बारह मासों में सावन मास में ही शिवपूजन सबसे अधिक होता है। सावन मास में देश भर के शिवालय श्रद्धालुओं से पट जाते हैं। भगवान शंकर ने स्वयं अपने श्री मुख से ब्रह्माजी के मानस पुत्र सनतकुमार सावन मास की महिमा इस प्रकार बताई थी।
‘‘मेरे तीन नेत्रों में सूर्य दाहिने चंद्र वाम नेत्र तथा अग्नि मध्य नेत्र हैं। चंद्रमा की राशि कर्क और सूर्य की सिंह है। जब सूर्य कर्क से सिंह राशि तक की यात्रा करते हैं, तो ये दोनों संक्रांतियां अत्यंत पुण्य फलदायी होती हैं और यह पुण्यकाल सावन के महीने में ही होता है अर्थात ये दोनों ही संक्रांतियां सावन में ही आती हैं। अतः सावन मास मुझे अधिक प्रिय है।’’
कर्क संक्रांति से सिंह संक्रांति तक सूर्य की यात्रा का आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व सूर्य जब कर्क राशि में होते हैं, जो भगवान शंकर का बायां नेत्र है, तो भगवान शिव के बायंे नेत्र में स्थित करुणा, दया इत्यादि को द्रवित अर्थात अधिक तरल कर देते हैं और जब कर्क राशि अर्थात बायें नेत्र से सिंह राशि (दहिने नेत्र) की ओर चलते है तो सूर्य की किरणों के साथ भगवान शिव की करुणा और दया भूमंडल पर बरसती हुई चलती है।
सूर्य के साथ-साथ भगवान शिव के नेत्र भूमंडल के समस्त जीवों को अपनी कृपा दृष्टि से देखते और जलासिक्त करते हुए चलते हैं। सावन के पवित्र योग में किया गया शिव पूजन और व्रत असीम फलदायी होता है। वैज्ञानिक दृष्टि से कर्क संक्रांति से सिंह संक्रांति तक की अवधि में वाष्पीकरण अधिक होता है और वर्षा होती है।
वर्षा से अनेकानेक वनस्पतियों का पोषण होता है। श्रावण मास में सोमवार व्रत अधिक प्रचलित है। लागे साले ह सामे वार व्रत करते हैं। चंद्र भगवान शिव के नेत्र हैं और उनका दूसरा नाम सोम है। सोम ब्राह्मणों के राजा और औषधियों के देवता हैं। अतः सोमवार का व्रत करने से समस्त शारीरिक, मानसिक और आर्थिक कष्ट दूर होते हैं और जीवन सुखमय हो जाता है। इस मास के सोमवार व्रतों का पालन करने से बारह महीनों के सभी सोमवार व्रतों का फल मिल जाता है। सोमवार के व्रत का विधान अत्यंत सरल है।
स्नान करके श्वेत या हरा वस्त्र धारण करें, दिन भर मन प्रसन्न रखें, क्रोध, ईष्र्या, चुगली न करें। स्वयं को शिवमय (कल्याणकारी) मानें। दिन भर शिव के पंचाक्षरी मंत्र ॐ नमः शिवाय का मन ही मन जप करते रहें। सायंकाल को प्रदोष बेला कहते हैं। इस समय यदि भगवान शिव का सामीप्य मिले, समस्त दोष दूर हो जाते है अतः सायंकाल शिव मंदिर में या अपने घर में ही मिट्टी से शिवलिंग और पार्वती तथा श्री गणेश की मूर्ति बनाकर सोलह प्रकार से पूजन करें, इनमें सोलह दूवी, सोलह सफेद फूल, सोलह मालाओं से शिवपूजन समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला होता है।
अंत में सोलह बŸिायों के दीपक से आरती करके क्षमा हेतु प्रार्थना करें। सोलह सोमवार व्रत में सोलह की संख्या का अभिप्राय क्या है? प्राचीन काल में उज्जैन में सुगंधा नामक एक वेश्या थी। पूर्वजन्म के पुण्य से उसके शरीर में सुगंध का अक्षय स्रोत था। उसके शरीर से निकली सुगंध एक कोस तक फैली रहती थी।
वह गायन विद्या में छः रागों तथा 36 रागिनियों में निपुण थी। नृत्य में रंभा आदि देवांगनाओं को पीछे छोड़ चुकी थी। पृथ्वी पर उसके रूप लावण्य की ख्याति दूर-दूर फैली हुई थी। अपने इन गुणों से उसने कई राजाओं, युवा पुरुषों, ब्राह्मणों, ब्रह्मचारियों और व्यापारियों को धर्म भ्रष्ट किया और उनका शोषण कर उन्हें अपमानित और तिरस्कृत भी किया। एक बार सावन के महीने में अनेक ऋषि क्षिप्रा नदी में स्नान कर उज्जैन के महाकाल शिव की अर्चना करने हेतु एकत्र हुए।
वह अभिमानी वेश्या भी अपने कुत्सित विचारों से ऋषियों को धर्मभ्रष्ट करने चल पड़ी। किंतु वहां पहुंचने पर ऋषियों के तपबल के प्रभाव से उसके शरीर की सुगंध लुप्त हो गई। वह आश्चर्यचकित होकर अपने शरीर को देखने लगी। उसे लगा, उसका सौंदर्य भी नष्ट हो गया। उसकी बुद्धि परिवर्तित हो गई।
उसका मन विषयों से हट गया और भक्ति मार्ग पर बढ़ने लगा। उसने अपने पापों के प्रायश्चित हेतु ऋषियों से उपाय पूछंा। वे बोले- ‘तुमने सोलह शंृगारों के बल पर अनेक लोगों को धर्मभ्रष्ट किया, इस पाप से बचने के लिए तुम सोलह सोमवार व्रत करो और काशी में निवास करके भगवान शिव का पूजन करो।’ वेश्या ने ऐसा ही किया और अपने पापों का प्रायश्चित कर शिवलोक पहुंची। सोलह सोमवार के व्रत से कन्याओं को सुंदर पति मिलते हंै तथा पुरुषों को सुंदर पत्नियां मिलती हैं।
चहकृ21 बारह महीनों में विशेष है श्रावण मास श्रावण मास में शिव की पूजा करने से प्रायः सभी देवताओं की पूजा का फल मिल जाता है। इस मास में काल के देवता भगवान शिव की पूजा करना, कथा सुनना तथा पुराण् ाों का श्रवण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त कुत्सित विचारों का त्याग कर स्वभाव में नम्रता रखते हुए धैर्य निष्ठापूर्वक भागवत कथा का श्रवण करना चाहिए।
ब्राह्मण की सेवा में विश्वास रखते हुए और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तपस्वी वृŸिा में लीन रहना चाहिए। इस मास का माहात्म्य सुनने मात्र से ही मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं, इसलिए इसे श्रावण मास कहा जाता है। पूर्णमासी को श्रवण नक्षत्र का योग होने के कारण भी यह मास श्रावण कहलाता है।
इस मास की संपूर्ण कला को केवल ब्रह्मा जी ही जानते हैं। इस मास के कुल तीस दिन व्रत व पुण्य कार्यों के लिए ही होते हैं। इसका अर्थ यह है कि इस मास की सारी तिथियां व्रत अथवा पुण्य कार्यों के लिए ही होती हैं। जप, तप आदि के लिए यह मास सर्वश्रेष्ठ है। भगवान शिव को यह मास सर्वाधिक प्रिय है। वर्षा ऋतु के इस मास को योगी पुरुष नियम व संयमपूर्वक, तप करते हुए व्यतीत करें।
एक मास तक रुद्राभिषेक करें, रुद्राक्ष की माला धारण करें तथा उससे ॐ नमः शिवाय का जप करें। इन दिनों व्रती को अपनी किसी एक प्रिय वस्तु का त्याग कर देना चाहिए। पुष्प, तुलसी दल, फल, धान्य और बिल्वपत्र से महादेव की पूजा करनी चाहिए। भूमि पर शयन करना चाहिए, ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और झूठ नहीं बोलना चाहिए। प्रातःकाल स्नान कर एकाग्रचिŸा हो पुरुष सूक्त का पाठ करना चाहिए।
इस मास कोटिहोम ग्रह यज्ञ करने पर मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। श्रावण मास में वारों का महत्व श्रावण मास के प्रथम सोमवार से शुरू कर निरंतर किया जाने वाला व्रत सभी मनोकामनाएं पूरी करता है। सोमवार का व्रत रोटक, मंगलवार का मंगलागौरी, बुधवार का बुधव्रत, बृहस्पति का बृहस्पति व्रत, शुक्रवार का जीवंतिका व्रत, शनिवार का हनुमान तथा नृसिंह व्रत और रविवार का सूर्य व्रत कहलाता है।
श्रावण मास में तिथियों का महत्व श्रावण मास में बहुत से महत्वपूर्ण व्रत किए जाते हैं। शुक्ल द्वितीया को किया जाने वाला व्रत औदुंबर व्रत, तृतीया को गौरीव्रत, चतुर्थी को दूर्वा गणपति व्रत (इसे विनायक चतुर्थी भी कहते हैं), पंचमी को नाग पंचमी व्रत (सौराष्ट्र में नागपंचमी श्रावण कृष्ण पक्ष में संपादित होती है), षष्ठी को सूपौदन व्रत, सप्तमी को शीतलादेवी व्रत, अष्टमी और चैदस को देवी का व्रत, नौवीं को नक्तव्रत, दशमी को आशा व्रत और द्वादशी को किया जाने वाला व्रत श्रीधर व्रत कहलाता है।
मास की अंतिम तिथि पूर्णमासी को विसर्जन कर सभी स्त्रियां सबसे पहले अपने भाई को अपने जीवन की रक्षा हेतु रक्षाबंधन बांधती हैं। प्रथमा से अमावस्या तिथि तक किए जाने वाले उपवासों के देव देवियां भी भिन्न-भिन्न हैं। प्रतिपदा को किए जाने वाले व्रत के देवता अग्नि, द्वितीया के ब्रह्मा, तृतीया की गौरी, चतुर्थी के विनायक, पंचमी के सर्प, षष्ठी के स्कंद, सप्तमी के सूर्य, अष्टमी के शिव, नौवीं की दुर्गा, दशमी के यम, एकादशी के विश्वेदेव, द्वादशी के हरि नारायण, त्रयोदशी के रतिपति कामदेव, चतुर्दशी के शिव, पूर्णमासी के चंद्रदेव और अमावस्या को किए जाने वाले व्रत के आराध्य पितर हैं।
श्रावण में शिव रुद्री के पाठ का विशेष महत्व है। इसके फल का वर्णन इस प्रकार है: शिव पूजक सर्वप्रथम संकल्प करें। तत्पश्चात शिवलिंग को पंचामृत से स्नान कराकर और निष्ठापूर्वक यथाशक्ति ॐ नमः शिवाय का जप करें। सुयोग्य ब्राह्मणों द्वारा रुद्राष्टाध्यायी का पाठ करवाएं और उसका श्रवण करें। रुद्री के एक पाठ से बाल ग्रहों की शांति होती है। तीन पाठ से उपद्रव की शांति होती है। पांच पाठ से ग्रहों की, सात से भय की, नौ से सभी प्रकार की शांति और वाजपेय यज्ञ फल की प्राप्ति और ग्यारह से राजा का वशीकरण होता है और विविध विभूतियों की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार ग्यारह पाठ करने से एक रुद्र का पाठ होता है। तीन रुद्र पाठ से कामना की सिद्धि और शत्रुओं का नाश, पांच से शत्रु और स्त्री का वशीकरण, सात से सुख की प्राप्ति, नौ से पुत्र, पौत्र, धन-धान्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार नौ रुद्रों से एक महारुद्र का फल प्राप्त होता है जिससे राजभय का नाश, शत्रु का उच्चाटन, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि, अकाल मृत्यु से रक्षा तथा आरोग्य, यश और श्री की प्राप्ति होती है।
तीन महारुद्रों से असाध्य कार्य की सिद्धि, पांच महारुद्रों से राज्य कामना की सिद्धि, सात महारुद्रों से सप्तलोक की सिद्धि, नौ महारुद्रों के पाठ से पुनर्जन्म से निवृŸिा, ग्रह दोष की शांति, ज्वर, अतिसार तथा पिŸा, वात व कफ जन्य रोगों से रक्षा, सभी प्रकार की सिद्धि तथा आरोग्य की प्राप्ति होती है।
भगवान शंकर का श्रेष्ठ द्रव्यों से अभिषेक करने का फल जल अर्पित करने से वर्षा की प्राप्ति, कुशा का जल अर्पित करने से शांति, दही से पशु प्राप्ति, ईख रस से लक्ष्मी की प्राप्ति, मधु और घी से धन की प्राप्ति, दुग्ध से पुत्र प्राप्ति, जल की धारा से शांति, एक हजार मंत्रों के सहित घी की धारा से वंश की वृद्धि और केवल दूध की धारा अर्पित करने से प्रमेह रोग से मुक्ति और मनोकामना की पूर्ति होती है, शक्कर मिले हुए दूध अर्पित करने से बुद्धि का निर्मल होता है, सरसों या तिल के तेल से शत्रु का नाश होता है और रोग से मुक्ति मिलती है।
शहद अर्पित करने से यक्ष्मा रोग से रक्षा होती है तथा पाप का क्षय होता है। पुत्रार्थी को भगवान सदाशिव का अभिषेक शक्कर मिश्रित जल से करना चाहिए। उपर्युक्त द्रव्यों से अभिषेक करने से शिवजी अत्यंत प्रसन्न होते हैं और भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं। रुद्राभिषेक के बाद ग्यारह वर्तिकाएं प्रज्वलित कर आरती करनी चाहिए।
इसी प्रकार भगवान शिव का भिन्न-भिन्न फूलों से पूजन करने से भिन्न-भिन्न फल प्राप्त होते हैं। कमलपत्र, बेलपत्र, शतपत्र और शंखपुष्प द्वारा पूजन करने से धन-धान्य की प्राप्ति होती है। आक के पुष्प चढ़ाने से मान-सम्मान की वृद्धि होती है। जवा पुष्प से पूजन करने से शत्रु का नाश होता है। कनेर के फूल से पूजा करने से रोग से मुक्ति मिलती है तथा वस्त्र एवं संपति की प्राप्ति होती है।
हर सिंगार के फूलों से पूजा करने से धन सम्पति बढ़ती है तथा भांग और धतूरे से ज्वर तथा विषभय से मुक्ति मिलती है। चंपा और केतकी के फूलों को छोड़कर शेष सभी फूलों से भगवान शिव की पूजा की जा सकती है। साबुत चावल चढ़ाने से धन बढ़ता है। गंगाजल अर्पित करने से मोक्ष प्राप्त होती है।
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