अशून्य शयन व्रत
अशून्य शयन व्रत

अशून्य शयन व्रत  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 7045 | जुलाई 2006

अशून्य शयन व्रत पं. ब्रजकिशोर शर्मा ‘ब्रजवासी’ भविष्य पुराण में अशून्य शयन व्रत की मीमांशा की गई है। इस व्रत का अनुष्ठान श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि से प्रारंभ होता है। इस व्रत को करने से स्त्री वैधव्य तथा पुरुष विधुर होने के पाप से मुक्त हो जाता है। यह व्रत सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला तथा मोक्ष प्रदाता है। इस व्रत का विधान स्त्री एवं पुरुष दोनों के लिए ही है।

अशून्य शयन का अर्थ है - स्त्री का शयन पति से शून्य तथा पति का शयन पत्नी से शून्य नहीं होता। दोनों का ही यावज्जीवन विशुद्ध साहचर्य बना रहता है। भगवान विष्णु के साथ लक्ष्मी का नित्य-निरंतर साहचर्य रहता है। इसलिए पति-पत्नी के नित्य साहचर्य के लिए दोनों को अशून्य शयन व्रत में श्रावण कृष्ण द्वितीया तिथि को लक्ष्मी सहित भगवान विष्णु की मूर्ति को विशिष्ट शय्या पर अधोस्थापित कर अनेक उपचारों द्वारा उनका पूजन करना चाहिए।

व्रती को चाहिए कि श्रावण कृष्ण द्वितीया को प्रातः स्नानादि नित्य कर्मों से निवृत्त हो विधिवत संकल्प लेकर श्रीवत्सचिह्न युक्त चार भुजाओं से विभूषित, शेष शय्या पर स्थित लक्ष्मी सहित भगवान का षोडशोपचार पूजन करे। दिन भर मौन रहे, व्रत रखे और सायंकाल पुनः स्नान करके भगवान् का शयनोत्सव मनाए। फिर चंद्रोदय होने पर अघ्र्यपात्र में जल, फल, पुष्प और गंधाक्षत रखकर निम्नांकित मंत्र से भगवान को अघ्र्य दे।

गगनाङ्गणसंदीप क्षीराब्धिमथनोद्भव।

भाभासितादिगाभोग रामानुज नमोऽस्तु ते।।

हे रामानुज ! आपका अवतार क्षीर सागर के मंथन से हुआ है। आपकी आभा से ही दिशा-विदिशाएं आभासित होती हैं। गगन रूपी आंगन के आप सत्स्वरूपी देदीप्यमान दीपक हैं। आपको नमस्कार है। तदनंतर भगवान को प्रणाम करके भोजन करे। इस प्रकार प्रत्येक मास की कृष्ण द्वितीया को व्रत करके मार्ग शीर्ष कृष्ण तृ तीया का े उस ऋत ु मे ंहोने वाले मीठे फल सदाचारी ब्राह्मण को दक्षिणा सहित दे। करौंदे, नीबू आदि खट्टे तथा इमली, नारंगी आदि स्त्री नाम के फल न दे।

चंद्रमा लक्ष्मी का अनुज होने के कारण उसका प्रिय है। वह प्रत्यक्ष देवता है। उसके पूजन से लक्ष्मी प्रसन्न होती है। उक्त विधान के साथ जो व्यक्ति श्रावण मास से मार्गशीर्ष तक व्रत के नियमों का पालन करता है, उसे कभी स्त्री-वियोग नहीं होता और लक्ष्मी उसका साथ नहीं छोड़ती। जो स्त्री भक्तिपूर्वक इस व्रत का अनुष्ठान करती है, वह तीन जन्मों तक न तो विधवा होती है और न दुर्भाग्य का सामना करती है। यह अशून्य शयन व्रत सभी कामनाओं की पूर्ति और उत्तम भोगों को प्रदान करने वाला है। स्वयं नृपश्रेष्ठ रुक्मांगद ने इस व्रत का पालन कर सभी भोगों और कामनाओं को प्राप्त किया। इसकी कथा इस प्रकार है।

कथा: एक समय राजा रुक्मांगद ने जन रक्षार्थ वन में भ्रमण करते-करते महर्षि वामदेवजी के आश्रम पर पहुंच महर्षि के चरणों में साष्टांग दंडवत् प्रणाम किया। राजा ने कहा, ‘महात्मन! आपके युगल चरणारविंदों का दर्शन करके मैंने समस्त पुण्य कर्मों का फल प्राप्त कर लिया।’ वामदेव जी ने राजा का विधिवत सत्कार कर कुशल क्षेम पूछी। तब राजा रुक्मांगद ने कहा- ‘भगवन ! मेरे मन में बहुत दिनों से एक संशय है।

मैं उसी के विषय में आपसे पूछता हूं, क्योंकि आप सब संदेहों का निवारण करने वाले ब्राह्मण शिरोमणि हैं। मुझे किस सत्कर्म के फल से त्रिभुवन सुंदर पत्नी प्राप्त हुई है, जो सदा मुझे अपनी दृष्टि से कामदेव से भी अधिक सुंदर देखती है। परम सुंदरी देवी संध्यावली जहां-जहां पैर रखती हैं, वहां-वहां पृथ्वी छिपी हुई निधि प्रकाशित कर देती है। वह सदा शरद्काल के चंद्रमा की प्रभा के समान सुशोभित होती है। विप्रवर ! बिना आग के भी वह षड्रस भोजन तैयार कर लेती है और यदि थोड़ी भी रसोई बनाती है तो उसमें करोड़ों मनुष्य भोजन कर लेते हैं। वह पतिव्रता, दानशीला तथा सभी प्राणियों को सुख देने वाली है। उसके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न हुआ है, वह सदा मेरी आज्ञा के पालन में तत्पर रहता है।

द्विजश्रेष्ठ ! ऐसा लगता है, इस भूतल पर केवल मैं ही पुत्रवान हूं, जिसका पुत्र पिता का भक्त है और गुणों के संग्रह में पिता से भी बढ़ गया है। वह बड़ा ही वीर, पराक्रमी, साहसी, शत्रु राजाओं को परास्त करने वाला है। उसने सेनापति होकर छः माह तक युद्ध किया और शत्रुपक्ष के सैनिकों को जीतकर सबको अस्त्रहीन कामनाओं को प्राप्त किया। इसकी कथा इस प्रकार है। कथा: एक समय राजा रुक्मांगद ने जन रक्षार्थ वन में भ्रमण करते-करते महर्षि वामदेवजी के आश्रम पर पहुंच महर्षि के चरणों में साष्टांग दंडवत् प्रणाम किया। राजा ने कहा, ‘महात्मन! आपके युगल चरणारविंदों का दर्शन करके मैंने समस्त पुण्य कर्मों का फल प्राप्त कर लिया।’

वामदेव जी ने राजा का विधिवत सत्कार कर कुशल क्षेम पूछी। तब राजा रुक्मांगद ने कहा- ‘भगवन ! मेरे मन में बहुत दिनों से एक संशय है। मैं उसी के विषय में आपसे पूछता हूं, क्योंकि आप सब संदेहों का निवारण करने वाले ब्राह्मण शिरोमणि हैं। मुझे किस सत्कर्म के फल से त्रिभुवन सुंदर पत्नी प्राप्त हुई है, जो सदा मुझे अपनी दृष्टि से कामदेव से भी अधिक सुंदर देखती है। परम सुंदरी देवी संध्यावली जहां-जहां पैर रखती हैं, वहां-वहां पृथ्वी छिपी हुई निधि प्रकाशित कर देती है। वह सदा शरद्काल के चंद्रमा की प्रभा के समान सुशोभित होती है।

विप्रवर ! बिना आग के भी वह षड्रस भोजन तैयार कर लेती है और यदि थोड़ी भी रसोई बनाती है तो उसमें करोड़ों मनुष्य भोजन कर लेते हैं। वह पतिव्रता, दानशीला तथा सभी प्राणियों को सुख देने वाली है। उसके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न हुआ है, वह सदा मेरी आज्ञा के पालन में तत्पर रहता है। द्विजश्रेष्ठ ! ऐसा लगता है, इस भूतल पर केवल मैं ही पुत्रवान हूं, जिसका पुत्र पिता का भक्त है और गुणों के संग्रह में पिता से भी बढ़ गया है। वह बड़ा ही वीर, पराक्रमी, साहसी, शत्रु राजाओं को परास्त करने वाला है। उसने सेनापति होकर छः माह तक युद्ध किया और शत्रुपक्ष के सैनिकों को जीतकर सबको अस्त्रहीन किया।

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