श्रीदुर्गासप्तशती महायज्ञ/अनुष्ठान वेदव्रत भटनागर भगवती मां दुर्गाजी की प्रसन्नता के लिए जो अनुष्ठान किये जाते हैं उनमें दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान विशेष कल्याणकारी माना गया है। इस अनुष्ठान को ही शक्ति साधना भी कहा जाता है। शक्ति मानव के दैनन्दिन व्यावहारिक जीवन की आपदाओं का निवारण कर ज्ञान, बल, क्रिया शक्ति आदि प्रदान कर उसकी धर्म-अर्थ काममूलक इच्छाओं को पूर्ण करती है एवं अंत में आलौकिक परमानंद का अधिकारी बनाकर उसे मोक्ष प्रदान करती है। दुर्गा सप्तशती एक तांत्रिक पुस्तक होने का गौरव भी प्राप्त करती है। भगवती शक्ति एक होकर भी लोक कल्याण के लिए अनेक रूपों को धारण करती है। श्ेवतांबर उपनिषद के अनुसार यही आद्या शक्ति त्रिशक्ति अर्थात महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में प्रकट होती है। इस प्रकार पराशक्ति त्रिशक्ति, नवदुर्गा, दश महाविद्या और ऐसे ही अनंत नामों से परम पूज्य है।
श्री दुर्गा सप्तशती नारायणावतार श्री व्यासजी द्वारा रचित महा पुराणों में मार्कण्डेयपुराण से ली गयी है। इसम सात सौ पद्यों का समावेश होने के कारण इसे सप्तशती का नाम दिया गया है। तंत्र शास्त्रों में इसका सर्वाधिक महत्व प्रतिपादित है और तांत्रिक प्रक्रियाओं का इसके पाठ में बहुधा उपयोग होता आया है। पूरे दुर्गा सप्तशती में 360 शक्तियों का वर्णन है। इस पुस्तक में तेरह अध्याय हैं। शास्त्रों के अनुसार शक्ति पूजन के साथ भैरव पूजन भी अनिवार्य माना गया है। अतः अष्टोत्तरशतनाम रूप बटुक भैरव की नामावली का पाठ भी दुर्गासप्तशती के अंगों में जोड़ दिया जाता है। इसका प्रयोग तीन प्रकार से होता है।
1. नवार्ण मंत्र के जप से पहले भैरवो भूतनाथश्च से प्रभविष्णुरितीवरितक या नमोऽत्त नामबली या भैरवजी के मूल मंत्र का 108 बार जप।
2. प्रत्येक चरित्र के आद्यान्त में 1-1 पाठ।
3. प्रत्येक उवाचमंत्र के आस-पास संपुट देकर पाठ। नैवेद्य का प्रयोग अपनी कामनापूर्ति हेतु दैनिक पूजा में नित्य किया जा सकता है। यदि मां दुर्गाजी की प्रतिमा कांसे की हो तो विशेष फलदायिनी होती है।
श्री दुर्गासप्तशती का अनुष्ठान कैसे करें।
1. कलश स्थापना
2. गौरी गणेश पूजन
3. नवग्रह पूजन
4. षोडश मातृकाओं का पूजन
5. कुल देवी का पूजन
6. मां दुर्गा जी का पूजन निम्न प्रकार से करें।
आवाहन : आवाहनार्थे पुष्पांजली सर्मपयामि। आसन : आसनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि। पाद : पाद्यर्यो : पाद्य समर्पयामि। अर्घ्य : हस्तयो : अर्घ्य स्नानः । आचमन : आचमन समर्पयामि। स्नान : स्नानादि जलं समर्पयामि। स्नानांग : आचमन : स्नानन्ते पुनराचमनीयं जलं समर्पयामि। दुधि स्नान : दुग्ध स्नान समर्पयामि। दहि स्नान : दधि स्नानं समर्पयामि। घृत स्नान : घृतस्नानं समर्पयामि। शहद स्नान : मधु स्नानं सर्मपयामि। शर्करा स्नान : शर्करा स्नानं समर्पयामि। पंचामृत स्नान : पंचामृत स्नानं समर्पयामि। गन्धोदक स्नान : गन्धोदक स्नानं समर्पयामि शुद्धोदक स्नान : शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि वस्त्र : वस्त्रं समर्पयामि सौभाग्य सूत्र : सौभाग्य सूत्रं समर्पयामि चदं न : चदं न ं समपर्य ामि हरिद्रा : हरिद्रा समर्पयामि कुंकुम : कुंकुम समर्पयामि आभूषण : आभूषणम् समर्पयामि पुष्प एवं पुष्प माला : पुष्प एवं पुष्पमाला समर्पयामि फल : फलं समर्पयामि भोग (मेवा) : भोगं समर्पयामि मिष्ठान : मिष्ठानं समर्पयामि धूप : धूपं समर्पयामि। दीप : दीपं दर्शयामि। नैवेद्य : नैवेद्यं निवेदयामि। ताम्बूल : ताम्बूलं समर्पयामि। भैरवजी का पूजन करें इसके बाद कवच, अर्गला, कीलक का पाठ करें। यदि हो सके तो देव्यऽथर्वशीर्ष, दुर्गा की बत्तीस नामवली एवं कुंजिकस्तोत्र का पाठ करें।
नवार्ण मंत्र : ''ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै'' का जप एक माला करें एवं रात्रि सूक्त का पाठ करने के बाद श्री दुर्गा सप्तशती का प्रथम अध्याय से पाठ शुरू कर तेरह अध्याय का पाठ करें। पाठ करने के बाद देवी सूक्त एवं नर्वाण जप एवं देवी रहस्य का पाठ करें। इसके बाद क्षमा प्रार्थना फिर आरती करें। पाठ प्रारंभ करने से पहले संकल्प अवश्य हो। पाठ किस प्रयोजन के लिए कर रहे हैं यह विनियोग में स्पष्ट करें। दुर्गासप्तशती के पाठ में ध्यान देने योग्य कुछ बातें
1. दुर्गा सप्तशती के किसी भी चरित्र का आधा पाठ ना करें एवं न कोई वाक्य छोड़े।
2. पाठ को मन ही मन में करना निषेध माना गया है। अतः मंद स्वर में समान रूप से पाठ करें।
3. पाठ केवल पुस्तक से करें यदि कंठस्थ हो तो बिना पुस्तक के भी कर सकते हैं।
4. पुस्तक को चौकी पर रख कर पाठ करें। हाथ में ले कर पाठ करने से आधा फल प्राप्त होता है।
5. पाठ के समाप्त होने पर बालाओं व ब्राह्मण को भोजन करवाएं।
अभिचार कर्म में नर्वाण मंत्र का प्रयोग
1. मारण : ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै देवदत्त रं रं खे खे मारय मारय रं रं शीघ्र भस्मी कुरू कुरू स्वाहा।
2. मोहन : क्लीं क्लीं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदत्तं क्लीं क्लीं मोहन कुरू कुरू क्लीं क्लीं स्वाहा॥
3. स्तम्भन : ऊँ ठं ठं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदत्तं ह्रीं वाचं मुखं पदं स्तम्भय ह्रीं जिहवां कीलय कीलय ह्रीं बुद्धि विनाशय -विनाशय ह्रीं। ठं ठं स्वाहा॥
4. आकर्षण : ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदतं यं यं शीघ्रमार्कषय आकर्षय स्वाहा॥
5. उच्चाटन : ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदत्त फट् उच्चाटन कुरू स्वाहा।
6. वशीकरण : ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदत्तं वषट् में वश्य कुरू स्वाहा। नोट : मंत्र में जहां देवदत्तं शब्द आया है वहां संबंधित व्यक्ति का नाम लेना चाहिए।