राहु-केतु ग्रहण :काल सर्प योग दोष निवारण बसंत कुमार सोनी राहु-केतु खगोल विज्ञान की दृष्टि से खगोलीय बिंदु हैं लेकिन पौराणिक संदर्भ की दृष्टि सेदेखने पर सुंदर कथाएं सामने आती हैं तथापि ग्रहण और कालसर्प शांति के विधि विधान काविवेचन सरल उपायों के रूप में किया गया है इस लेख में। राहु-केतु कौन हैं? पौराणिक एवंज्योतिषीय संदर्भज्योतिषीय संदर्भ में देखें तो हम यहपाते हैं कि नवग्रहों में से अंतिम दोग्रह ''राहु-केतु'' हैं। सौर मंडल मेंइनका कोई पिंड नहीं हैं। ये चंद्रमा केद्वारा पृथ्वी के चतुर्दिक चक्कर लगानेसे बनने वाले खगोलीय बिंदु हैं।
भौतिकअस्तित्व हीन, ज्योतिषीय महत्व वालेइन ग्रहों को छाया-ग्रह माना गयाहै।पौराणिक संदर्भ से देखें तो यहविदित होता है कि समुद्र में रहनेवाली एक राक्षसी थी जो अपनीमाया से नभचर प्राणियों की जलमें परछाईं देखकर और परछाईको पकड़कर उड़ने वालेजीव-जंतुओं की गति को अवरूद्धकर देती थी। गति अवरूद्ध होजाने से नभचरों की उड़ान-शक्तिसमाप्त हो जाने पर वे धड़ाम सेआकर समुद्र के जल में गिर जातेथे, जिन्हें वह माया छायाग्रही राक्षसीखा जाती थी। उसका नाम सिंहिकाथा।सिंहिका नाम सा घोरा जलमध्येस्थिता सदा। आकाशगामिनां छायामाक्रम्याकृष्यभक्षयेत्॥(अध्यात्म रामायण से सुंदर कांड)निसिचर एक सिंधु महुं रहई।करि माया नभ के खग गहई।जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं।जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥गहइ छांह सक सो न उड़ाई।एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥(सुंदर कांड दोहा क्र-2 के पश्चात्) संहिका हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षकी बहन थी। प्रह्लाद की बुआ औरराहु-केतु की माता सिंहिका के पुत्रका नाम था सैंहिकेय जो कालांतर मेंराहु कहलाया। यही राहु समुद्र मंथनके अवसर पर छद्मवेशी देवता बनकरसूर्य और चंद्रमा के बीच में बैठकरअमृतपान कर गया। सूर्य चंद्रमा इसेपहचान गये, तब बिष्णु भगवान नेसुदर्शन चक्र से इसके दो टुकड़े करदिये। सिर वाला टुकड़ा राहु कहलायाऔर धड़ वाला केतु। चूंकि सूर्यचंद्र ने भेद खोला था
इसलियेद्वेषवश राहु-केतु इनको ग्रसते रहतेहैं जिसे धार्मिक रूप में सूर्यग्रहणऔर चंद्रग्रहण कहते हैं।महाभारत काल में अर्जुन ने सूर्यास्तके पूर्व अपने पुत्र अभिमन्यु कोमार डालने वाले हत्यारे राजाजयद्रथ का वध करने की प्रतिज्ञाकी थी और ऐसा न कर सकनेपर गांडीव धनुष सहित स्वयं कोअग्नि के हवाले कर देने का प्रणभी ठाना था। उस दिन बेवक्तसूर्यास्त हो जाने से अंधेरा छागया। कौरव दल में खुशी एवंपांडव दल में निराशा छा गई।चिता तैयार की गई।
अर्जुन के आत्मदाह के दृश्य को देखने के लियेराजा जयद्रथ भी निडर होकर पागलोंकी भांति नाचते हुये चिता भूमि पर आटपका। तत्क्षण श्री कृष्ण ने सखा अर्जुनको आदेश दिया, गांडीव उठाओ औरअपने दुश्मन जयद्रथ को मृत्युदंड दो।देखो, आसमान में सूरज चमक रहाहै। वस्तुतः उस दिन पूर्ण सूर्य ग्रहणथा। सूर्य देवता राहु ग्रास से मुक्त होचुके थे। इस तरह ग्रहण रहस्य केज्ञाता भगवान कृष्ण ने अपने मित्रअर्जुन के प्राण बचाये। अर्जुन कीप्रतिज्ञा पूर्ण हुई। जयद्रथ मारा गया।दोष निवारण :राहु-केतु जिस भाव में विराजमान होतेहैं, उस भाव की हानि करते हैं।
राहुकी महादशा में गोमेद रत्न और चांदीनिर्मित राहु का यंत्र धारण करना चाहियेतथा केतु की महादशा में लहसुनियारत्न और रूपा अर्थात् चांदी निर्मितकेतु यंत्र धारण कर लेना चाहिये।इनकी अशुभ गोचरीय स्थिति में बीजमंत्रों का जप एवम् दान देना श्रेयस्करहोता है। लाल किताब के अनुसारसरस्वती के पूजन से राहु को तथागणेश पूजन से केतु को अनुकूल बनायाजा सकता है। ग्रहों के दोष शमनार्थउपाय करने के पूर्व ज्योतिषीय परामर्शलेना नितांत आवश्यक रहता है।
ग्रहण किसे कहते हैं व ग्रहण कैसेबनता है?सौरमंडलीय प्रकाशमान भौतिक पिंडोंके समक्ष किसी भौतिक अप्रकाशमानपिंड का भाग आ जाने से जबप्रकाशमान पिंड का प्रकाश ढ़क जाताहै और दूसरी पार वालों के लिये जोपरछाईं या छाया बन जाती है वहीछाया ग्रह के नाम से जानी जाती है। लाल किताब के अनुसार सरस्वतीके पूजन से राहु को तथा गणेशपूजन से केतु को अनुकूल बनाया जासकता है। शृ्रंगी ऋषि के मतानुसार ग्रहणकाल में जो विधि विधान के साथश्राद्ध करता है उसे समस्त भूमंडलके दान जैसे उत्तम फल की प्राप्तिहोती है।
जिन राशि वाले जातकों को ग्रहणका फल अशुभ एवम् मध्यम हो, उन्हेंग्रहण नहीं देखना चाहिये। कालसर्प योग वाले जातक के लियेराहु केतु की दशांतर्दशा दुःसाध्य होतीहै। वहीं राहु का गोचरीय भ्रमण 6, 8,12 भाव में दुखदायी होता है। ऋग्वेदीय संहिता के पांचवें मंडलान्तर्गतसूर्य एवं चंद्र ग्रहण की जानकारीमिलती है जिसमें राहु व केतु कोग्रहण लगने का कारण बतलाया गयाहै। साथ ही इस संहिता में इन ग्रहणोंकी उपद्रवी शांति के लिये इंद्रादि देवोंसे विनती की गई है।समवायांग के पंचदशी समवाय मेंछायाग्रह राहु के दो प्रकार वर्णित हैं।
1. नित्य राहु और
2 . पर्व राहु। नित्यराहु कृष्ण पक्ष व शुक्ल पक्ष का कारणमाना गया है और पर्व राहु को चंद्रग्रहणका कारण माना गया है।केतु का ध्वज-दंड सूर्य के ध्वज दण्डसे ऊंचा है इसलिये भ्रमणवश यहीकेतु सूर्य ग्रहण का कारण होता है।
सूर्य ग्रहण : सूर्य को राहु-केतु द्वाराढकने पर जब सूर्य का पूर्ण अथवाआंशिक भाग ढंक जाने से सूर्य कासंपूर्ण अथवा आंशिक प्रकाश पृथ्वी पर नहीं पहुंचता तब उसे सूर्यग्रहण कहतेहैं।खग्रास सूर्यग्रहण : चंद्रमा स्वतःप्रकाशमान न होने से अपारदर्शक पिंडहै और पृथ्वी का उपग्रह हैं जो सूर्यकी परिक्रमा करती हुई पृथ्वी कीपरिक्रमा करता है। अपने अंडाकारपथ पर भ्रमण करता हुआ चंद्रमाअमावस्या के दिन सूर्य व पृथ्वी केमध्य आ जाता है और कभी-कभीजब सूर्य चंद्र और पृथ्वी एक सीध मेंहों तब चंद्रदेव सूर्य देव के प्रकाश कोढंक लेते हैं।
चदं्रमा कभी पृथ्वी से दूररहता है और कभी पृथ्वी के पास।पास में रहने से चंद्र बिंब बड़ा होताहै। जब वह पृथ्वी के पास हो औरराहु केतु बिंदु पर हो तब उनकी परछाईंपृथ्वी पर पड़ती है। पृथ्वी के पास मेंहोने से बड़े बिंब वाली चंद्र की स्थितिमें सूर्य पूर्ण रूपेण ढक जाने पर उसेपूर्ण या खग्रास सूर्य ग्रहण कहते हैं।पृथ्वी के जिस भाग पर खग्रास सूर्यग्रहण दृष्टिगोचर होता है, उसी स्थानपर दोबारा खग्रास सूर्य ग्रहण 360वर्षों के अंतराल से होना संभाव्य रहताहै। पूर्ण सूर्य ग्रहण 8 से 10 मिनट काहोता है।
वलयाकार सूर्यग्रहण : वलयाकारसूर्यग्रहण ऐसी अमावस्या को होता हैजब चंद्रमा ठीक राहु या केतु बिंदु परहोता है। परंतु पृथ्वी से दूर बिंदु पररहता है। वलयाकार या कर्षणाकारसूर्य-ग्रहण में सूर्य बिंब का गोलाकारमध्य भाग अर्थात् बीचों बीच का भागढकता है।खंड सूर्यग्रहण : खंड सूर्य ग्रहण मेंसूर्य बिंब का कुछ भाग या अंश हीढकता है। खंड सूर्य ग्रहण भी अमावस्या को ही उस समय होता है जब चंद्रमाठीक राहु या केतु बिंदु पर न होकरउनमें से किसी एक बिंदु के समीपरहता है।चंद्र ग्रहण : ज्योतिष के मनीषियोंका यह कथन है कि पूर्णमासी के दिनयदि चंद्र और राहु का अंतर सातअंशों से कम हो तो चंद्रग्रहण काहोना अवश्यम्भावी होता है। पूर्णिमाको सूर्य और चंद्रमा के बीच में पृथ्वीरहती है।
जब चंद्रमा पृथ्वी की छायापर आ जाता है, तब वह प्रकाशहीनहो जाता है क्योंकि उस पर सूर्य काप्रकाश नहीं पहुंच पाता। चंद्रमा काऐसा प्रकाशहीन पूर्ण आंशिक भाग कालानजर आता हे। यही चंद्रग्रहण कहलाताहै। चंद्रमा का समूचा पिंड पृथ्वी कीछाया में आने से खग्रास चंद्र ग्रहणऔर आधा अधूरा पिंड पृथ्वी की छायामें आगे से खंड चंद्रग्रहण कहलाताहै।
दोष-निवारण : सूर्य ग्रहण का सूतकया वेध चार प्रहर यानी 12 घंटे पूर्व सेलग जाता है एवं चंद्रग्रहण का सूतकया बेध तीन प्रहर यानी 9 घंटे पूर्व सेलग जाता है।
दोनों ग्रहणों में बालक,वृद्ध एवं रोगियों को एक प्रहर यानी 3घंटे पूर्व से ग्रहण का सूतक मानने कीपरंपरा है। जिन राशि वाले जातकोंको ग्रहण का फल अशुभ एवम् मध्यमहो, उन्हें ग्रहण नहीं देखना चाहिये।ग्रहण काल में मूर्ति स्पर्श, शयन, भोजनएवं शौचादि क्रिया का निषेध रहताहै। ग्रहण के आरंभ एवं मोक्ष पर स्नानकरने का विधान है। ग्रहण के मध्य मेंहवन, जप एवं दानादि का महत्व है।भगवद् संकीर्तन, जप, दानादि सभीको करना चाहिये। कहा गया है।
''सूर्येन्दुग्रहणं यावत्तावत्कुर्याज्जपादिकम्''शृ्रंगी ऋषि के मतानुसार ग्रहण कालमें जो विधि विधान के साथ श्राद्धकरता है उसे समस्त भूमंडल के दानजैसे उत्तम फल की प्राप्ति होती है।ऐसे ग्रहण के श्राद्ध में सोने चांदी केदान का भी अति विशिष्ट महत्व होताहै।कालसर्प योग : लग्न कुंडली मेंसभी सूर्यादि सप्तग्रह, दोनों छाया ग्रहराहु और केतु के मध्य विराजमान होनेपर कालसर्प योग निर्मित होता है।
कुछ विद्वानों के मत से कालसर्प योगवाली पत्रिका में यदि सूर्य या चंद्रराहु-केतु के मध्य में न होकर अन्यत्रकिसी स्थान पर होंगे तो आंशिककालसर्प माना जायेगा। यदि सूर्य चंद्रको छोड़कर शेष पांचों ग्रहों में से कोईभी एक ग्रह राहु-केतु के मध्य मेंस्थित न होकर अन्यत्र विराजमान होगा,तो खंडित कालसर्प योग कहा जायेगा।इन आंशिक एवं खंडित कालसर्प योगोंका दुष्प्रभाव पूर्ण कालसर्प योग सेकुछ कम होता है, पर होता है जरूर।कालसर्प योग वाले जातक के लियेराहु केतु की दशांतर्दशा दुःसाध्य होतीहै। वहीं राहु का गोचरीय भ्रमण 6, 8,12 भाव में दुखदायी होता है।
वृष, मिथुन, कन्या, तुला लग्नों में स्थितराहु निर्मित कालसर्प योग जातकों कोकष्टों की मार से झुलसा देता है।वहीं राहु या केतु के साथ सूर्य-चंद्रकी युतियां कालसर्प योग के वेग कोबढ़ा देती है।कालसर्प योग वाली पत्रिकाओं में राहुके साथ मंगल, या बुध, या गुरु याशुक्र अथवा शनि होने पर कुंडलियांशापित हो जाती हैं जिसका दुष्प्रभावविविध शांति उपायों से दूर किया जासकता है। कुंडली के विविध भावानुसार12 प्रकार के कालसर्प योग बनते हैं।इनकी समयानुसार शांति अवश्य कराईजानी चाहिए।
दोष निवारण : किसी सिद्ध शिव क्षेत्र में कालसर्पयोग की शांति करायें एवं संपूर्णकालसर्प दोष निवारण यंत्र की स्थापनाकरें। शिवजी को चांदी के बनेनाग-नागिन का जोड़ा अर्पित करें।शिवसहस्र नाम स्तोत्र या हनुमत्सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करें।भैरवाष्टक का पाठ, सर्पसूक्त का पाठसदैव करें।
राहु-केतु के मंत्रों काजप, दानादि करावें। कालसर्प योगमुद्रिका या लॉकेट धारण करें। राहुकी शांति के लिये श्रावण मास मेंरुद्राष्टाध्यायी का पाठ और केतु केलिये नवरात्रि में छिन्नमस्ता देवी कानौ-दिनो का अनुष्ठान करावें।दोष-निवारण में श्रद्धा-विश्वाससफलता देता है।