कृष्णमूर्ति पद्धति समय-समय पर ज्योतिष के क्षेत्र में ज्योतिष महर्षियों द्व ारा विभिन्न विषयों पर अनुसंधान होते आए हैं। फलस्वरूप ज्योतिष की कई पद्धतियों की उत्पत्ति हुई।
20वीं सदी में नामक कृष्णमूर्ति महान ज्योतिर्विद हुए जिन्होंने ज्योतिष में अपने प्रयोगों द्वारा एक नीवन सूक्ष्म पद्धति का अविष्कार किया जो उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध है- आज कई ज्योतिषी इसके अनुयायी है। कृष्णमूर्ति जी ने अपनी इस पद्धति में नक्षत्र और विंशोत्तरी दशा को आधार माना है। जन्म लग्न, ग्रह स्पष्ट और विंशोत्तरी दशा निकालने का तरीका वही है जो आमतौर पर प्रयोग में लाया जाता है।
जन्म लग्न स्पष्ट करने के बाद भाव स्पष्ट करने के लिए उन्होंने प्लेसिडस पद्धति का प्रयोग किया है। ग्रहों और भावों को स्पष्ट कर उनके नक्षत्र स्वामी और नक्षत्र उप स्वामी तक निकाला है। नक्षत्र उप स्वामी निकालने के लिए प्रत्येक नक्षत्र की अंश अवधि को नौ भागों में विंशोत्तरी दशा अनुपात के अनुसार विभक्त किया जाता है। प्रत्येक भाग के स्वामी नवग्रह विंशोत्तरी क्रम में ही रखे जाते हैं।
अर्थात् केतु, शुक्र, सूर्य, शनि और बुध आदि। गणना में सभी ग्रहों और भावों को स्पष्ट कर उनके नक्षत्र स्वामी और नक्षत्र उप स्वामी निकालना कृष्णमूर्ति पद्धति की विशेषता है। इसी के आधार पर कुंडली में शुभाशुभ ग्रहांे को जाना जाता है।
प्रश्न: वैदिक ज्योतिष पद्धति और कृष्णमूर्ति पद्धति में क्या अंतर है?
उत्तर: वैदिक ज्योतिष पद्धति के अनुसार फलित करते समय जन्म लग्न, भाव चलित, षोडश वर्ग, षडबल, विंशोत्तरी दशा, योगिनी दशा आदि का प्रयोग किया जाता है और ग्रह की शुभता अशुभता की गणना ग्रहों की राशि अनुसार की जाती है जबकि कृष्णमूर्ति पद्धति में फलित करने के लिए जन्म लग्न, निरयण भाव चलित, भावों और ग्रहों के नक्षत्र स्वामी और नक्षत्र उप स्वामी की विंशोत्तरी दशांतर्दशा का प्रयोग किया जाता है और ग्रहों की शुभता-अशुभता उनके नक्षत्र और नक्षत्र उप स्वामी से जानी जाती है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार ग्रह उस भाव का फल देता है जिसका वह स्वामी होता है, जिसमें स्थित होता है और जिस पर उसकी दृष्टि होती है। कृष्णमूर्ति पद्धति के अनुसार ग्रह उन भावों का फल देता है जिन का वह कारक होता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार फलित करते समय ग्रह का गोचर कुंडली में चंद्र की स्थिति से देखा जाता है। पद्धति अनुसार ग्रहों का गोचर उनकी उप नक्षत्र स्वामी की स्थिति पर निर्भर करता है।
प्रश्न: क्या कृष्णर्मूिर्त पद्धति से घंटे-मिनट तक की भी भविष्यवाण् ाी की जा सकती है?
उत्तर: हां, कृष्णमूर्ति पद्धति घंटे-मिनट तक का फलकथन करने में सक्षम है क्योंकि इस पद्धति में हर भाव और ग्रह के सूक्ष्म अंशों तक की गणना कर फलकथन करने का विधान है।
प्रश्न: कृष्णमूर्ति पद्धति का प्रयोग फलकथन में कब करना चाहिए?
उत्तर: कृष्णमूर्ति पद्धति का प्रयोग फलकथन में कभी भी किया जा सकता है। लेकिन ज्योतिष के अधिकतर विद्वान प्रश्नों के उत्तर देने में इसका प्रयोग अधिक करते हैं। इसके अतिरिक्त घटना के समय निर्धारण में भी इस का प्रयोग किया जाता है। विवाह का समय, नौकरी मिलने का समय आदि की जानकारी के लिए भी कृष्णमूर्ति पद्धति विशेष सक्षम है।
प्रश्न: क्या कुंडली मिलान भी कृष्णमूर्ति पद्धति से किया जा सकता है?
उत्तर: कृष्णमूर्ति पद्धति में कुंडली मिलान का कोई अध्याय नहीं है। कुंडली मिलान के लिए वैदिक पद्धति का ही प्रयोग करना चाहिए।
प्रश्न: कृष्णमूर्ति पद्धति में नक्षत्र स्वामी और नक्षत्र उप स्वामी को महत्व दिया गया जबकि वैदिक पद्धति में राशि स्वामी को। ऐसा क्यों?
उत्तर: कृष्णमूर्ति पद्धति की यही विशेषता है कि उसमें नक्षत्र स्वामी और नक्षत्र उप स्वामी तक की गणना होती है। यही सूक्ष्मता है। ज्योतिष में हम नवग्रहों के मानव पर पड़ने वाल े पभ््र ााव का अध्ययन करत े ह।ंै गह्र भचक्र में घूमते हैं, भचक्र पूरे 3600 का होता है। कोई ग्रह किस अंश पर है, इसकी पूर्ण जानकारी के लिए भचक्र को 12 राशियों में बांटा गया है। इस प्रकार प्रत्येक राशि 300 की होती है। ग्रह राशि के जिस अंश पर रहेगा उस अंश पर किस ग्रह का अधिकार होगा यह जानने के लिए नक्षत्र का प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक नक्षत्र 13020’ का होता है। प्रत्येक नक्षत्र का भी ग्रह स्वामी होता है। नक्षत्र को आगे नौ भागो में विभक्त कर यह जाना गया कि किस अंश पर किस ग्रह का अधिकार होगा। उस अंश पर जिस ग्रह का अधिकार होता है वही उसी का प्रभाव जातक पर पड़ता है।
प्रश्न: कृष्णमूर्ति पद्धति में नक्षत्र उप स्वामी के अतिरिक्त और किस का महत्व होता है?
उत्तर: कृष्णमूर्ति पद्धति में नक्षत्र उप स्वामी के अतिरिक्त भावों के कारक ग्रहों का महत्व होता है। कौन सा ग्रह किस भाव के लिए शुभाशुभ कार्य करेगा यह भाव के कारक ग्रहों पर निर्भर करता है। कारक ग्रह जितना बली होगा, उसका प्रभाव भी उस भाव पर उतना ही अधिक होगा।
प्रश्न: भाव कारक का बल किस पर निर्भर करता है?
उत्तर: भाव कारक का बल भाव में स्थित ग्रह, भाव में स्थित ग्रह के नक्षत्र में स्थित ग्रह, भाव के स्वामी, भाव के स्वामी के नक्षत्र में स्थित ग्रह जैसे-गुरु अपनी मीन राशि में, अपने ही नक्षत्र में स्थित और गुरु के नक्षत्र में और भी ग्रह स्थित हों तो गुरु का बल बढ़ जाता है। अर्थात गुरु जिस भाव में स्थित होगा उस भाव का शुभाशुभ फल देगा। यदि गुरु शुभ है, तो शुभ फल और यदि अशुभ है, तो अशुभ फल देगा।
प्रश्न: विभिन्न कार्यों के लिए किस-किस भाव को देखना चाहिए?
उत्तर: विभिन्न कार्यों के लिए अलग-अलग भाव को देखना चाहिए। जैसे आयु की जानकारी के लिए भाव 1, 8, 12 स्वयं जातक के लिए 2, 9, 4 पिता की आयु के लिए 3, 9, 6, 10 माता की आयु के लिए 2, 5, 10 तथा भाई की आयु के लिए कार्य करते हैं। इसी प्रकार शादी के लिए 2, 7, 11, तलाक के लिए 2, 6, 12 भावों का विश्लेषण करना चाहिए। बच्चों के लिए 2, 5, 11, व्यवसाय या नौकरी के लिए 2, 6, 10, 11, अचल संपत्ति के लिए 4, 11, 12 और विद्या के लिए 4, 8, 9, 11 भावों का विश्लेषण करना चाहिए।
प्रश्न: प्रश्न ज्योतिष के लिए कृष्णमूर्ति पद्धति का क्या महत्व है?
उत्तर: कृष्णमूर्ति पद्धति विशेष कर प्रश्न फलकथन करने में सक्षम है। प्रश्न फल कथन के लिए कृष्णमूर्ति पद्धति में रूलिंग ग्रहों और गोचर को विशेष स्थान दिया जाता है। जन्मपत्रिका न होने पर यदि जातक के मन में कोई प्रश्न हो, तो उसका उत्तर कृष्णमूर्ति पद्धति से उतना ही सही दिया जा सकता है जितना जन्मपत्रिका से।
प्रश्न: प्रश्नों के उत्तर देने में कृष्णमूर्ति पद्धति किस आधार पर कार्य करती है?
उत्तर: प्रश्नों के उत्तर देने के लिए 1 से 249 अंकों का कृष्णमूर्ति पद्धति में अपना एक विशेष स्थान है। 249 अंक में प्रत्येक अंक पर नक्षत्र उप स्वामी का अधिकार होता है। इसके अतिरिक्त पूछे गए प्रश्न के समय के अनुसार प्रश्न लग्न, गोचर ग्रहों की स्थिति और रूलिंग ग्रह इन तीनों के आधार पर प्रश्न का उत्तर दिया जाता है।
प्रश्न: 249 अंक क्या है?
उत्तर: जब प्रत्येक नक्षत्र को नौ भागो में विंशोत्तरी अनुपात के अनुसार बांटा गया, तो पूरे भचक्र के 27 नक्षत्रों के विभाजन 249 हुए अर्थात पूरे भचक्र को 249 भागों में विभक्त करने पर यह अंक प्राप्त हुए और प्रत्येक अंक नौ ग्रहों में से किसी का प्रतिनिधित्व करता है।
प्रश्न: यदि प्रत्येक नक्षत्र के नौ भाग किए जाएं, तो कुल 27 नक्षत्रों में 243 भाग होते हैं, लेकिन अंक 249 हैं, कैसे?
उत्तर: यह बात ठीक है कि यदि प्रत्येक नक्षत्र के नौ भाग हों तो 27 नक्षत्रों के कुल 243 भाग होते हैं। और यह 6 भाग अतिरिक्त कैसे हुए जब प्रत्येक नक्षत्र को नौ भाग में विभक्त किया गया तो नक्षत्रों की भांति नक्षत्र उप भाग क्षेत्र में दो राशियों में चला गया अर्थात कुछ भाग पहली राशि में तो कुछ भाग दूसरी राशि में। इसलिए जिस उप नक्षत्र का क्षेत्र दूसरी राशि में गया, उसे दो भागों में बांट दिया गया। इस प्रकार उस नक्षत्र सब को एक अतिरिक्त अंक प्राप्त हुआ। क्योंकि यह बटवारा सभी 27 नक्षत्रों में 6 बार हुआ, इसलिए 6 भाग अतिरिक्त हुए और कुल भाग 249।
प्रश्न: रूलिंग ग्रह का प्रश्न फलकथन में क्या स्थान है?
उत्तर: किसी भी समय पर कुछ ग्रहों का स्वामित्व होता है। उस समय के स्वामी ग्रहों को रूलिंग ग्रह कहते हैं। प्रश्न के कारक ग्रहों का जब-जब स्वामित्व आता है तब-तब वह घटना घटती है। इस आधार पर प्रश्न के उत्तर का काल निकालने में रूलिंग ग्रह सहायक होते हैं। प्रश्न के समय के आधार पर बनाई गई लग्न कुंडली के अनुसार निम्नलिखित रूलिंग ग्रह होते हैं।
वार का स्वामी: अर्थात जिस दिन प्रश्न पूछा गया। चंद्र राशि स्वामी: प्रश्न के समय चंद्र जिस राशि में था।
चंद्र नक्षत्र स्वामी: प्रश्न के समय चंद्र किस नक्षत्र में था।
लग्नेश: प्रश्न के समय क्या लग्न था।
लग्न नक्षत्र स्वामी: प्रश्न समय जो नक्षत्र उदय हो रहा था।
प्रश्न: 249 अंकों के आधार पर प्रश्न का उत्तर कैसे दें?
उत्तर: जब भी कोई जातक प्रश्न करता है, उस समय की गोचर स्थिति के अनुसार सर्वप्रथम प्रश्न लग्न कुं. डली बना कर रूलिंग ग्रहों को जानें। प्रश्नकर्ता को 1 से 249 अंकों के बीच का कोई अंक बताने को कहें। वह जो अंक बताए उसका संबंध किस राशि, नक्षत्र और उप नक्षत्र से है यह जान लें। अब प्रश्नकर्ता के प्रश्न के विषय पर ध्यान दें और जानें प्रश्न का संबंध या विषय के कारक भाव कौन-कौन से हंै। यदि रूलिंग ग्रह और बताए गए अंक के नक्षत्र उप स्वामी का संबंध उन भावों से हो, तो प्रश्नकर्ता का कार्य हो जाएगा। यदि नहीं तो नहीं होगा।
प्रश्न: घटना का समय निर्धारण कैसे करें?
उत्तर: जिस विषय के प्रश्न की घटना के बारे में जानना हो, उस विषय का जिन भावों से संबंध हो अर्थात जो भाव उस विषय के कारक हों और रूलिंग ग्रहों का संबंध उन भावों से बन रहा हो, तो उन्हीं की विंशोत्तरी दशा, अंतर्दशा और प्रत्यंतर्दशा में घटना घटित होगी।
प्रश्न: क्या कृष्णमूर्ति पद्धति केवल प्रश्न फलकथन में ही सक्ष्म है?
उत्तर: कृष्णमूर्ति पद्धति प्रश्न फल कथन के अतिरिक्त लग्न कुंडली से भी संपूर्ण जीवन के फल-कथन में सक्षम है। इस पद्धति से भविष्य में होने वाली किसी भी घटना के समय का पूर्व निर्धारण किया जा सकता है।
प्रश्न: कृष्णमूर्ति पद्धति में भाव चलित लेना चाहिए या निरयण भाव चलित?
उत्तर: कृष्णमूर्ति पद्धति में निरयन भाव चलित लेना चाहिए क्योंकि कृष्णमूर्ति पद्धति के सभी नियम निरयण भाव चलित पर ही आधारित हैं।
प्रश्न: कृष्णमूर्ति पद्धति में कौन सा अयनांश लेना चाहिए?
उत्तर: कृष्णमूर्ति पद्धति के नियमों के अनुसार के. पी. अयनांश ही लेना चाहिए, लेकिन क्योंकि के. पी., लहरी और चित्रापक्षीय अयनांश में कोई विशेष अंतर नहीं है, इसलिए चित्रपक्षी अयनांश भी लिया जा सकता है क्योंकि सब से मान्यता अधिक चित्रापक्षीय अयनांश को ही प्राप्त है।
प्रश्न: कृष्णमूर्ति पद्धति में विंशोत्तरी दशा के अतिरिक्त किसी अन्य दशा को भी लिया जा सकता है?
उत्तर: कृष्णमूर्ति पद्धति में विंशोत्तरी दशा ही मान्य है, क्योंकि विंशोत्तरी ही के. पी. का आधार है। इसलिए विंशोत्तरी के अतिरिक्त किसी भी अन्य दशा के आधार पर भविष्यवाणी करना ठीक नहीं होगा।
प्रश्न: क्या के. पी. अन्य पद्धतियों से एक दम भिन्न है?
उत्तर: सभी पद्धतियों का आधार एक ही है- जन्म लग्न कुंडली बना कर भविष्यवाणी करना। लेकिन भविष्यवाण् ाी करने के लिए अग्रिम गणना भिन्न हैं। इसलिए के. पी. को भी अन्य पद्ध तियों से भिन्न ही मानना चाहिए। इनमें समानता यही है कि सभी का आधार जन्म लग्न और नौ ग्रह ही हैं।
प्रश्न: क्या कृष्णमूर्ति पद्धति से वर्ष फल कथन किया जा सकता है?
उत्तर: कृष्णमूर्ति पद्धति में वर्षफल निकालने का कोई नियम नहीं है। यह पद्धति वर्ष फल की बात नहीं करती।
प्रश्न: क्या कृष्णमूर्ति पद्धति वैदिक पद्धति से अधिक सक्षम है?
उत्तर: कृष्णमूर्ति पद्धति वैदिक पद्ध ति का ही नवीन रूप है, जिसके माध्यम से फल कथन सरलता से किया जा सकता है।
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