कैसे बने वास्तु अनुरूप मंदिर
कैसे बने वास्तु अनुरूप मंदिर

कैसे बने वास्तु अनुरूप मंदिर  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 15066 | दिसम्बर 2007

मंदिर यदि वास्तुसम्मत हो तो उसम ंे साक्षात ब्रह्म के दर्शन का सौभाग्य मिल जाता है। मंदिरों के संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण वास्तु नियम इस प्रकार हैं।

भूमि: मंदिर हमेशा एक ऐसे पवित्र स्थान पर बनाना चाहिए जहां नदी, तालाब, समुद्री किनारा, झील, पहाड़ी चोटी, घाटी या सुंदर उद्यान हो और आस पास का वातावरण शुद्ध, पवित्र व धार्मिक हो। किसी तीर्थ स्थान पर मंदिर बनाना सर्वथा उपयुक्त रहता है। मंदिर के लिए चयनित भूमि वर्गाकार या आयताकार होनी चाहिए तथा उत्तर -दक्षिण के चुंबकीय ध्रुव भूमि की लंबाई के समानांतर होने चाहिए ऐसे मंदिर में स्वर्ग सा आनंद आता है।

दिशा: मंदिर निर्माण में दिशा का ज्ञान अति आवश्यक है। पूरा मंदिर पूर्वाभिमुख होना चाहिए अर्थात मंदिर का मुंह पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए क्योंकि पूर्व दिशा से ही सूर्य निकलता है जो अंधकार व अज्ञानता का शत्रु है और जीवनदायक है। मुख्य इमारत यदि पूरी भूमि को 64 वर्गों (8 गुणा 8) में बांटा जाए तो प्रत्येक दिशा के 8 वर्ग बनते हैं जिनमें से बीच के 2 वर्ग मुख्य द्वार के लिए होते हैं। मंदिर की चारों तरफ की दीवारों के मध्य चार द्वार होने चाहिए। पूरी भूमि के मध्य भाग के 4 वर्गों को गर्भ गृह के लिए छोड़ना चाहिए जहां प्रमुख देवता स्थापित किए जाते हैं। गर्भ गृह के चारों ओर के 12 वर्गों का स्थान परिक्रमा के लिए रखना चाहिए। मंदिर की मुख्य इमारत भूमि के र्नैत्य कोण की ओर बननी चाहिए। गोदाम व दुकानें वायव्य कोण की ओर हों, भूमिगत जल भंडारण या कुएं ईशान कोण की ओर तथा रसोई व विश्राम स्थल अग्निकोण की ओर होने चाहिए। फव्वारे व कमल के तालाब भी मंदिर के ईशान कोण की ओर होने चाहिए। स्नानघर पूर्व दिशा तथा शौचालय मंदिर की भूमि से बाहर र्नै त्य कोण की ओर होना चाहिए। दीपस्तंभ, अग्निकुंड व होमकुंड भूमि के अग्निकोण की ओर होना चाहिए। मंदिर के चारों तरफ सड़क हो।

तुलसी के पौधे पूर्व की ओर और चमेली व चंपा के वायव्यकोण की ओर होने चाहिए। मुख्य पूजा स्थल मुख्य भवन के ईशान कोण की तरफ होना चाहिए। संपूर्ण मंदिर की ढलान पूर्व व उत्तर दिशा की ओर होनी चाहिए। मंदिर के पुजारी को मंदिर के अंदर बने कमरों में नहीं रहना चाहिए। सभा स्थल की ऊंचाई मुख्य मंदिर की उंचाई से कम होनी चाहिए। सभा स्थल के पश्चिम में मंच होना चाहिए। वाहन रखने की व्यवस्था मंदिर के पूर्व या उत्तर दिशा में बाहर की ओर हो।

मंदिर में दक्षिण द्वार की ओर से प्रवेश करने से पहले जूते रखने का इंतजाम होना चाहिए। पूर्व दिशा के द्वार की ओर पीने के पानी या हाथ पैर धोने का इंतजाम होना चाहिए। मंदिर में नारियल तोड़ने का स्थान मंदिर के बाहर पूर्व या उत्तर दिशा में हो तो अच्छा रहता है। खंभों व फर्श का रंग सफेद, पीला या हल्का सुनहरा हो तो शुभ रहता है। मंदिर की छाया दूसरे भवनों पर नहीं पड़नी चाहिए। मंदिर के सामने किसी तरह की अन्य कोई इमारत नहीं होनी चाहिए। विवाह समारोह मंदिर के अंदर नहीं, मंदिर के पश्चिम या दक्षिण दिशा की ओर होने चाहिए। संगीत की व्यवस्था वायव्य कोण की ओर की जा सकती है। दान पात्र पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखा जा सकता है। मुख्य द्वार पूर्व दिशा का द्वार सर्वाधिक शुभ, उत्तर दिशा का मध्यम और दक्षिण दिशा का अशुभ होता है। मुख्य द्व ार हमेशा जगमगाता रहना चाहिए। मुख्य द्वार की ऊंचाई उसकी चैड़ाई से दोगुनी होनी चाहिए। मुख्य देव प्रतिमा यदि पूर्व दिशा के मुख्य द्वार के 9 भाग किए जाएं तो मुख्य देव प्रतिमा की दृष्टि सातवें भाग पर होनी चाहिए। इसी गणनानुसार देव प्रतिमा की ऊंचाई रखनी चाहिए। इस दृष्टि के सामने इमारत, खंभा, पेड़ आदि नहीं आने चाहिए। सामने केवल मुख्य द्वार या सड़क होनी चाहिए। प्रतिमा का आधार स्थल फर्श से ऊंचा होना चाहिए। भक्तगण को देव प्रतिमा को सीधे नहीं छूना चाहिए, कोई प्रतीक चिह्न भक्तों के समीप बनाना चाहिए। कवे ल पुजारी का े ही मुख्य दवे प्रतिमा के करीब जाना चाहिए। यदि मंदिर में दूसरे देवताओं के भी छोटे मंदिर हों तो केवल भगवान हनुमान व देवी काली का मुख दक्षिण दिशा की ओर होना चाहिए। भगवान शिव का मुख पश्चिम व भगवान विष्ण् ाु का हमेशा पूर्व दिशा की ओर हो। सूर्योदय से 3 घंटे तक सूर्य की किरणें सीधे मुख्य देव प्रतिमा पर पूर्व दिशा की खिड़की या द्वार से पड़नी चाहिए। देवता के पीछे की ओर कोई कमरा नहीं बनाना चाहिए। नारियल के पानी का छिड़काव देवता पर नहीं करना चाहिए। मुख्य घंटी, ध्वनि उपकरण आदि मुख्य देवता के पूजा स्थल के अंदर न हो। मुख्य देवता के चारों ओर वर्गाकार, आयताकार, अष्टकोणीय या गोलाकार खंभे होने चाहिए न कि षटकोणीय।

रंग: मंदिर की दीवारों का रंग काला नहीं होना चाहिए। चूंकि मंदिर की सबसे उपयुक्त दिशा पूर्व-उत्तर है व इस दिशा के रंग हल्का नीला, सफेद और हल्का हरा हैं, इसलिए यही रंग मंदिर में प्रयुक्त होने चाहिए। कुछ प्रसिद्ध उदाहरण भारत में ऐसे बहुत से प्राचीन मंदिर हैं जिनका निर्माण वास्तु के नियमों के अनुसार हुआ है। वास्तु सिद्धांतों का इन मंदिरों में पूरी तरह से पालन किया गया है। इसी कारण वे आज तक विद्यमान व प्रसिद्ध हैं। इन मंदिरों के प्रति लोगों की अगाध श्रद्धा व विश्वास है।

इनमें कुछ प्रमुख हैं- अमृतसर का स्वर्ण मंदिर, तिरुपति का बाला जी मंदिर, मदुरई का मीनाक्षी मंदिर, रामेश्वरम मंदिर, कन्याकुमारी में विवेकानंद स्मारक स्थल, पुरी में जगन्नाथ मंदिर, आसाम में कामाख्या देवी मंदिर, बनारस का विश्वनाथ मंदिर व आगरे का ताजमहल।

अमृतसर का स्वर्ण मंदिर: इसके चारों तरफ सरोवर अति शुभ है। वर्गाकार भूमि पर मंदिर का निर्माण किया गया है। उत्तर दिशा का द्वार वास्तु का अनुरूप है।

नासिक का त्रयंबकेश्वर मंदिर: उत्तर-दक्षिण की लंबाई पूर्व-पश्चिम की लंबाई से अधिक है इसलिए यहां आस्थावान भक्तों का भीड लगी रहती है। पश्चिम व र्नैत्य दिशाएं पहाड़ियों से घिरी हैं तथा ईशान कोण में तालाब है जो अति शुभ है।

बनारस का काशी विश्वनाथ मंदिर: यह पवित्र नदी गंगा के किनारे स्थित है। गंगा नदी का बहाव पूर्व की ओर है जो अति शुभ होता है। भगवान विश्वेश्वर पूर्वाभिमुख हैं व मुख्य द्वार पूर्व की ओर है।

तिरुपति का बालाजी मंदिर ः दक्षिण व र्नैत्य में पहाड़ों की शंृखला है। ढलान पूर्व व उत्तर की ओर है। उत्तर दिशा में द्वार व ईशान कोण में तालाब है। इन सबके फलस्वरूप मंदिर अत्यंत समृद्ध है।

घर में मंदिर इस संदर्भ में वास्तु के नियम इस प्रकार हैं: पूजा घर हमेशा घर के ईशान कोण में होना चाहिए। पूजा करते समय पुजारी का चेहरा पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए। किसी भी मूर्ति का आकार 6 इंच से बड़ा नहीं होना चाहिए। फोटो बड़ी हो सकती है।

गणेश जी की मूर्ति पूर्व दिशा की दीवार पर लगानी चाहिए। शयन कक्ष में मंदिर नहीं होना चाहिए। मंदिर के साथ शौचालय या रसोईघर नहीं होना चाहिए। मंदिर में केवल बच्चे ही सो सकते हैं।

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