विवाह से पूर्व जीवनसाथी के विषय में अनेकानेक
प्रष्न मस्तिष्क को आलोड़ित करते हंै। इस संदर्भ
में ज्योतिष की भूमिका अत्यन्त प्रखर है। भारतीय विष्वासों
के अनुसार सुखी और समृद्ध दाम्पत्य के लिए विधिवत्
वर-वधू चयन (मेलापक) आवष्यक है। जन्मांगों के समुचित
विवेचन से जीवनसाथी, दाम्पत्य संपन्नता, उपलब्धियां,
संघटन-विघटन आदि तथ्यों का प्रामाणिक उद्घाटन होता
हैं। इस प्रसंग में प्रायः दो प्रष्न (जिज्ञासायें) मुखर हैंः
1. जिन दम्पत्तियों का विवाह जन्मांग मेलापक की षास्त्रीय
विधि के अभाव मंे हुआ है, यदि वे सुखी, सन्तुष्ट, सम्पन्न
तथा संगठित हैं तो क्या कारण है?
2. जिसका परिणय पण्डितों द्वारा जन्मांगों का विधिवत्
मिलान के पष्चात् हुआ उनका वैवाहिक जीवन दुःखी,
विपन्न तथा विघटित क्यों है?
यह अध्ययन इन्हीं जिज्ञासाओं का समाधान तलाष करने
का एक छोटा सा प्रयास है। इसके अतिरिक्त एक मान्यता
ज्योतिष में है कि ‘कुज दोष’ से प्रभावित जातक का विवाह
‘कुज दोष’ से प्रभावित जातिका से ही करना चाहिए। इस
मान्यता के चलते असंख्य सुन्दर, सुषिक्षित एवं स्वस्थ वर
व कन्याओं के विवाह में ‘कुज दोष’ एक विरोध या विलम्ब
उत्पन्न कर रहा है।
जन्मांग में मंगल के लग्नस्थ, द्वितीयस्थ, चतुर्थस्थ,
सप्तमस्थ, अष्टमस्थ अथवा द्वादषस्थ होने पर मंगल दोष
परिगणित होता है।1
‘बृहत्पाराषरहोराषास्त्रम्’ के 82वें
अध्याय ‘स्त्री जातकाध्याय’ में 47वें ष्लोक से 49वें ष्लोक
में लग्न से प्रथम, द्वादष, चतुर्थ, सप्तम तथा अष्टम भाव में
मंगल किसी भी षुभ ग्रह की दृष्टि से या योग से रहित हो
तो इस योग में उत्पन्ना स्त्री पतिहन्तृ होती है। इस योग में
केवल मंगल की भावस्थिति का ही विचार किया है। (‘ष्लोक
47’) जिस योग में उत्पन्न कन्या पति का हनन करती है,
उसी योग में उत्पन्न पुरुष भी पत्नी का हनन करता है।
पति-हन्तृ कन्या का पत्नी-हन्ता पुरुष के साथ विवाह होने
से वैधव्य योग नष्ट हो जाता है।ष्(ष्लोक 48-49)
‘लग्ने व्यये सुखे वापि सप्तमे व अष्टमे कुजे।
षुभदृग्योगे हीने च पतिं हन्ती न संषयः ।।
यस्मिन योगे समुत्पन्ना पति हन्ति कुमारिका।
तस्मिन योगे समुत्पन्ना पत्नीं हन्ती नरोपि च ।।
स्त्री हन्ता परिणीता चेत् पति हन्तृ कुमारिका।
तदा वैधव्ययोगस्य भंगो भवति निष्चयात् ।।2
(‘ष्लोक 47-48-49’)
आगस्त्यसंहिता के अनुसार -
धने व्यये च पाताले जामित्रे चाष्टमे कुजे।
भार्या भर्तृविनाषायभर्तुष्च स्त्रीविनाषायम्।।3
केरल की भावदीपिका में उल्लिखित है-
लग्ने व्यये च पाताले जामित्रे चाष्टमे कुजे।
स्त्रीणां भर्तृविनाषः स्यात्पुंसा भार्या विनष्यति ।।4
उपरोक्त दोनों ष्लाकों में धन भाव व लग्न भाव का अन्तर
है। मन्त्रेष्वर के अनुसार सप्तम भावगत मंगल पत्नी की
मृत्यु देता है। (मृत दारवान) 5
षुक्र यदि मंगल के वर्ग में हो अथवा मंगल से दृष्ट हो तो
व्यक्ति के पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य स्त्री से सम्बन्ध
होते हैं (षुक्रे वा कुजमन्दवर्गसहिते दृष्टे परस्त्रीरतः)।6
ढुण्ढिराज के अनुसार सप्तम भाव में मंगल हो तो पुरुष
स्त्रीहीन होता है (महीसुते सप्तमभावयाते कान्तावियुक्तः)।7
वराहमिहिर के अनुसार स्त्री की कुण्डली में लग्न से अष्टम
भावगत मंगल ग्रह से वैधव्य होता है अथवा जिस स्त्री के
द्वितीय भाव में मंगल ग्रह होता है वह स्त्री पति की जीवित
अवस्था में मृत्यु प्राप्त करती है (क्रूरेअष्टमे विधवता निध्
ानेष्वरोंअषेद्धे।8
जातकतत्वाकार द्वादष भाव में मंगल होने
से जातक की दो पत्नियां होने का समर्थन करते हैं (व्यये
कुजे कलत्रान्तरभागी)।9
जातकतत्वाकार महेष पाठक तो
अष्टमेष यदि अष्टम भाव में हो तो कुज दोष स्वीकार करते
हैं (अष्टमेषे अष्टमे स्त्री जारिणी)।10
डाॅ॰ रमन के अनुसार सप्तमाधिपति तथा षनि की सह
संस्थिति पर मंगल की दृष्टि वैधव्यकारक होती है।
मुकुन्द वल्लभ मिश्र के अनुसार सातवें भाव में मंगल
की स्थिति दो पत्नियां देती है।11 नारद संहिता के अनुसार
विवाह लग्न के समय मंगल अष्टम भाव में हो तो उस
लग्न का परित्याग करना चाहिए (कुजाष्टमे महादोषो
लग्नादष्टमगे कुजे)।12
मुख्यतः कुज दोष के लिए लग्न, द्वादष, चतुर्थ, सप्तम
तथा अष्टम स्थानों में कुज दोष की स्थिति को ही स्वीकार
किया है। एक अन्वेषक किसी प्रकार के सिद्वान्तों को
स्वीकार नहीं करता और न ही अपने द्वारा अन्वेषित
सिद्वान्तों को स्थापित करता है बल्कि वह आगे की षोध
के लिए प्रेरणा स्रोत होता है।
विभिन्न प्रकार के जातकों की जन्म कुण्डलियों के
अध्ययन से जो तथ्य सामने आए हैं वो इस प्रकार हैं -
प्रस्तुत अध्ययन में 42 दम्पत्तियों की जन्मकुंडलियों को
सम्मिलित किया गया है जिनका वर्गीकरण चार प्रकार से हैः
1. प्रथम वर्ग में उन दम्पत्तियों की जन्मकुंडलियों को
सम्मिलित किया गया है, जिन दम्पत्तियों में पति-पत्नी
में से किसी एक की कुण्डली ‘कुज दोष’ से प्रभावित है
तथा दूसरे की कुण्डली में ‘कुज दोष’ नहीं है तथा उनका
दाम्पत्य जीवन सुखद है। इस वर्ग में 42 में से 19
दम्पत्तियों की जन्मकुंडलियां मिली हैं।
2. द्वितीय वर्ग में उन दम्पत्तियों की जन्मकुण्डलियां ली
गई हैं जिन दम्पत्तियों में से एक की जन्मकुण्डली मंगलीक
है तथा दूसरे की जन्मकुंडली मंगलीक नहीं है तथा उनका
दाम्पत्य जीवन सुखद नहीं है। दोनों का या तो तलाक हो
गया है या अलग-अलग रह रहे हैं। इस वर्ग में 42 में से
6 दम्पत्तियों की जन्मकुंडलियां मिली हैं।
3. तृतीय वर्ग में उन दम्पत्तियों की जन्मकुंडलियां
सम्मिलित हैं जो दोनों ही मंगलीक हैं और उनका
जीवन सुखद है। इस वर्ग में 42 में से 12 दम्पत्तियों की
जन्मकुंडलियां मिली हैं।
4. चतुर्थ वर्ग में उन दम्पत्तियों की जन्मकुण्डलियां हैं जो
दोनों ही मंगलीक हैं तथा उनका दाम्पत्य जीवन सुखद
नहीं है और उनका तलाक हो गया है। इस वर्ग में 42 में
से 5 दम्पत्तियों की जन्मकुंडलियां मिली हैं।
इसके अतिरिक्त 120 ऐसे जातकों की जन्मकुण्डलियों
में मंगल की भावगत स्थिति का अवलोकन किया गया
जिनका दाम्पत्य जीवन दुःखद रहा तथा उनका दाम्पत्य
जीवन समाप्त हो गया। इनमें कुछ कुण्डलियां ऐसे
जातकों की भी हैं जिन्हांेने एक से अधिक विवाह किया
तथा उसके पष्चात् भी उनका दाम्पत्य जीवन सुखद नहीं
रहा। इन कुण्डलियों में मंगल की भावगत स्थिति इस
प्रकार मिली है:
प्रथम भाव में मंगल - 10, द्वितीय भाव में - 4, तृतीय
भाव में - 8, चतुर्थ भाव में - 7, पंचम भाव में - 10,
छठे भाव में - 10, सप्तम भाव में - 14, अष्टम भाव में
- 12, नवम भाव में - 20, दषम भाव में - 5, एकादष
में - 13, द्वादष में - 7।
120 जन्मकुण्डलियों में औसत में प्रत्येक भाव में मंगल
की स्थिति दस होती है। नवम भाव में मंगल की स्थिति
सर्वाधिक है जो औसत से दो गुणा है तथा द्वितीय भाव
में मंगल की स्थिति औसत से आधे से भी कम है। इस
अध्ययन का जो निष्कर्ष है वह इस प्रकार है कि मंगल
के प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम व द्वादष में स्थित होने
के अतिरिक्त दाम्पत्य जीवन को दुःखमय होने के कुछ
और भी ज्योतिषीय कारण हो सकते हंै। इस अध्ययन से
इस बात का निर्णय भी नहीं किया जा सकता कि यदि
कुज दोष पीड़ित जातक व जातिका अगर विवाह करते हैं
तो उनका जीवन सुखमय रहेगा या दुःखमय।
संदर्भ ग्रन्थ सूची
1. ड़ाॅ॰ षुकदेव चतुर्वेदी, दाम्पत्य सुख-पृ. 119
2. पं. पद्मनाभ षर्मा, बृ.पा.होराषास्त्रम्, पृ. 600-601
3. ड़ाॅ॰ षुकदेव चतुर्वेदी, दाम्पत्य सुख-पृ. 121
4. मृदुला त्रिवेदी, वैवाहिक सुखः ज्योतिषय संदर्भ, पृ. 140
5. व्याख्याकार गोपेष कुमार ओझा, फलदीपिका, पृ. 105, ष्लोक 9
6. व्याख्याकार गोपेष कुमार ओझा, फलदीपिका, पृ. 217, ष्लोक 4
7. व्याख्याकार सीताराम झा, जातकाभरणम्, पृ. 75, ष्लोक 12
8. व्याख्याकार केदारदत्त जोषी, बृहज्जातकम्, स्त्रीजातकाध्याय,
पृ. 371, ष्लोक 14
9. व्याख्याकार सुरेष चन्द्र मिश्र, जातकतत्वम् पृ. 206, ष्लोक 123
10. मृदुला त्रिवेदी, वैवाहिक सुखः ज्योतिषीय संदर्भ, पृ. 140
11. मुकुन्द वल्लभ मिश्र, फलित मार्तण्ड, पृ. 160, ष्लोक 8
12. व्याख्याकार अभय कात्यायन, श्री नारदसंहिता, पृ. 189,
श्लोक 55