भारत वर्ष में पवित्र पुनीत श्रावण मास में संपादित होने वाले पर्व त्योहारों में नाग पंचमी की अपनी अलग महिमा है। देश के अधिकतर भागों में यह पर्व श्रावण शुक्ल पंचमी को मनाया जाता है। किंतु कुछ भागों में इसे कृष्णपक्ष में भी मनाए जाने की परंपरा है। लोकाख्यानों में उल्लिखित है कि चराचर नाथ ने आदिकाल में जगत रक्षार्थ जिन जीवधारियों का निर्माण किया उनमें नाग सर्वोपरि है।
संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में किसी न किसी रूप में आदर प्राप्त नाग को देवाधिदेव शिव का आभूषण कहा गया है, जिसे वे सदैव गले में धारण किए रहते हैं। शास्त्र में उल्लेख है कि सर्प जाति को गरुड़राज से उबारने वाले शिव इस जाति के परम संरक्षक हैं। धर्मज्ञों की राय में यह धरती शेष नाग पर ही अवलंबित है। समुद्र मंथन की कथा भी वासुकि नाग से संबद्ध है। धर्मशास्त्रों के अनुसार दक्ष प्रजापति की पुत्री कद्रु से उत्पन्न कश्यप ऋषि के पातालवासी वंशज नाग हैं और इनके वंश को नागवंश कहा गया है जो आदि काल से हिमालय की एक प्राचीन जाति के रूप में ख्यात है।
शिव शंकर के अतिरिक्त गणपति, विष्णु, भैरव, कार्तिकेय, देवी मनसा, बिहुला भवानी, विषहरी देवी आदि के साथ भी नाग का संबंध सर्वविदित है। इसी तरह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक का नाम नागेश्वर है। प्रागैतिहासिक भारत में भी सूर्य और नागों का विशेष धार्मिक महत्व था। सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों से प्राप्त मुहरों में भी नागों का अंकन देखा जा सकता है जिनमें कितने में फण भी हैं।
एक ताबीज में एक नाग चबूतरे पर लेटा है। इतिहासज्ञ मैके का मानना है कि ऐसे ही चबूतरे पर नागों के लिए दूध रखा जाता था। पंचमार्क सिक्कों में भी अन्य वस्तुओं के साथ-साथ नाग अंकित सिक्के का मिलना इस बात का सूचक है कि उस जमाने तक समाज में नाग को धार्मिक महत्व मिल चुका था।
भारतीय जनपद एवं गण राज्यों के सिक्कों में भी नाग को स्थान दिया गया है। इनमें पांचाल व मथुरा क्षेत्र से प्राप्त प्राचीन सिक्के प्रमुख हैं। गुप्त काल के पूर्व उदित नागवंश का राजकीय चिह्न नाग ही था जैसा कि गुप्तों का गरुड़ और मौर्यों का मोर बौद्ध साहित्य में भी ‘मुचलिंद’ नामक एक नागराज की चर्चा है जिसने तथागत बनने की राह में साघनारत योगी सिद्धार्थ की अपने विशालतम फण से रक्षा की थी।
इस कथा से जुड़ा तालाब आज भी है जिसे ‘मुचलिंद’ सरोवर’ कहा जाता है। यह महाबोधि महाविहार परिसर में ही है। इसके अतिरिक्त भरहूत, सांची, बोध गया व अमरावती स्थित स्तूपों और वेदिकाओं में नाग का अंकन इसकी महत्ता का मूक गवाह है। देश की प्राचीनतम राजधानी राजगीर का मणियार मठ’ भी नाग पूजन का प्रमुख केंद्र है जिसे हिंदू ओर बौद्ध धर्मो का संगम स्थल बताया गया है।
जैन धर्म के 23 वें तीर्थंकर श्री पाश्र्वनाथ को मूर्तिशिल्प में फणधारी नाग से शोभित दिखाया गया है। जिसकी संप्राप्ति इन्हें पितृ परंपरा से हुई थी। ईसाई व इस्लाम धर्म की कथा-कहानियों में भी सर्प के कई रोचक व हैरतअंगेज कारनामांे का उल्लेख है। इतिहास गवाह है कि भारत के स्वर्णकाल गुप्तयुग में अन्य देवी देवताओं के साथ सर्प पूजन का भी समाज में प्रचलन था।
इस युग के बने मंदिरों में इन्हें यथोचित स्थान दिया गया है। विश्व के सर्वाधिक लंबे व विषयुक्त सांप नाग को उसकी विशिष्टता के कारण ही सर्पराज कहा जाता है जो अत्यधिक तेज व बुद्धिमान होता है। लोग कहते हैं कि यह मनुष्य को देखते उस पर टूट पड़ता है जबकि वास्तविकता यह है कि मौका मिलते ही यह मनुष्य की नजरों से दूर चला जाता है। सनातन धर्म में इसके आरंभ से ही नागों की पूजा होती रही है।
यही कारण है कि उनसे जुड़ी कहानियों की हमारे देश में कोई कमी नहीं है। हमारे धर्म में प्रत्येक दिन सुबह-शाम अन्यान्य देवी देवताओं के साथ नागों के स्मरण का भी विधान किया गया है जिनकी कुल संख्या नौ है - ‘‘अनंतनाग, वासुकि नाग, शेषनाग , पùनाभनाग, कंबलनाग, शंखपाल नाग, धार्तराष्ट्रनाग, तक्षकनाग और कालियानाग इन नाग नामों का सुबह शाम पाठ करने वाले जातक पर उनके विष का प्रभाव नहीं पड़ता और वह सदैव विजयी होता है।
भारत वर्ष में नागों के प्रति लोगों में गहरी आस्था रही है। अनेक गांवों-नगरों के नाम के मूल में नाग है यथा नागालैंड (पूर्वोत्तर राज्य), नागद्वीप (अंडमान निकोबार) नागोदरी, नागदा और नागौर (राजस्थान ); नागपहनम और नागनूर (आंध्र प्रदेश); नागखंड (कर्नाटक); नागपुर (महाराष्ट्र), नागरा (म. प्र.); नागधन्वा (पंजाब); नागरकोईल (तमिलनाडु); अनंत नाग और शेष नाग (कश्मीर) आदि। देश में नाग देवता के अनेक मंदिर हैं जिनमें तीर्थराज प्रयाग का वासुकि नाग मंदिर सर्वोपरि है।
नागपूजन का प्राच्य केंद्र श्री वैद्यनाथ धाम के अतिरिक्त मथुरा भी है। इसके समीपस्थ सोंख नामक पूजा स्थल से एक नाग मंदिर का अवशेष मिला है। भविष्य पुराण के ब्रह्मपर्व में नागपंचमी की कथा का विशद वर्णन है। कथा है कि आस्तीक मुनि ने सर्पयज्ञ रोकने के लिए पांडववंशी राजा जनमेजय को राजी किया तथा नागों की रक्षा की। कारण नागमाता कद्रु ने अपने नागपुत्रों को श्राप दे दिया था।
जिस दिन यह महायज्ञ रोका गया उस दिन श्रावण शुक्ल पंचमी थी। चूंकि संपूण्र् ा नाग जाति का यही विजय दिवस रहा, इसलिए शिव जी की सहमति से इस तिथि को नाग पूजन का शास्त्रोक्त विधान है जिसकी परिपाटी आज भी देखी जा सकती है।
इस तरह भारत अपने जिन विविध गौरवशाली पर्वों के कारण विश्वविख्यात है उनमें नागपंचमी भी एक है। यह सर्पजाति और खासकर नाग के प्रति सम्मान, आदर्श व आस्था प्रकट करने के लिए मनाया जाता है। क्यों सर्प अन्य जंगम जीवों की भांति मानव समुदाय के सहयोगी रहे हैं।
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