दुर्गा पूजा - ऐसे भी ! अर्चना शर्मा त्रिशक्तितत्व भगवती दुर्गा वास्तव में हर मनुष्य में समाहित वह शक्ति है जिसे पहचान कर यदि जगाया जाए और चेष्टा शक्ति से जोड़ा जाए तो हर पल, हर क्षण होने वाले अंर्तद्वन्दों में मनुष्य की जीत निश्चित है। असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतम् गमय। मंत्र में ऋषि प्रार्थना करते हैं कि प्रभु उन्हें असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर करें और मृत्यु से छुड़ा कर अमरत्व प्रदान करें। इसी मंत्र-भाव को चरितार्थ करने का सुनहरा अवसर है- नवरात्र। नवरात्र अर्थात मां दुर्गा की उपासना को समर्पित नौ अहोरात्र। सामान्यतः इन दिनों घर-द्वार को सजाना संवारना, उपवास करना, भजन-कीर्तन, जागरण आदि कुछ उपक्रम अक्सर किए जाते हैं।
ये वाह्य पूजा-अर्चना एक अभिलाषी को असत्य से सत्य की ओर ले जाने तथा मृत्यु से अमरत्व अर्थात् आत्म स्वरूप का बोध कराने के लिए पर्याप्त नहीं है। आज का मनुष्य अपने ही स्वरूप से अनभिज्ञ एक थका हुआ और उदासीन जीवन जी रहा है। वह व्यर्थ और अंतहीन चिंताओं में सदा घिरा रहता है। काम, क्रोध, मोह, लोभ, अनर्गल और नकारात्मक विचार उसकी आत्मा को निरंतर झिंझोड़ते रहते हैं। अनंत इच्छाएं आशाएं उसके अंतस को हजारों सर्पदंशों की तरह डसती रहती हैं। विकृत और थोथी प्रथाएं उसे भ्रमित करती रहती हैं। उसकी विषैली हो गयी विवेकशक्ति उसे अनैतिक जीवन प्रणाली के सिवा कुछ नहीं दे पाती। पल-पल बदलते संकल्पों -विकल्पों में जूझता मनुष्य अपने स्वरूप का धुंधला सा प्रतिबिंब भी नहीं देख पाता।
असंखय उपाय और जप-तप के बाद भी मन की ऊहापोह समाप्त नहीं होती। इन क्षणों में हारा हुआ मनुष्य (विजय का अभिलाषी) मां दुर्गा की शरण में जाता है जो उसकी दुर्गति का निवारण करने में सक्षम है। वह जान गया है कि अब वह खोखले मूल्यों के साथ नहीं जी सकता। उसकी आतंकित आत्मा इन अमानवीय राक्षसों से आसानी से छुटकारा नहीं पा सकती। इन्हीं आसुरी शक्तियों, अवगुणों के अंधकार से छुटकारा पाने के लिए आत्माभिलाषी नवरात्र के पहले तीन दिन मां श्री काली का आह्वान करता है। पहले तीन दिन मां काली को समर्पित हैं। श्री मां काली जिन्होंने पुराणानुसार रौद्र रूप धर कर असंखय असुरों का संहार किया था।
हाथ में खून से सनी तलवार लिए गले में मुंड माला पहने जब वे अभिलाषी के अंतस में विचरती हैं तो उसके नकारात्मक विचार, अवगुण, भय, अर्थहीनता आदि को खड्ग के प्रहार से धुन-धुन कर निकालती हैं। कौन हैं ये श्री मां काली? अपने ही कलुषित रूप और नकारात्मकता पर विजय पाने की अदम्य इच्छाशक्ति का नाम श्री मां काली है। जिस प्रकार एक चिंगारी पूरे भवन को भस्म करने में सक्षम है उसी प्रकार हमारी इच्छाशक्ति हमारे अवगुणों के पिंजर को स्वाहा करने की क्षमता रखती है। आवश्यकता है तो दृढ़-संकल्प से इस सोई हुई शक्ति को जगाने की। पहले तीन दिन बार-बार अभिलाषी इस सोई शक्ति को जगाता है और ये शक्ति असंखय ज्वालाओं की भांति उसके दुखों, अवगुणों नकारात्मकता, असत्य और तमस को भस्म कर देती है।
पहले तीन दिन अभिलाषी आत्म-दर्शन के प्रथम सोपान को पार करता है। अब उसका अंतर्मन साफ और उजला हो जाता है। धुंधलका हट सा जाता है। सब खाली-खाली हो जाता है। ऐसे में वह मां महालक्ष्मी को पुकारता है। मां महालक्ष्मी जो कमल के आसन पर विराजमान हैं। सदैव प्रसन्न मुख वाली हाथों में अक्षमाला, फरसा, गदा, बाण, वज्र, कमल, धनुष, कुण्डिका, दंड शक्ति, खड्ग, ढाल, शंख, घंटा, मधुपात्र, शूल पाश और चक्र धारण किए हुए हैं। क्या यही है मां महालक्ष्मी का रूप? मनुष्य के अतंर्मन की शुद्ध और सकारात्मक विचारधारा का नाम महालक्ष्मी है। यही शक्ति अभिलाषी के आत्म-स्थल में विश्वास, भक्ति, दया, प्रेम, सद्गुण, सुदृढ़ व सुसंस्कृत मानवीय मूल्यों को रोपती है।
इन्हीं मूल्यों का हाथ पकड़ कर मनुष्य, सुख-शांति, वैभव, धन संपदा को प्राप्त करता है। वह असंभव को भी संभव कर देता है। तीन दिन निरंतर वह मां महालक्ष्मी को धन्यवाद देता है और प्रणाम करता है। दुर्गासप्तशती में निहित तंत्रोक्त देवीसूक्त इसी प्रार्थना का प्रमाण है- या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः। अवगुणों से मुक्त और सद्गुणों से युक्त अब अभिलाषी आत्म-बोध के लिए तैयार है। जन्म जन्मांतर से जकड़ी हुई आत्मा स्वतंत्र रूप का अवलोकन करने हेतु मां सरस्वती का आह्वान करती है। नवरात्र के अंतिम 3 दिन मां सरस्वती को समर्पित किए जाते हैं। मां सरस्वती और कोई नहीं मनुष्य की विवेक शक्ति है।
शांत-चित्त हो अभिलाषी जब ध्यान - मग्न होता है तो मां सरस्वती उसके हृदय के तारों को अपने कोमल स्पर्श से झंकृत कर देती हैं, वीणा के मधुर स्वरों से उसे आहलादित कर देती है। धीरे-धीरे सुंदर, सुरमय वातावरण में वह पहली बार आत्म दर्शन करता है। उन क्षणों में कृष्ण भक्त कृष्ण हो जाता है, शिव भक्त शिव हो जाता है अभिलाषी, अभिलाषित हो जाता है। कहीं कोई भेद नहीं रह जाता। अभिलाषी अपने ही अंदर मां दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों का दर्शन कर लेता है। अब वह उदास, भयभीत, चिंतित परतंत्र नहीं रह जाता। उसकी आत्मा प्रसन्नता से घोषणा करती है ''अहं ब्रह्मस्मि'' ''मैं ही ब्रह्म हूं'' - स्वच्छ, उन्मुक्त सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी - यही परम विजय का क्षण है।
इसी विजय को विजयदशमी के दिन मनाया जाता है। नौ दिनों में अभिलाषी का काया-कल्प हो चुका है और वह स्वयं अपने मृत व्यक्तित्व, अहंकार और झूठी महत्वाकांक्षाओं की अर्थी का दहन विजयदशमी के दिन कर देता है। एक बार फिर आरंभ होती है अंर्तमन की यात्रा नित्य निरंतर............... मां दुर्गा वास्तव में हर मनुष्य में समाहित वह शक्ति है जिसे यदि पहचाना जाए, जगाया जाए और चेष्टा शक्ति से जोड़ा जाए तो हर पल, हर क्षण होने वाले अंर्तद्वन्दों में मनुष्य की जीत निश्चित है। मां दुर्गा को सदैव अपने समीप महसूस करना ही सच्ची दुर्गा उपासना होगी।