राजभंग योग ज्याजीवन के व्यावहारिक धरातल पर कई बार ऐसा भी अनुभव हुआ है कि राजयोग होने पर भी उनका लाभ नहीं मिला है तो कई बार ऐसे भी उदाहरण सामने आए हैं जब इनका लाभ अत्यंत परेशानियां झेलने के बाद मिला है या फिर इनका लाभ आंशिक ही मिला है। ऐसा क्यों होता है, आइए कुछ कुंडलियों व अपने अनुभव मात्र से इस विषय की तह तक पहुंचने का प्रयास करें। यही नहीं सप्तमेश शनि अपनी उच्चस्थ राशि में चतुर्थ केंद्र में पंचमहापुरुष योगों में से शशयोग निर्मित कर रहा है किंतु शनि का अपनी उच्च राशि में वक्री होने के कारण श्री राम का यह राजयोग भंग हुआ व उन्हें अपनी भार्या का वियोग सहना पड़ा। कुंडली सं. 2: श्री मुरारजी देसाई की मिथुन लग्न की जन्मपत्री में षष्ठेश व एकादशेश मंगल उच्चस्थ होकर अष्टम भाव में स्थित हैं बुध व शुक्र के राजयोग को भंग कर रहे हैं। तीन-तीन ग्रह उच्चस्थ होने के बावजूद उनका राजनीतिक जीवन विवादास्पद रहा है। कर्मेश व केंद्राधिपति दोष से दूषित होकर गुरु द्वितीय भाव में उच्चस्थ और वक्री बैठा हुआ है। अष्टम नवमेश शनि पंचम त्रिकोण भाव में उच्चस्थ और वक्री है।
फलतः उन्हें प्रधानमंत्री की गद्दी तो मिली किंतु ज्यादा समय तक पदासीन नहीं रह सके। अष्टम भाव में उच्चस्थ मंगल ने भी उन्हें राजयोग का फल अधिक दिनों तक भोगने नहीं दिया। कुंडली सं. 3: कोई भी ग्रह चाहे उच्च का हो, बलवान स्थिति में हो, उसके साथ यदि सूर्य/चंद्र हो तो राजयोग भंग हो जाता है। कुंडली सं. 3 में नवमेश व दशमेश बुध व चंद्र के दशम भाव में होने के बावजूद उनके सूर्य के साथ होने से राजयोग भंग हो गया। जातक कई बार संसद सदस्य बने किंतु मंत्री नहीं बन पाए। उर्पयुक्त उदाहरण से एक और नियम की पुष्टि होती है कि यदि नवमेश व दशमेश राजयोग स्थापित कर रहे हों और उनके साथ बाधकेश हो तो भी राजयोग भंग हो जाता है। उपर्युक्त कुंडली चर लग्न की है और एकादशेश सूर्य बाधक भी है। कुंडली सं. 4: बलवान ग्रह यदि स्तंभित हो जाता है तो राजयोग भंग कर देता है। कुंडली सं. 4 में गुरु को स्थान बल प्राप्त है क्योंकि यहां वह लग्न में स्तंभित है। 6.10.1993 तक जातक को काफी नाम व ख्याति मिली किंतु गुरु की ही महादशा में प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए। इनकी गुरु की महादशा 6.10.2009 तक है। कुंडली सं. 5: अकारक ग्रह की दशा हो और यदि वह ग्रह अपनी ही दशा अंतर्दशा में फल दे तो बाकी की दशा का राजयोग भंग हो जाता है। कुंडली 5 इसी बात की पुष्टि करती है। यह जातक शुक्र की महादशा के अंतर्गत शुक्र की अंतर्दशा 17.12.1986 से 17. 04.1990 के मध्य मंत्री पद पर रहे।
मीन लग्न के लिए अकारक ग्रह शुक्र ने अपनी ही दशा व अंतर्दशा में फल देकर बाकी 17 साल शून्य फल दिया व राजयोग भंग किया। कुंडली सं. 6: पूर्ण चंद्र हेते हुए भी भाग्येश चंद्र से कर्मेश सूर्य यदि अष्टमस्थ हो, तो राज योग भंग होता है। कुंडली सं. 6 के जातक प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए कारण नवमेश व दशमेश सूर्य व चंद्र आमने सामने होने पर भी विपरीत फल मिला। एक ओर भाग्येश चंद्र के साथ वक्री प्राकृतिक पाप ग्रह तृतीयेश व चतुर्थेश अकारक व नीचस्थ शनि ने भी राजयोग भंग किया तो दूसरी ओर चंद्र से सूर्य अष्टम होने के कारण भी राजयोग भंग हुआ। कुंडली सं. 7: सूर्य चंद्र कमजोर होने पर भी राजयोग भंग होता है। कुंडली सं. 7 पर नजर डालें। इस व्यक्ति की वर्तमान समय में राहु की महादशा चल रही है। जातक मुख्यमंत्री बनने में असफल रहे। भाग्येश सूर्य अपने ही भाग्य स्थान में षष्ठेश व एकादशेश शुक्र के साथ होने से कुछ कमजोर हो गया है। बुध दशम केंद्र में भद्र योग स्थापित करने के बावजूद पूर्ण फल देने में सक्षम नहीं है। लग्नेश गुरु व्यय भाव में, नीचस्थ राहु लग्न में और वर्तमान समय में राहु की महादशा में, कमजोर सूर्य, नीचस्थ चंद्र के कारण राजयोग भंग हुआ। चंद्र मंगल का परिवर्तन होने के अलावा लग्नेश गुरु सहित अष्टमेश चंद्र की बारहवें भाव में स्थिति ने लग्नेश का राजयोग भंग किया है। बुध के पंच महापुरुष योग स्थापित करने के बावजूद उसकी दशा नहीं आई और इसका लाभ जातक को नहीं मिला।
कुंडली सं. 8: नवमेश सूर्य तृतीय भाव में अष्टम भाव से अष्टम हो तो राजयोग भंग कर सकता है। इन जातक के जन्म के सातवें वर्ष में ही पिता की मृत्यु हो गई और वह उनकी मृत्यु के पश्चात राजा बने। भाग्येश सूर्य के अष्टम भाव से अष्टम होने के कारण राजयोग भंग हुआ। कुंडली सं. 9: वृश्चिक लग्न के लिए लग्नेश व षष्ठेश कारक होकर पंचम भाव में मंगल उच्चस्थ सप्तमेश व व्ययेश शुक्र के साथ स्थित है किंतु लग्नेश होने के बावजूद पंचम भाव में मंगल ने राजयोग भंग किया है और संतान का सुख इन्हें नहीं मिला। पंचमेश गुरु षष्ठ भाव में शनि की दृष्टि में भी है। वह सभी निःसंतान योग स्थापित कर रहा है। यही नहीं जातक खुद दत्तक पुत्र हैं व उनके पिता भी दत्तक पुत्र रहे हैं। आइए अलग-अलग ग्रहों के उच्च भंग पर एक दृष्टि डालें: गुरु, मकर लग्न के लिए सप्तम भाव में परम उच्च होकर अकारक होते हुए भी हंस योग का फल देता है।
किंतु यदि अष्टमेश सूर्य गुरु के साथ सप्तम भाव में स्थित हो तो राजयोग भंग हो जाता है। कन्या लग्न के लिए यदि मंगल पंचम त्रिकोण भाव में शनि के साथ मकर राशि में हो, तो षष्ठेश शनि के कारण उच्चस्थ होने के बावजूद मंगल का उच्च भंग हो जाता है। सूर्य कन्या लग्न में द्वादशेश होकर अष्टम भाव में उच्चस्थ हो जाता है किंतु यदि शनि साथ हो, तो अपनी उच्च राशि का फल देने में सक्षम नहीं होता। शुक्र मिथुन लग्न में दशम केंद्र में अपनी उच्चस्थ राशि में मालव्य योग बनाता है किंतु यदि एकादशेश व षष्ठेश मंगल इसके साथ हो तो मालव्य योग को भंग कर देता है। बुध अपनी उच्च राशि में कन्या लग्न में स्थान बल प्राप्त करने के साथ-साथ भद्र योग स्थापित करता है किंतु सूर्य एवं मंगल के साथ होने से यह राजयोग भी भंग हो जाता है। कभी-कभी पांच ग्रह भी उच्च के होकर, जैसे कर्क राशि में 28° का गुरु, कन्या में 0° का बुध, तुला में 28° का शुक्र, मेष में 29° का सूर्य व मकर में 29° का मंगल, राजयोग का आंशिक फल ही दे पाते हैं। हमारी भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी की कुंडली में छः ग्रहों के परिवर्तन ने उनहें जबरदस्त राजयोग दिया जिसके कारण उन्होंने लगभग 18 वर्ष तक देश के शासन की बागडोर संभाली।
किंतु उनका भी विपरीत समय चला, अकारक ग्रह शनि की महादशा में शुक्र की अंतर्दशा चली। उत्तराकालामृत के अनुसार यदि शुक्र व शनि दोनों बलवान हों, तो शनि की महादशा में शुक्र का अंतर व शुक्र की महादशा में शनि का अंतर को कठिनाई का समय साबित होता है। श्रीमती गांधी को भी शनि की महादशा में शुक्र की अंतर्दशा के दौरान अत्यंत विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ा और वह चुनाव हार गईं। उस समय उनका राजयोग भंग हुआ था। अतः यह कहना उचित होगा कि अकारक ग्रह की दशा - अंतर्दशा व बुरा समय भी राजयोग भंग करने में सक्षम होता है। लग्न से छठे, सातवें या आठवें भाव में प्राकृतिक शुभ ग्रह हों या किसी एक घर में भी शुभ ग्रह हो तो लग्नाधिराज योग का शुभ फल मिलता है, किंतु यदि उस शुभ ग्रह के साथ एक भी पाप ग्रह हो तो उस लग्नाधिराज योग से प्राप्त राजयोग भंग हो जाता है। इस प्रकार ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां या तो राजयोग भंग हुए हैं या सिर्फ आंशिक ही मिले हैं। जीवन का अर्थ संघर्ष है। उतार-चढ़ाव जिंदगी के दो पहलू हैं। जीवन के संघर्षों से जुझते हुए निरंतर आगे बढ़ने का प्रयास करते रहना ही हमारा कर्तव्य है। सफलता मिलना या न मिलना भाग्य का खेल है। पुरुषार्थ के माध्यम से ही हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। अतः राजयोग भंग होने पर भी मनुष्य को हार न मान कर अपने लक्ष्य के प्रति अडिग रहकर कर्म करते रहना चाहिए क्योंकि परिश्रम ही सफलता की कुंजी