भारत में भगवती के अनेक ऐसे सिद्धपीठ एवं मंदिर हैं, जिनके संबंध में बहुत कम लोग जानते हैं, उन्हीं में से एक श्रीत्रिपुर-सुंदरी का ऐतिहासिक मंदिर भी है। राजस्थान के दक्षिणांचल में अरावली की उपत्यकाओं से घिरा हुआ यह क्षेत्र नदियों, जलाशयों एवं प्रकृति की सुरम्य वादियों से आच्छादित है, जिसे बांसवाड़ा कहा जाता है। वाग्वर प्रदेश का यह क्षेत्र अति प्राचीनकाल से धर्म क्षेत्र रहा है।
बांसवाड़ा को छोटी काशी की संज्ञा दी जाती है। यहां विविध देवी-देवताओं के प्रसिद्ध पुरातन असंख्य मंदिर हैं जिन्हें निर्माण कला, शिल्प और अपनी भव्यता के लिए संपूर्ण प्रदेश ही नहीं अपितु पूरे भारतवर्ष में प्रसिद्धि प्राप्त है। वाग्वर क्षेत्र पौराणिक पुण्यस्थली रहा है। स्कन्दपुराण में यह क्षेत्र ‘गुप्त प्रदेश’, राजा भोज के समय के शिलालेखों में ‘स्थली मंडल’ तथा पुराणों में ‘कुमारिका खंड’ व ‘वागुरि क्षेत्र’ के नाम से उद्धृत है। इस क्षेत्र में प्रवाहित अजस्त्र सलीला ‘माही’ को पुराणों में ‘कलियुगे माही गंगा’ की संज्ञा दी गई है।
देवर्षियों ने इस मातृका प्रदेश के त्रिवेणी संगम बेणेश्वर तीर्थ के दिव्य सौंदर्य के उल्लेख के साथ इसमें स्नान करने को अति महिमामय माना है। ऐसी पावन माही नदी के क्षेत्र में पुरा महत्व के अनेक मंदिरों में बांसवाड़ा जिला मुख्यालय से 20 किमी. दूर तलवाड़ा गांव के पास ‘महालय उमराई’ गांव के निकटस्थ जंगलों में त्रिपुरसुंदरी मंदिर स्थित है। इसे आरंभ में ‘‘तरताई माता’ के नाम से जाना जाता था।
कहा जाता है कि मंदिर के आस-पास पहले कभी तीन दुर्ग थे। शक्तिपुरी, शिवपुरी तथा विष्णुपुरी नामक इन तीन पुरियों में स्थित होने के कारण देवी का नाम त्रिपुरा सुंदरी पड़ा। मंदिर क्षेत्र अति रमणीय, शांत, जागृत तथा दर्शनीय स्थान है जहां राजस्थान एवं पड़ोसी राज्य गुजरात, मध्यप्रदेश व देश के अन्य क्षेत्रों से तीर्थ यात्री प्रतिवर्ष मां के दर्शनार्थ आते हैं एवं मनोवांछित फल प्राप्त करते हैं।
श्रीत्रिपुर-सुंदरी का यह स्थान कितना प्राचीन है, इस संबंध में कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। किंतु वर्तमान मंे मंदिर के उत्तरी भाग में सम्राट कनिष्क के समय का एक शिव-लिंग विद्यमान है। अतः लोगों का विश्वास है कि यह स्थान कनिष्क के पूर्व-काल से ही प्रतिष्ठित रहा होगा।
कुछ विद्वान् तीसरी शताब्दी के पूर्व से इस स्थान का अस्तित्व मानते हैं; क्योंकि पहले यहां ‘गढपोली’ नामक ऐतिहासिक नगर था। ‘गढपोली’ का अर्थ है- दुर्गापुर। आजकल यहां ‘उमराई’ नामक गांव है। गुजरात, मालवा और मारवाड़ के शासक त्रिपुरा संुदरी के उपासक थे। गुजरात के सोलंकी राजा सिद्ध राज जयसिंह की ये इष्ट देवी रहीं। मां की उपासना के बाद ही वे युद्ध प्रयाण करते थे। कहा जाता है कि मालवा नरेश जगदेश परमार ने तो मां के श्री चरणों में अपना शीश ही काट कर अर्पित कर दिया था।
उसी समय राजा सिद्धराज की प्रार्थन पर मां ने पुत्रवत जगदेव को पुनर्जीवित कर दिया था। शिलालेखों के अनुसार ‘श्रीत्रिपुरसुंदरी-मंदिर’ का जीर्णोंद्धार लगभग नौ सौ वर्ष पूर्व सं. 1147 वि. में पांचाल जाति के पाताभाई चन्दाभाई लुहारने कराया था। उक्त मंदिर के पास भागी (फटी) खान नामक स्थान है, जहां किसी समय लोहे की खदान थी। पांचाल जाति के लोग इससे लोहा निकालते थे।
यह बात सं. 1102 वि. के आस-पास की है। किंवदन्ती है कि एक दिन माता भवानी भिखारिन के रूप में भिक्षा मांगने खदान के द्वार पर पहुंची, किंतु पांचालों ने कोई ध्यान नहीं दिया, जिससे वे रूष्ट हो गयीं और सारी खदान टूटकर बैठ गई। कितने ही लोग उसमें दबकर मर गये। यह फटी हुई खदान आज भी मंदिर के पास दिखायी देती है। माता को प्रसन्न करने के लिये पाताभाई चांदाभाई पांचाल ने मंदिर और तलवाड़ा का ‘पातेला’ तालाब बनवाया।
पुनः उक्त मंदिर का जीर्णोंद्धार 19वीं शताब्दी में कराया गया। सं. 1930 वि. में पांचाल-समाज द्वारा मंदिर पर नया शिखर चढ़ाया गया। सं. 1991 विमें उक्त समाज ने मंदिर का पुनः जीर्णोद्धार करवाया। मंदिर को वर्तमान भव्य रूप देने का कार्य सन् 1977 ई. में संपन्न किया गया। वर्तमान समय में श्रीत्रिपुरसुंदरी का विशाल मुख्य मंदिर है।
मुख्य मंदिर के द्वार के किवाड़ आदि चांदी के बने हैं। गर्भ मंदिर में भगवती की काले पत्थर की अष्टदश-भुजा वाली भव्य प्रतिमा प्रतिष्ठित है। भक्तजन उन्हें तरताई माता, त्रिपुरसुन्दरी, महात्रिपुरसुन्दरी आदि नामों से संबोधित करते हैं। मां भगवती सिंहवाहिनी हैं। 18 भुजाओं में दिव्य आयुध है। सिंह की पीठ पर अष्टदल कमल है, जिस पर विराजमान भगवती का दाहिना पैर मुड़ा हुआ है और बायां पैर श्रीयंत्र पर आधृत है।
भगवती की प्रतिमा के पृष्ठ-भाग में, प्रभामंडल में आठ छोटी-छोटी देवी मूर्तियां हैं, जो अपने-अपने वाहनों पर आसीन हैं। प्रत्येक देवी के हाथ में आयुध हैं। मां के पीछे पीठ पर 42 भैरवों और 64 योगिनियों की बहुत ही सुंदर मूर्तियां अंकित हैं। भगवती की मूर्ति के दायीं और बायीं ओर के भागों में श्रीकृष्ण तथा अन्य देवियां और विशिष्ट पशु अंकित हैं और देव-दानव-संग्राम की झांकी दृष्टिगत होती है।
मां भगवती की प्रतिमा बहुत ही सुंदर और आकर्षक है। पुरातन काल में इस मंदिर के पीछे के भाग में मदाचित्त अनेक मंदिर थे। कारण, सन 1982 ई. में खुदाई करते समय उनमें से अनेक मूर्तियां प्राप्त हुईं हैं, जनमें से भगवान् शिव की एक बहुत ही सुंदर मूर्ति प्रमुख है। शिव जी की जंघा पर पार्वती विराजमान हैं और एक ओर ऋद्धि-सिद्धि सहित गणेश तथा दूसरी ओर स्वामी कार्तिकेय हैं। मां त्रिपुरा के उक्त मंदिर में प्रतिदिन उपासकों और दर्शनार्थियों की भीड़ लगी रहती है। नवरात्रों में यहां का मेला दर्शनीय होता है।
संपूर्ण बांगड (बांसवाड़ा और डूंगरपुर का क्षेत्र), पंचमहाल (गुजरात), मंदसौर, रतलाम, छाबुआ और इन्दौर (मध्य-प्रदेश) तथा मेवाड़ (राजस्थान) के भक्त सहस्त्रों की संख्या में इस देवी-मंदिर में आकर अपनी भक्ति-भावना को सार्थक करते रहते हैं। आदिवासी लोग प्रत्येक रविवार को दर्शनार्थ आते हैं और अपने लोक-गीतों द्वारा मां का स्तवन करते हैं। मंदिर घृत की अखंड ज्योति से अहर्निश प्रकाशित रहता है। पांचाल जाति के लोग मां त्रिपुरा को अपनी ‘कुल देवी’ मानते हैं। प्रत्येक आश्विन और चैत्र के नवरात्रों में तथा कार्तिकेय शुक्ल पूर्णिमा को यहां यज्ञ का आयोजन होता है।