श्री संतोषी माता व्रत
श्री संतोषी माता व्रत

श्री संतोषी माता व्रत  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 12927 | जुलाई 2007

श्रीसंतोषी माता व्रत शुक्रवार व्रत के नाम से भी प्रसिद्ध है। यह व्रत माह में पड़ने वाले किसी भी शुक्रवार या प्रत्येक शुक्रवार को किया जाता है। यह एक परम पवित्र व्रत है जिसके श्रद्धा भक्ति पूर्वक करने और कथा श्रवण से सद्गृहस्थ प्राणियों से युक्त घर में सभी प्रकार का सुख और संतोष आता है।

इस व्रत के प्रभाव से धन-धान्य की प्राप्ति, धंधे में बरकत और दरिद्रता तथा गृह क्लेश का नाश संतान सुख की प्राप्ति और शोक, विपत्ति, चिंता आदि से मुक्ति मिलती है। इस व्रत में खटाई का प्रयोग नहीं करें। प्रातः काल ब्राह्म मुहूर्त में जागकर नित्य कर्म स े निवृत्त हाके र श्री सतं ाष्े ाी माता के व्रत हेतु संकल्प लेकर गणेश, गौरी, वरुण, नवग्रहादि देवताओं का पूजन कर श्री संतोषी माता का षोडशोपचार पजू न कर।ंे नवै द्ये म ंे माता को गुड़ व चने का प्रसाद चढ़ाएं।

संतोषी माता की जय, संतोषी माता की जय बोलते हुए हाथ में गुड़ चने व लेकर प्रेम से कथा का श्रवण करें। कथा विश्राम के बाद हाथ का गुड़ व चने गौ माता को खिलाएं। माता को अर्पित नैवेद्य प्रसाद रूप में सभी भक्तों को बांट दें। कलश में भरे हुए जल को संपूर्ण घर में छिड़क दें तथा कुछ जल का पान कर लें।

इसकी कथा इस प्रकार है। एक बुढ़िया थी। उसके सात बेटे थे। छः कमाने वाले थे, एक निकम्मा था। बुढ़िया मां छहों पुत्रों के लिए रसोई बनाती, भोजन कराती और पीछे जो कुछ बचता उसे सातवें को दे देती थी, परंतु वह बड़ा भोला था, मन में कुछ विचार न करता।

एक दिन वह अपनी स्त्री से बोला, ‘देखो, मेरी माता का मुझ पर कितना प्रेम है?’ वह बोली ‘क्यों नहीं? इसीलिए तो सबका बचा हुआ जूठा तुम्हें खिलाती हैं।’ वह बोला- ‘भला ऐसा कभी हो सकता है? मैं जब तक आंखों से न देखूं तब तक मान नहीं सकता।’ बहू ने हंसकर कहा- ‘देख लोगे तब तो मानोगे?’ कुछ दिन बाद त्योहार आया, घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमे के लड्डू बने। वह पता लगाने के लिए सिर दुखने का बहाना कर पतला वस्त्र सिर पर ओढ़ रसोई घर में सोया रहा और कपड़े से सब देखता रहा। छहों भाई भोजन करने आए।

उसने देखा कि उसने सुंदर आसन बिछाए हैं और सात प्रकार की रसोई परोसी है। आग्रह करके उन्हें जिमाती है। वह देखता रहा। छहों भाई भोजन कर उठे। अब बुढ़िया मां ने उनकी थालियों से लड्डू के टुकड़े उठाए और एक लड्डू बनाया। जूठन साफ कर बुढ़िया ने उसे पुकारा ‘उठ बेटा। छहों भाई भोजन कर गए, अब तू ही बाकी है, उठ न, कब खाएगा? वह कहने लगा- ‘मुझे भोजन नहीं करना है।

मैं परदेश जा रहा हूं।’ माता ने कहा- ‘कल जाता हो तो आज ही चला जा। वह बोला - ‘हां हां, आज ही जा रहा हूं।’ यह कहकर वह घर से निकल गया। चलते समय बहू की याद आई, वह गौशाला में कंडे पाथ रही थी। वह जाकर बोला- ‘मैं परदेश जा रहा हूं। तुम हृदय में धीरज रख कर अपना धर्म पालन करते, रहना। मैं कुछ दिन बाद आऊंगा।

मेरे पास और तो कुछ नहीं, कवे ल यह अगं ठू ी है, सो इसे ले ले और अपनी कुछ निशानी मुझे दे दे।’ बहू बोली - ‘मेरे पास क्या है? यह गोबर भरा हाथ है? उसने उसकी पीठ पर गोबर के हाथ की थापी मार दी। वह चल दिया। चलते-चलते दूर देश में पहुंचा। वहां एक साहूकार की दुकान थी। वहां जाकर कहने लगा- ‘भाई ! मुझे नौकरी पर रख लो।’ व्यापारी को नौकर की जरूरत थी।

बोला- ‘रह जा।’ लड़के ने पूछा - ‘तनख्वाह क्या दोगे?’ साहूकार ने कहा- काम देखकर दाम मिलेंगे।’ साहूकार की नौकरी मिली। वह सबेरे सात बजे से रात बारह बजे तक नौकरी बजाने लगा। थोड़े ही दिन में वह दूकान का लेन देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना आदि सारा काम करने लगा। साहूकार के 7-8 नौकर थे, वे सब चक्कर खाने लगे।

वह तो काफी होशियार हो गया। सेठ ने भी काम देखा और तीन महीने में ही उसे आधे मुनाफे का हिस्सेदार बना लिया। बाहर वर्षों में ही नामी सेठ बन गया और मालिक उसके जिम्मे सारा कारोबार छोड़ कर बाहर चला गया। इधर बहू पर क्या बीती, सुनें। सास-ससुर उसे बहुत दुख देने लगे। सारी गृहस्थी का काम कराके वे उसे लकड़ी लेने जंगल भेजते। इस बीच घर की रोटियों के आटे से जो भूसी निकलती, उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल की नरेली में पानी।

इस प्रकार दिन गुजरते रहे। एक दिन वह लकड़ी लाने जा रही थी कि उसने देखा कि रास्ते में बहुत सी स्त्रियां संतोषी माता का व्रत कर रही थीं। वह वहां खड़ी हो गयी, कथा सुन पूछने लगी- ‘बहनो ! यह तुम किस देवता का व्रत करती हो और इसके करने से क्या फल मिलता है। इसके करने की क्या विधि है? यदि तुम अपने उस व्रत का विधान मुझे समझाकर कहोगी तो मैं तुम्हारा बड़ा उपकार मानूंगी।’

तब एक स्त्री बोली- ‘यह संतोषी माता का व्रत है, इसके करने से निर्धनता का नाश और लक्ष्मी का आगमन होता है। साथ ही बाहर गया हुआ पति वापस घर आता है, पुत्र की प्राप्ति होती है, चिंताओं कलह, क्लेश आदि से मुक्ति मिलती है और सभी कामनाएं पूरी होती हैं। वह पूछने लगी- ’यह व्रत किया कैसे जाए, यह भी बता दो तो बड़ी कृपा होगी।’

उस स्त्री ने कहा, ‘सवा आने का, सवा पांच आने का या सवा रुपये का गुड़-चना लेना।’ प्रत्येक शुक्रवार को निराहार रहकर कथा सुनना। यह क्रम टूटे नहीं, नियम का पालन करना चाहिए। सुनने वाला कोई न मिले तो घी का दीपक जला आगे रख या जल के पात्र को सामने रख कर कथा कहना, परंतु नियम न टूटे।

जब तक कार्य पूरा न हो, नियम का पालन करना और कार्य सिद्ध हो जाने पर व्रत का उद्यापन करना। तीन मास में माता फल पूरा करती हैं। इसमें यदि किसी के ग्रह खोटे हों तो भी तीन बरस में अवश्य ही कार्य की सिद्धि करती हैं। फल की सिद्धि होने पर ही उद्यापन करना चाहिए, बीच में नहीं। उद्यापन में ढाई सेर आटे के खाजा तथा इसी परिमाण में खीर तथा चना का शाक करना।

आठ लड़कों को इसमें भोजन कराना। यथासंभव देवर, जेठ, भाई-बंधु व कुटुंब के लड़के लेना, यदि वे न मिलें तो रिश्तेदारों और पड़ोसियों के लड़कों को भोजन करा यथाशक्ति दक्षिणा देकर माता का नियम पूरा करना। ध्यान रखना उस दिन घर म ंे खर्टाइ र्काइे न खाए।ं उस स्त्री से व्रत का विधान सुनकर वह चल दी। रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से गुड़ व चने लेकर माता के व्रत की तैयारी की।

सामने एक मंदिर देख उसने लोगों से पूछा ‘सामने मंदिर किसका है?’ लोगों ने कहा- ‘संतोषी माता का।’ यह सुन माता के मंदिर में जा, उनके चरणों में लोटने लगी और विनती करने लगी - ‘मां ! मैं निपट अज्ञानी हूं। व्रत के नियम जानती नहीं। मैं बहुत दुखी हूं। हे माता ! जग जननी ! मेरा दुख दूर करो। मैं तुम्हारी शरण में हूं।’ माता को दया आ गई। एक शुक्रवार बीता। अगले ही शुक्रवार को उसके पति का पत्र आया और तीसरे को उसका भेजा हुआ पैसा आ पहुंचा।

यह देख घर के सभी लोग उससे जलने और ताने देने लगे। बेचारी सरलता से कहती- ‘भैया कागज आए या रुपया, हम सबके लिए तो अच्छा ही है। उनके ताने सुनकर वह आंखांे में आंसू भरकर संतोषी माता के मंदिर में जाती और उनके चरणों में गिरकर रोने लगती- ‘मैंने तुमसे पैसा कब मांगा है? मुझे पैसे से क्या काम ? सुहाग से काम है। मैं तो अपने स्वामी का दर्शन और सेवा मांगती हूं।’ तब माता ने प्रसन्न होकर कहा- ‘जा बेटी, तेरा स्वामी आएगा।’

यह सुन खुशी से बावली वह घर जा काम करने लगी। उधर संतोषी मां उस स्त्री के पति के स्वप्न में प्रकट हुईं उससे अपनी पत्नी की सुध लेने को कहा। इस पर वह बोला- ‘हां मां ! यह तो मुझे मालूम है परंतु जाऊं कैसे? परदेश की बात, लेने-देन का कोई हिसाब नहीं, कोई जाने का रास्ता नजर नहीं आता, कैसे चला जाऊं?’ तब मां बोलीं- ‘मेरी बात मान, सबेरे नहा धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला, दंडवत कर, दुकान पर जा बैठ।

देखते-देखते ही तेरा लेन-देन चुक जाएगा, जमा माल बिक जाएगा और सांझ होते-होते धन का भारी ढेर लग जाएगा।’ अगली सुबह उसने ऐसा ही किया शाम तक धन का ढेर लग गया। मन में माता का नाम ले, उनका चमत्कार देख प्रसन्न हो घर जाने के लिए गहने, कपड़े आदि सामान खरीदने लगा। यहां के काम से निपट तुरंत घर को रवाना हुआ। उधर, बेचारी बहू जंगल में लकड़ी चुन रही थी।

लौटते वक्त रोज की तरह माता के मंदिर में विश्राम करने लगी। इतने में दूर धूल उड़ती देख, उसने माता से पूछा- ‘हे मां ! यह धूल कैसे उड़ रही है?’ मां ने कहा- ‘पुत्री ! तेरा पति आ रहा है। अब तू लकड़ियों के ऐसे तीन बोझ बना ला। एक नदी किनारे रख, दूसरा मेरे मंदिर पर और तीसरा अपने सिर पर। तेरा लकड़ी का गट्ठा देख उसे मोह पैदा होगा। वह यहां रुकेगा, भोजन आदि बना खाकर मां से मिलने जाएगा। तब तू लकड़ी का बोझ उठाकर जाना और बीच चैके में गट्ठा डालकर तीन आवाज जोर से लगाना, ‘लो सासूजी ! लकड़ियों का गट्ठा लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपड़े में पानी दो, आज मेहमान कौन आया है?’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर वह प्रसन्न मन हो लकड़ियों के तीन गट्ठे ले आई।

एक नदी पर, एक माता के मंदिर पर रखा, इतने में ही एक मुसाफिर आ पहुंचा। लकड़ी देख उसकी इच्छा हुई कि यहीं मुकाम डालें और भोजन बना खा-पीकर गांव जाएं। इस प्रकार रुककर भोजन और वि. श्राम कर वह गांव गया। सबसे प्रेम से मिला।

उसी समय उसकी बहू सिर पर लकड़ी का गट्ठा लिए उतावली सी आई लकड़ी का भारी बोझ आंगन में डाल जोर से तीन बार आवाज दी, ‘लो सासू जी ! लकड़ियों का गट्ठा लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपड़े में पानी दो, आज मेहमान कौन आया है?’ यह सुनकर उसकी सास बाहर आई और कहा- ‘तेरा मालिक ही तो आया है। आ बैठ, भात का भोजन कर, कपड़े, गहने पहिन। इतने में आवाज सुनकर उसका स्वामी बाहर आया और अंगूठी देख व्याकुल हो उठा और मां से पूछा- ‘मां ! यह कौन है ?’ मां बोली- ‘बेटा ! यह तेरी बहू है।

आज बारह बरस हो गए हैं, सारे गांव में जानवर की तरह भटकती फिरती है। काम काज कुछ करती नहीं, चार बार आकर खा जाती है। अब तुझे देखकर भूसी की रोटी और नारियल के खोपड़े में पानी मांगती है।’ वह लज्जित हो बोला- ‘ठीक है मां! मैंने इसे भी देखा है और तुम्हें भी। अब मुझे दूसरे घर की ताली दो तो मैं रहूं। तब मां बोली ठीक है बेटा ! तेरी जैसी मरजी हो वही कर।’ यह कह कर ताली का गुच्छा पटक दिया। उसे लेकर दूसरे मकान में जा उसने तीसरी मंजिल के ऊपर का कमरा खोला और वहीं सामान जमाया।

एक ही दिन में वहां राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया। इतने में अगला शुक्रवार आया। उसने पति से कहा- ‘मुझे संतोषी माता का व्रत उद्यापन करना है।’ उसका पति बोला-‘बहुत अच्छा। खुशी से कर ले।’ वह तुरंत ही उद्यापन की तैयारी करने लगी। फिर जेठ के लड़कों को भोजन करने के लिये कहने गई। लड़कों ने मन्जूर किया। लेकिन जेठानी ने अपने बच्चों को समझाया- ‘देखो !- भोजन के समय सब लोग खटाई मांगना, जिससे उद्यापन पूरा न हो।’

लड़के जीमने आए। सभी ने खीर आदि का खाना पेट भर खाया। फिर बात याद आते ही कहने लगे- ‘हमें कुछ खटाई दो, खीर हमें अच्छी नहीं लगती, देखकर अरुचि होती है।’ उसने कहा -‘भाई ! खटाई किसी को नहीं दी जाएगी। यह तो संतोषी माता का प्रसाद है।’ लड़के उठ खड़े हुए और बेले- ‘तो फिर पैसा ही दक्षिणा में दो।’ भोली बहू कुछ जानती न थी, उन्हें पैसे दे दिए लड़के उसी समय हठ करके इमली खाने लगे। यह देख बहू पर माता ने कोप किया। राजा के दूत उसके पति को पकड़ ले गए। जेठ जिठानी खोटे वचन कहने लगे।

अब सब मालूम पड़ जाएगा, जब जेल की मार खाएगा। बहू से यह वचन सहन नहीं हुए। रोती-रोती माता के मंदिर गई और पूछा- ‘माताजी ! यह तुमने क्या किया? हंसा कर अब क्यों रुलाने लगी।’ माता बोली - ’पुत्री ! तूने मेरा व्रत भंग किया। इतनी जल्दी सारी बातें भुला दीं।’ उसने कहा- ‘माता ! भूली तो नहीं, कुछ अपराध किया है? मुझे तो लड़कों ने भुलावे में डाल दिया। मैंने भूल से उन्हें पैसे दे दिए, मुझे क्षमा करो मां।’ मां बोली - ‘ऐसे भी भूल होती है।’ वह बोली-‘मां ! मुझे माफ कर दो ।

मैं तुम्हारा उद्यापन पुनः करूंगी। मां बोलीं- ‘अब भूल मत करना। वह बोली- ‘अब भूल न होगी मां! अब बताओ मां मेरे पति कब आएंगे?’ मां बोलीं- ‘जा पुत्री। तेरा मालिक तुझे रास्ते में ही आता मिलेगा। वह निकली, राह में उसे पति आता मिल गया। उसने पूछा- ‘तुम कहां गये थे?’ वह बोला- ‘इतना धन जो कमाया है उसका टैक्स राजा ने मांगा था, वही भरने गया था। दोनों घर गए।

अगले शुक्रवार को उसने फिर माता का उद्यापन किया। फिर जेठ के बच्चों को भोजन के लिए कहने गई। इस बार जेठानी ने लड़कों से खटाई पहले मांगने को कहा। लड़कों ने वैसा ही किया। इस पर उसने उन्हें छोड़ ब्राह्मणों के लड़कों को बुलाकर भोजन कराया और यथाशक्ति दक्षिण् ाा दी। उन्हें एक-एक फल भी दिया।

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