कैलाश का नाम आते ही हिमालय पर्वत पर बैठे गंगाधर शिव की मूर्ति आंखों के सामने साकार होने लगती है। कहा जाता है कि किसी समय राक्षसराज रावण ने यहीं खड़े होकर देवाधिदेव भगवान शिव की तपस्या की थी और उन्हें अपनी कठिन तपस्या से प्रसन्न कर मुंहमांगा वरदान प्राप्त किया था। यह स्थान देवता, सिद्ध तथा महात्माओं का निवास स्थल कहा जाता है। मानसरोवर की इस पवित्र भूमि पर ही सती के दाहिने हाथ की हथेली गिरी थी, यहां पर सर्वसिद्धिप्रदायी भगवती ‘दाक्षायणी’ एवं भैरव ‘अमर’ विराजमान हैं। मानसरोवर की उत्पत्ति के विषय में कई मान्यताएं हैं। एक कथा के अनुसार जब राक्षस तारकासुर देवताओं एवं मानवों को अत्यंत दुख देने लगा, तब उसका वध करने के लिए देवताओं ने भगवान शंकर से महापराक्रमी पुत्र उत्पन्न करने हेतु प्रार्थना की। शिव ने उनकी प्रार्थना सुन ली। उसी दिन जब पार्वती मानसरोवर के तट पर भ्रमण करने के लिए गईं तो उन्होंने देखा कि छः स्त्रियां (कृत्तिकाएं) कमलपत्र के द्रोण में मानसरोवर का पवित्रतम जल भरकर ले जा रही थीं। पार्वती ने उनसे पूछा कि वे कौन हैं और किस प्रयोजन के लिए जल ले जा रही हैं। उन्होंने बताया कि आज के शुभ दिन में जो भी पतिव्रता नारी इस जल का पान करेगी, उसके उदर से देवसेना नायक जैसा महापराक्रमी पुत्र उत्पन्न होगा।
यह सुनकर पार्वती ने उस द्रोण में भरा जल पीने की इच्छा व्यक्त की। उन कृत्तिकाओं ने कहा कि हम यह पवित्रतम जल आपको अवश्य देंगी लेकिन इस जल के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले पुत्र का नाम हमारे नाम पर ही होगा और उसका लालन पालन भी हम ही करेंगी। पार्वती ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर उस दिव्य जल का पान किया। इसके फलस्वरूप कार्तिकेय का जन्म हुआ। युद्ध में देवसेनानायक बनकर उन्होंने तारकासुर का वध किया। एक अन्य कथा के अनुसार एक बार लंकापति रावण कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर आया था। शक्ति उपासक रावण ने महाशक्तिपीठ मानसरोवर में स्नान करना चाहा, किंतु देवताओं ने उसे स्नान करने से रोका। यह देखकर महाबली रावण ने अपनी सामथ्र्य से मानसरोवर के पास ही एक बड़े सरोवर का निर्माण किया और उसमें स्नान किया। उस सरोवर का नाम रावणहद पड़ा। हिमालय की पर्वतीय यात्राओं में मानसरोवर-कैलाश की यात्रा सबसे कठिन है। इस यात्रा में यात्रियों को लगभग तीन सप्ताह तक तिब्बत में ही रहना पड़ता है। केवल यही एक यात्रा है जिसमें यात्रियों को हिमालय को पूरा पार करना होता है। दूसरी यात्राओं में हिमालय का कुछ ही भाग दिखाई देता है।
मानसरोवर: पूरे हिमालय को पार करने के बाद तिब्बती पठार में लगभग 30 मील जाने पर पर्वतों से घिरे दो महान सरोवर मिलते हैं। मनुष्य के दो नेत्रों के समान स्थित इन सरोवरों के मध्य नासिका के समान उठी हुई पर्वतीय भूमि है, जो दोनों को पृथक करती है। इनमें एक राक्षसताल है, दूसरा है मानसरोवर। राक्षसताल बड़ा है, वह गोल व चैकोर नहीं है। उसकी भुजाएं मीलों दूर तक टेढ़ी-मेढ़ी होकर पर्वतों तक फैली हैं। मानसरोवर गोलाकार एवं अंडाकार है। इसमें हंसों की बहुतायत है। ये हंस आकार में बतखों से बहुत मिलते हैं। मानसरोवर के आसपास या कैलाश पर कहीं कोई वृक्ष, फूल आदि भी नहीं हैं। एक फुट की घास और सवा फुट की कंटीली झाड़ियां अवश्य दिखाई देती हैं। इसलिए यहां कई लोगों को सांस लेने में परेशानी हो सकती है। इसके लिए आक्सीजन साथ ले जाना आवश्यक है।
कैलाश: मानसरोवर से कैलाश लगभग 20 मील दूर है। कैलाश के दर्शन मानसरोवर पहुंचने से पूर्व ही होने लगते हैं। यदि आसमान में बादल न हों तो कुंगरीविंगरी चोटी पर पहुंचते ही भगवान शंकर के दिव्य धाम कैलाश के दर्शन हो जाते हैं। पूरे कैलाश की आकृति एक विराट शिवलिंग जैसी है, जो पर्वतों से बने एक षोडशदल कमल के मध्य रखा हुआ प्रतीत होता है। कैलाश आसपास के शिखरों से ऊंचा है। यह पर्वत काले पत्थरों का है और ऊपर से नीचे तक बर्फ से ढका रहता है। लेकिन इसके आसपास की कमलाकार पहाड़ियां कच्चे लाल मटमैले रंग की हैं। कैलाश की परिक्रमा 32 मील की है, जिसे यात्राी प्रायः तीन दिनों में पूरा करते हैं। यह परिक्रमा कैलाश के चारों ओर घिरे कमलाकार शिखरों के साथ हेाती है।
यात्रा के लिए आवेदन: कैलाश-मानसरोवर जाने के लिए 4-5 महीने पूर्व आवेदन करना पड़ता है। इस यात्रा का आयोजन भारत सरकार और चीन सरकार दोनों मिलकर करते हैं। यात्रियों के लिए आवश्यक है कि उनके पास कम से कम 9 महीने की वैधता अवधि वाला पासपोर्ट होना चाहिए। यात्रा का मौसम जून से प्रारंभ होता है और अगस्त-सितंबर तक चलता है। जिनके आवेदन स्वीकार किए जाते हैं उन्हें अग्रिम सूचना दे दी जाती है। जिन्हें एक बार यात्रा की अनुमति नहीं मिल पाती उन्हें निराश नहीं होना चाहिए। अगले वर्ष फिर आवेदन करना चाहिए।
कैसे जाएं कहां ठहरें: कैलाश-मानसरोवर की यात्रा सामान्यतया तीन मार्गों से की जाती है। पहला मार्ग पूर्वोत्तर रेलवे के टनकपुर स्टेशन से बस द्वारा पिथौरागढ़ जाकर वहां से पैदल यात्रा करते हुए ‘लिपू’ नामक दर्रा पार करके जाता है। दूसरा मार्ग पूर्वोत्तर रेलवे के काठगोदाम स्टेशन से बस द्वारा कपकोट (अल्मोड़ा) जाकर फिर पैदल यात्रा करते हुए ‘ऊटा’, ‘जयंती’ तथा ‘कुंगरीविंगरी’ घाटियों को पार करके जाने वाला मार्ग है। तीसरा मार्ग उत्तर रेलवे के ऋषिकेश स्टेशन से बस द्वारा जोशीमठ जाकर वहां से पैदल यात्रा करते हुए ‘नीती’ घाटी को पार कर पैदल जाने वाला मार्ग है। इन तीनों ही मार्गों में यात्रियों को भारतीय सीमा का अंतिम बाजार मिलता है। वहां तक उन्हें ठहरने का स्थान, भोजन का सामान, भोजन बनाने के बर्तन आदि सुविधापूर्वक मिल जाते हैं। जोशीमठ वाले मार्ग से जाने वाले यात्री हरिद्वार, ऋषिकेश, देवप्रयाग तथा बदरीनाथ के मार्ग के अन्य तीर्थों की यात्रा का लाभ भी उठा सकते हैं। इस मार्ग को छोड़कर शेष दो मार्गों में कुली आदि पूरी यात्रा के लिए नहीं मिलते, रास्ते में बदलने पड़ते हैं। भारतीय सीमा के अंतिम बाजार के बाद वहां से तिब्बती भाषा का जानकार एक गाइड साथ में अवश्य लेना चाहिए क्योंकि तिब्बत में हिंदी या अंग्रेजी जानने वाले नहीं मिलते। तिब्बत में रहने के लिए भोजन, मसाले आदि सभी भारतीय अंतिम बाजार से लेने पड़ते हंै।
सावधानियां: चारों तरफ बर्फ होने के कारण यहां चलते समय पूरा शरीर गर्म कपड़ों से तो ढका होना ही चाहिए। साथ ही सुबह और शाम चेहरे एवं हाथों पर वैसलीन अच्छी तरह लगाते रहनी चाहिए अन्यथा हाथ फटने लगेंगे और नाक में घाव भी हो सकते हैं। बर्फ में न फिसलने वाले और पहाड़ी मार्ग पर चलने वाले जूते पहन कर जाने में सुविधा रहती है। इस यात्रा में लगभग डेढ़-दो महीने का समय लगता है। लगभग साढ़े चार सौ मील पैदल, घोड़े या याक आदि की पीठ पर चलना पड़ता है। छोटे बच्चों एवं वृद्धों को यात्रा नहीं करनी चाहिए। यदि यहां समूह में जाएं तो यात्रा कम खर्च और आनंद-उल्लास के साथ संपन्न होगी।