लगे।
सुमति के जीवन में मानो बसंत का एक झोंका सा आ गया। बच्चों के पढ़ने के बाद वह उन्हें जबरन रोक लेती और घंटों उनसे बतियाती। और धीरे-धीरे कब उसने शिखर के तन और मन पर आधिपत्य स्थापित कर लिया, वह जान ही नहीं पाई। अब तो जीवन के रंग मानो बदल-से गए। श्रीधर की व्यस्तता एवं उदासीनता दिनानुदिन बढ़ती गई। उनकी जरूरत सुमति पहले की तरह पूरी करती रही।
उसकी अपनी जिंदगी में मानो फिर से बहार आ गई थी। अगले वर्ष सुमति फिर से मां बनी और इस बार मां बनने का सुख उसके रोम-रोम से झलक रहा था। त्रिया चरित्र को समझना बहुत मुश्किल है। कहा है: स्त्रयाः चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्य। अर्थात स्त्री के चरित्र और पुरुष के भाग्य को मनुष्य की कौन कहे भगवान भी नहीं समझ पाते। सुमति ने भी श्रीधर के सामने शिखर की इतनी तारीफ की कि श्रीधर ने उन्हें अपने ही घर में मकान, बिना किसी किराए के, दे दिया।
सुमति को मानो मुंह मांगी दौलत मिल गई और आज इतने वर्ष बाद भी जब सुमति के सभी बच्चों का विवाह हो चुका है, शिखर अपने परिवार सहित अभी भी उनके घर में रहते हैं। इस कथा के दूसरे पहलू पर गौर कर तो शास्त्रानुसार, फेरों पर दिए गए वचनानुसार पर पुरुष की कल्पना करना भी पाप है और सुमति ने जो कृत्य किया वह निश्चित रूप से समाज में अनुचित था। शायद ईश्वर भी (चाहे हम उसे मानें अथवा नहीं) हमारे कुकृत्यों का फल हमें इसी जन्म में दे देता है जिसे हमें भोगना ही पड़ता है।
सुमति के विवाहित पुत्र को इन सब बातों का पता चला तो उसने आत्म हत्या कर ली और उसकी पत्नी ने अन्यत्र विवाह कर लिया। सुमति अपनी पोती का लालन-पालन कर रही है। श्रीधर सब कुछ जानकर भी मौन रहकर पश्चताप के आग में जलते हुए सुमति के साथ रह रहे हैं। सुमति की जन्मकुंडली में सूर्य नीचस्थ होकर गुरु के साथ लग्न में बैठा है और द्वितीय भाव में नीचस्थ चंद्रमा बुध, शुक्र, केतु और मंगल के साथ विद्यमान है। फलस्वरूप इस कुंडली में अनेक ऐसे योग घटित हो रहे हैं जो सुमति के चरित्र एवं उसके स्वभाव को निश्चित रूप से प्रभावित कर रहे हैं।
जातक पारिजात के स्त्री जातकाध्याय में वर्णित श्लोक 9 के अनुसार विषम राशि में लग्न हो और सूर्य मंगल, गुरु, चंद्रमा, बुध और शुक्र बली हो तथा शनि साधारण हो तो ऐसी स्त्री के बहुत से पति होते हैं। सुमति की कुंडली में भी यही घटित हो रहा है। साथ ही इस कुंडली में षष्ठेश गुरु पाप ग्रह सूर्य से युक्त है तथा लग्नेश शुक्र भी मंगल अर्थात पाप ग्रह से युक्त है जिसके फलस्वरूप इसमें अतिकामी योग भी बन रहा है।
सर्वार्थ चिंतामणि अ.-6/श्लो.-14 के अनुसार यदि जन्मपत्रिका में सप्तमेश उच्च, वक्र आदि बहुत गुणों से युक्त हो अथवा लग्नस्थ हो तो पुरुष का बहुत सी स्त्रियों से और स्त्री का बहुत से पुरूषों से संपर्क होता है। सुमति की चंद्र कुंडली में चंद्र लग्न से सप्तमेश शुक्र लग्न में वक्री होकर अन्य ग्रहों से युति बना रहा है। इसलिए यह बहुपति योग भी फलित हो रहा है। श्रीधर की कुंडली में पंचमेश सूर्य पाप ग्रहों के बीच है तथा संतान कारक ग्रह गुरु भी पाप युक्त है, इसलिए पुत्र नाश योग घटित हो रहा है।
सुमति की कुंडली में वेशि योग भी विद्यमान है अर्थात सूर्य से द्वितीय भाव में अनेक ग्रह स्थित होने से उसे राजयोग भी प्राप्त हुआ और उसने राजरानी की तरह सुख भोगा। सुमति और श्रीधर दोनों की कुंडलियों में गुरु पूर्ण अस्त होने से कमजोर अवस्था में है। पुत्र कारक गुरु ने पुत्र का सुख तो दिया पर केवल कुछ वर्षों के लिए। वह बुढ़ापे में उनका सहारा नहीं बन सका। श्रीधर की कुंडली में पंचमेश सूर्य अपने घर से छठे भाव में स्थित है, इसलिए वे पुत्र सुख से वंचित हुए और लग्नेश मंगल की शनि के साथ द्वादश में स्थिति, अष्टम भाव में राहु की स्थिति एवं शनि और मंगल पर उसकी दृष्टि तथा जाया कारक ग्रह शुक्र और चंद्रमा का अस्त होना ये सारे योग उनके चरित्र पर भी प्रश्न चिह्न लगाते हैं।
सुमति की लग्नकुंडली में पंचमेश शनि योगकारक त्रिकोण का स्वामी होकर केंद्र में स्थित है जिससे सुमति ने छः कन्याओं को जन्म दिया और पुत्र केवल एक ही हुआ जिसका सुख बुढ़ापे में नहीं मिला। सुमति की चंद्रकुंडली में गुरु द्वादश में पूर्ण अस्त है। पति के स्थान सप्तम भाव से पंचम के स्वामी सूर्य के नीच राशि में होने से उसके संबंध परपुरुष से हुए और उससे संतान हुई। अष्टम भावस्थ पाप ग्रह राहु, सप्तम भाव पर पाप ग्रह शनि की दृष्टि और नीचस्थ चंद्र के साथ चार अन्य ग्रहों की युति ने उसकी बुद्धि को भ्रमित किया।