शिव और तंत्र शास्त्र मयूरी तत्र शास्त्र शिव प्रणीत है और तीन भावों में विभक्त है - आगम, यामल और मुख्य। यामल तंत्र को शिव और शक्ति की एकता का प्रतीक मानते हैं। शिव विशुद्ध चैतन्य हैं और शक्ति विशुद्ध ऊर्जा हैं। प्रत्येक व्यक्ति में शक्ति कुंडलिनी शक्ति के रूप में वास करती है। तंत्र शास्त्र के अनुसार जो कुछ भी ब्रह्मांड में है वही हर मानव में भी है। मानव अपनी चेतना शक्ति के द्वारा ब्रह्मांड से संपर्क स्थापित करता है। मानवीय चेतना असीमित है। शिव संहिता में कुंडलिनी शक्ति को सुप्त सर्पिणी के समान कहा गया है। कई विद्वान इसे ‘जीवन अग्नि’ भी कहते हैं। मूलाधार चक्र में साढ़े तीन फेरे डाले कुंडलिनी शक्ति विद्यमान है। तंत्र शास्त्र में कहा गया है कि इस चक्र और कुंडलिनी पर ध्यान लगाने से साधक सभी विद्याओं में निपुण होता है। उस में वाक् शक्ति आ जाती है और वह रोगमुक्त हो जाता है। मूलाधार चक्र का मंत्र ¬ लं डाकनीय नमः है। ध्यान और मंत्र जप से कुं. डलिनी को जाग्रत किया जाता है। जाग्रत होकर वह प्रत्येक छः चक्रों को पार करके सहस्रार में जाकर परम शिव से मिलती है। साधक स्वयं शिवस्वरूप हो जाता है। यह षटचक्र भेदन कहलाता है। साधक अनेक प्रकार की सिद्धियों से संपन्न हो जाता है। तंत्र के भेद के अनुसार पुरुष शिव का और स्त्री शक्ति का प्रतीक है। शक्ति उपासकों के अनुसार ‘ई’ शक्ति बीज है।