रुक्मिणी अष्टमी
रुक्मिणी अष्टमी

रुक्मिणी अष्टमी  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 8727 | दिसम्बर 2007

रुक्मिणी अष्टमी पं. ब्रज किशोर ब्रजवासी पाष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी क ा े रु िक् म ण् ा ी अष्टमी का व्रत किया जाता है। इस व्रत से सौभाग्य, संतान, सुख शांति एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।

प्रातःकाल अरुणोदय बेला में जागकर नित्य नैमित्तिक क्रियाओं को संपन्न कर हाथ में अक्षत, पुष्प, दूर्वा, पुंगीफल, दक्षिणा व जलादि लेकर रुक्मिणी अष्टमी व्रत हेतु विधिवत नाम, गोत्र, वंश, शाखादि का उच्चारण कर संकल्प करें। संकल्प का ज्ञान न हो तो संकल्प व पूजनादि की सभी क्रियाएं किसी विद्वान ब्राह्मण से संपन्न कराएं। गणेश, गौरी, वरुण भगवान, नवग्रहादि देवताओं का पूजन कर श्री कृष्ण, रुक्मिणी तथा प्रद्युम्न की स्वर्णमयी प्रतिमाओं का गंधादि से षोडशोपचार पूजन करें तथा नैवेद्य आदि में उत्तम पदार्थ अर्पित करें।

ब्राह्मणों को दान दक्षिणा दें। इस शुभ अवसर पर अच्छे वस्त्रों वाली, सुसज्जित शृंगारवाली (सौभाग्यवती) आठ स्त्रियों को दिव्यातिदिव्य, मधुरपकवानों का भोजन करवाकर वस्त्राभूषणादि से संतुष्ट कर सम्मान सहित विदा करें - महारानी रुक्मिण् ाी का आशीर्वाद प्राप्त होगा। रुक्मिणी महारानी की कृपा से उपासक को जीवन की संपूर्ण दैन्यताएं समाप्त हो जाती हंै और धन-धान्यादि संपत्तियों की प्राप्ति होने लगती है।

जो वर्ष भर की प्रत्येक कृष्णाष्टमी को व्रत व पूजन करते हुए पौष मास की कृष्णाष्टमी को व्रतोद्यापन करता है उसे विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य, भोग तथा योगलक्ष्मी की प्राप्ति होती है तथा उसकी सारी मनोभिलाषा की पूर्ति हो जाती है। उद्यापन के समय स्वर्णाभूषणों सहित जीवनोपयोगी सभी वस्तुएं ब्राह्मण-ब्राह्मणी को श्रीकृष्ण-रुक्मिणी स्वरूप जानकर विधिवत भोजन कराकर दान करें।

सौभाग्यवती आठ स्त्रियों को भी भोजनादि से संतुष्ट कर वस्त्राभूषण् ाादि द्रव्य दक्षिणा देकर ससम्मान विदा करें। अतिथि, अभ्यागत, संत, पशु-पक्षी तथा जीव-जंतु आदि को भी भोजनादि अर्पित करें और स्वयं भी कुटुंबीजनों सहित महाप्रसाद ग्रहण करें। व्रत वाले दिन ¬ नमो भगवते वासुदेवाय, श्रीकृष्णाय नमः, रुक्मिणीवल्लभाय नमः आदि मंत्रों का स्मरण करते हुए रुक्मिणी विवाह का मंगलमय चरित्र पढ़ें।

रुक्मिणी विवाह की कथा श्रीशुकदेवजी कहते हैं - परीक्षित! महाराज भीष्मक विदर्भ देश के अधिपति थे। उनके पांच पुत्र और एक सुंदर कन्या थी। सबसे बड़े पुत्र का नाम था रूक्मी। शेष चार नाम थे क्रमशः रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्ममाली। इनकी बहन थी सती रुक्मिणी। जब उसने भगवान श्रीकृष्ण के सौंदर्य, पराक्रम, गुण और वैभव की प्रशंसा सुनी तब उसने निश्चय किया कि भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे अनुरूप पति हैं।

भगवान श्रीकृष्ण भी समझते थे कि रुक्मिणी में बहुत गुण हैं। वह परम बुद्धिमती है और उदारता, सौंदर्यशील तथा स्वभाव में भी अद्वितीय है। इसलिए रुक्मिण् ाी ही मेरे अनुरूप पत्नी है। अतः भगवान ने रुक्मिणी से विवाह करने का निश्चय किया। रुक्मिणी के भाई बंधु भी चाहते थे कि उनकी बहन का विवाह श्रीकृष्ण से ही हो।

परंतु रुक्मी श्रीकृष्ण से बड़ा द्वेष रखता था। उसने उन्हें विवाह करने से रोक दिया और शिशुपाल को ही अपनी बहन के योग्य वर समझा। जब परम सुंदरी रुक्मिणी को यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपाल के साथ मेरा विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गईं।

उन्होंने बहुत कुछ सोच-विचार कर एक विश्वासपात्र ब्राह्मण को तुरंत श्रीकृष्ण के पास भेजा। जब वह ब्राह्मण देवता द्व ारकापुरी में पहुंचे, तब द्वारपाल उन्हें राजमहल के भीतर ले गए। वहां जाकर ब्राह्मण देवता ने देखा कि आदि पुरुष भगवान श्रीकृष्ण सोने के सिंहासन पर विराजमान हैं।

ब्राह्मणों के परमभक्त भगवान श्रीकृष्ण उन्हें देखते ही अपने आसन से नीचे उतर गए और उन्हें अपने आसन पर बैठाकर वैसी ही पूजा की, जैसे देवता लोग उनकी (भगवान की) किया करते हैं। आदर-सत्कार, कुशल-प्रश्न के अनंतर जब ब्राह्मण देवता खा पी चुके, आराम विश्राम कर चुके तब संतों के परम आश्रय भगवान श्रीकृष्ण उनके पास गए और अपने कोमल हाथों से उनके पैर सहलाते हुए बड़े शांत भाव से पूछने लगे - ब्राह्मण शिरोमणे! आपका चित्त तो सदा सर्वदा संतुष्ट रहता है न? आपको अपने पूर्व पुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्म का पालन करने में कोई कठिनाई तो नहीं होती।

ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाए, उसी में संतुष्ट रहे और अपने धर्म का पालन करे, उससे च्युत न हो, तो वह संतोष ही उसकी सारी कामनाएं पूर्ण कर देता है। यदि इंद्र का पद पाकर भी किसी को संतोष न हो तो उसे सुख के लिए एक लोक से दूसरे लोक में बार-बार भटकना पड़ेगा, वह कहीं भी शांति से बैठ नहीं सकेगा।

परंतु जिसके पास तनिक भी संग्रह-परिग्रह नहीं है और जो उसी अवस्था में संतुष्ट है, वह सब प्रकार से संताप रहित होकर सुख की नींद सोता है। जो स्वयं प्राप्त हुई वस्तु से संतोष कर लेते हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियों के परम हितैषी, अहंकार रहित और शांत हैं, उन ब्राह्मणों को मैं सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूं।

ब्राह्मण देवता! राजा की ओर से तो आप लोगों को सब प्रकार की सुविधा है न? जिसके राज्य में प्रजा का अच्छी तरह पालन होता है और वह आनंद से रहती है, वह राजा मुझे बहुत ही प्रिय है। ब्राह्मण देवता! आप कहां से, और किस अभिलाषा से इतना कठिन मार्ग तय करके यहां पधारे हैं? यदि कोई बात विशेष गोपनीय न हो तो हमसे कहिए। हम आपकी क्या सेवा करें? परीक्षित! लीला से ही मनुष्य रूप धारण करने वाले भगवान श्री कृष्ण ने जब इस प्रकार ब्राह्मण देवता से पूछा, तब उन्होंने सारी बात कह सुनाई।

इसके बाद वे भगवान से रुक्मिणी जी का संदेश कहने लगे। रुक्मिणी जी ने कहा है - त्रिभुवन सुंदर! आपके गुणों को, जो सुनने वालों के कानों के रास्ते हृदय में प्रवेश करके एक-एक अंग के ताप, जन्म जन्म की जलन बुझा देते हैं तथा रूप सौंदर्य को, जो नेत्र वाले जीवों के नेत्रों के लिए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों के फल एवं स्वार्थ-परमार्थ, सब कुछ है, श्रवण करके प्यारे अच्युत! मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोड़कर आप में ही प्रवेश कर रहा है। प्रेम स्वरूप श्याम सुंदर! चाहे जिस दृष्टि से देखें कुल, शील, स्वभाव, सौंदर्य, विद्या, अवस्था, धन-धाम सभी में आप अद्वि तीय हंै, अपने ही समान है।

मनुष्य लोक में जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपका े दख्े ाकर शांि त का अनुभव करता है, आनंदित होता है। अब पुरुषभूषण! आप ही बतलाइए ऐसी कौन सी कुलवती, महागुणवती और धैर्यवती कन्या होगी, जो विवाह के योग्य समय आने पर आपको ही पति के रूप में वरण न करेगी? इसीलिए प्रियतम! मैंने आपको पतिरूप से वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूं। आप अंतर्यामी हैं। मेरे हृदय की बात आपसे छिपी नहीं है।

आप यहां पधारकर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिए। कमलनयन! प्राणवल्लभ! मैं आप सरीखे वीर को समर्पित हो चुकी हूं, आपकी हूं। मैंने यदि जन्म-जन्म में पूर्त (कुआं, बावली आदि खुदवाना), इष्ट (यज्ञादि करना) दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राह्मण और गुरु आदि की पूजा के द्वारा भगवान परमेश्वर की ही आराधना की हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो भगवान श्रीकृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें, शिशुपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरुष मेरा स्पर्श न कर सके।

प्रभो! आप अजित हैं। जिस दिन मेरा विवाह होनेवाला हो उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानी में गुप्त रूप से आ जाइए और फिर बड़े-बड़े सेनापतियों के साथ शिशुपाल तथा जरासंध की सेनाओं को मथ डालिए, तहस-नहस कर दीजिए और बलपूर्वक राक्षस विधि से वीरता का मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिए।

यदि आप यह सोचते हों कि मैं अंतःपुर में भीतर के जनाने महलों में पहरे के अंदर रहती हूं, मेरे भाई बंधुओं को मारे बिना आप मुझे कैसे ले जा सकते हैं? तो इसका उपाय मैं आपको बतलाए देती हूं। हमारे कुल का ऐसा नियम है कि विवाह के पहले दिन कुल देवी का दर्शन करने के लिए एक बहुत बड़ी यात्रा होती है, जुलूस निकलता है जिसमें विवाही जाने वाली कन्या को, दुलहिन को नगर के बाहर गिरिजा देवी के मंदिर में जाना पड़ता है। कमलनयन! उमापित भगवान शंकर के समान बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्मशुद्धि के लिए आपके चरणकमलों की धूल से स्नान करना चाहते हैं।

यदि मैं आपका वह प्रसाद, आपकी चरणधूल नहीं प्राप्त कर सकी तो व्रत द्वारा शरीर को सुखाकर प्राण छोड़ दूंगी। चाहे उसके लिए सैकड़ों जन्म क्यों न लेने पड़ें, कभी न कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य ही मिलेगा।

ब्राह्मण देवता ने कहा - यदुवंश शिरोमणे! यही रुक्मिणी के अत्यंत गोपनीय संदेश हैं, जिन्हें लेकर मैं आपके पास आया हूं। इसके संबंध में जो कुछ करना हो, विचार कर लीजिए और तुरंत ही उसके अनुसार कार्य कीजिए।

श्री शुकदेव जी कहते हैं - राजन्! भगवान श्री कृष्ण ने विदर्भराज रुक्मिणी जी का यह संदेश सुनकर और यह जानकर कि रुक्मिणी के विवाह की लग्न परसों रात्रि में ही है, दारुक सारथी को रथ ले आने की आज्ञा दी। दारुक शीघ्र ही अति तेजस्वी शीघ्रगामी चार घोड़ों से जुते रथ को भगवान श्री कृष्ण के समीप ले आया।

श्री कृष्ण भगवान ने ब्राह्मण् ादेवता को पहले रथ में चढ़ाकर स्वयं भी सवार हो उन शीघ्रगामी घोड़ों के द्वारा एक ही रात में आनर्त देश से विदर्भ देश में जा पहुंचे। कुण्डिन नरेश महाराज भीष्मक अपने बड़े लड़के रुक्मी के स्नेहवश अपनी कन्या चेदिनरेश राजा दमघोष के पुत्र शिशुपाल को देने के लिए विवाहोत्सव की तैयारी कर रहे थे।

उस समय रुक्मिणी जी अंतःपुर से निकलकर श्रीकृष्ण के चरण कमलों का चिंतन करती हुई भगवती भवानी के पादपल्लवों का दर्शन करने के लिए पैदल ही भवानी के मंदिर पहुंच विविधोपचार से पूजन कर मां भवानी सहित गणेशादि देवताओं को प्रणाम कर उनका मंगलमय आशीर्वाद प्राप्त किया। रुक्मिणी जी के मन के भावों को पूर्ण करने वाले देवकी नंदन श्रीकृष्ण ने बड़े-बड़े शस्त्रधारी शूरवीरों के देखते-देखते ही रुक्मिण् ाी जी को अपने रथ में बिठा लिया।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सभी विरोधी राजाओं का रुक्मी सहित मानमर्दन कर विदर्भ राजकुमारी रुक्मिणी जी को द्वारका में लाकर उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। भगवती लक्ष्मी जी को रुक्मिणी के रुप में साक्षात लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण के साथ देखकर द्वारकावासी नर-नारियों को परम आनंद हुआ।

श्रीकृष्ण रुक्मिणी जी का जयघोष होने लगा। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। विभिन्न प्रकार के वाद्य बजने लगे। द्वारका की शोभा तो अद्वितीय थी, उस शोभा का वाणी से वर्णन करना तो सहज ही नहीं है। विवाह संस्कार भारतीय संस्कृति के सोलहों संस्कारों में परम पवित्र संस्कार है। दो पवित्र आत्माओं का मिलन है। जीव ईश्वर का मिलन है।

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