शनि ग्रह सभी ग्रहों में सबसे मंद गति ग्रह है। इसलिए गोचर में इनके फल का विशेष महत्व है। शनि 12 भावों में गोचर अवधि में किस प्रकार के फल देते हैं।
आईये जानें। शनि का परिचय,
महत्व एवं स्वरूप: सूर्य-सुत, शिव-शिष्य, शनैः-शनैः चलने वाले शनिदेव यम-यमुना भ्रातृ हैं। सूर्य की छाया नामक पत्नी उनकी मातृ हैं। मनुष्यों को उनके पूर्व संचित पापों का कुफल देने के लिए वह अपने हाथ में लौह दंड धारण किये हुए हैं। भयानक सींगों से युक्त, प्रबल वेग वाले, धावक भैंसे पर विराजमान हैं। उनके शीश पर माणिक्य रत्न जड़ित सुंदर किरीट चमकता रहता है जिनके प्रचंड प्रकोप से राजा भी रंक हो जाता है। ‘‘सुर, असुर, मनुज, पशु-पक्षी, रेंगने वाले जीव-जंतु अदि सभी प्राणी उनकी दृष्टि मात्र से दुखित हो जाते हैं। ब्रह्म, इंद्र विष्णु, सप्तर्षि पर जब शनि की दृष्टि पड़ती है तब ये सब अपने पदों से च्युत हो जाते हैं। देश, नगर, ग्राम, द्वीप, पेड़ इत्यादि भी शनि की दृष्टि पड़ जाने से समूल नष्ट हो जाते हैं।’’ ऐसा दशरथकृत शनि स्तोत्र से स्पष्ट है जिसमें वे शनिदेव को प्रणाम करते हुए उनसे प्रार्थना करते हैं कि हे सूर्यात्मज शनिदेव आप हमारे ऊपर प्रसन्न होकर हमें शुभ वर दीजिए।
शनि का सभी को डर: संभवतः ऐसा कोई व्यक्ति न होगा जो शनिदेव के प्रकोप से न डरता हो। शनि ग्रह के शुभाशुभ फल उनके गोचर में अच्छे या बुरे स्थान में प्रवेश करने के लगभग 2 या 3 मास पूर्व से ही विदित होने लगते हैं। यह भी सच है कि शनि के लौह दंड की मार बड़ी विकट होती है। यदि जातक उचित उपायों के माध्यम से शनिदेव को प्रसन्न कर ले और पीड़ाकाल में उनके शरणागत होकर शनिदेव रक्षा करे ऐसी सदैव विनती करता रहे तो कुछ सीमा तक उनकी अशुभता को दूर किया जा सकता है।
कब लाभप्रद एवं हानि प्रद शनिदेव: शनिदेव सबको सदा अशुभ फल देते हैं ऐसा नहीं है। तुला लग्न वालों के लिए शनि चतुर्थ एवं पंचम भाव के स्वामी होकर पूर्ण योग कारक होते हैं और वे अपनी दशा/अंतर्दशा में जातक को हर क्षेत्र में सुख समृद्धि प्रदान करते हैं। राजयोग कारक होते हैं। मकर लग्न वाले जातकों को भी शनि अपनी दशा/अंतर्दशा में शुभ फल देकर सुख-समृद्धि की वृद्धि करते हैं। वैसे ही कुंभ लग्न वाले जातकों को शनिदेव आंशिक रूप में अशुभ होकर शुभ फल देने में समर्थ होते हैं। जन्मांग में शनि के निर्बल होने पर शुक्र की महादशा में शनि की अंतर्दशा जातकों को उŸाम फल देने वाली होती है। शुभ योगकारक ग्रह की महादशा हो और शनि योगकारक स्थिति में हो, तब साढ़ेसाती के दौरान शनिग्रह लग्न से केंद्र या त्रिकोण में गोचर करे तो शनि जातक को अत्यंत शुभ फल प्रदान करते हैं।
शनि की ढैय्या एवं साढ़ेसाती: चंद्र लग्न से 4वें या 8वें स्थान में शनि के भ्रमण से शनि की ढैय्या मानी है। जब शनि चंद्र-लग्न से 12वें, 1वें और 2वें स्थान में गोचरस्थ हो, तो शनि की साढ़ेसाती कहलाती है।
इस तरह हम पाते हैं कि एक ही समय में द्वादश राशियों में से पांच-राशियां शनि की ढैय्या और साढ़ेसाती के जंजाल में फंसी रहती हैं। राशि से चैथे शनि की ढैय्या का बहुत ज्यादा कष्टप्रद प्रभाव जातक पर नहीं होता है किंतु चंद्र से 8वें शनि की ढैय्या या साढ़ेसाती चल रही हो एवं शनि 8वें या 12वें भाव में पड़ रहे हों, तो शनि के प्रकोप की अतिशय वृद्धि हो जाती है। ऐसी स्थिति में शनि के साथ अन्य बाधाकारक ग्रह भी गोचर में हों तो शनि प्रकोप प्रचंड ज्वाला चरम बिंदु पर पहुंचकर धधकने लगती है।
ऐसा होने पर भी यदि देवशात् शुक्र की अंतर्दशा भी चल रही हो तो जातक को मृत्यु तुल्य कष्ट उठाना पड़ सकता है। ये दोनों अंतर्दशाएं 3 वर्ष 2 माह की होती हैं। शनि को कालपुरुष का दुख माना गया है। रुष्ट होने पर शनिदेव जातक को शासक से सेवक बना देते हैं और प्रसन्न होने पर सेवक को शासक बना देने में सामथ्र्यवान हैं।
नाना प्रकार के दुख-दर्द, धननाश, व्यापार में शनि, शिक्षा में व्यवधान, परीक्षा साक्षात्कार आदि में असफलता, वाहन-दुर्घटनाएं, आदि- व्याधि, कर्ज, आजीविका की हानि, भू-भवनादि निर्माण कार्य आदि निर्माण कार्य आदि में विफलता, कष्ट, संकट, झंझटें इत्यादि शनि की कुदृष्टि होने पर ही संभव है। दुख-दाता के रूप में ही उनकी विशिष्ट पहचान है। यही उनकी महिमा और अनुपम स्वरूप है।
गोचरानुसार चंद्र लग्न से द्वादश भावों में शनि ग्रह के शुभाशुभ फल:
1. जातक की जन्म-राशि या चंद्र लग्न में शनि विराजमान होने पर रोगोत्पŸिा व अर्थहानि होती है।
2. राशि से दूसरे भाव में शनि कष्टों का खजाना भरकर धन के खजाने को शनैः शनै खाली कर देते हैं।
3. राशि तीसरे भाव में शनि एक मत से धन-संप्रदाय प्रदायक और दूसरे मत से समस्त शत्रु नाशक होते हैं।
4. राशि से चैथे भाव के शनि शत्रु बर्द्धक, कार्य अवरोधक, मित्रता नाशक, सुख शांति प्रहारक होते हैं।
5. राशि से पांचवें भाव में शनि होने पर लाभ का ह्रास, व्यय की वृद्धि, स्वजनों से विरोध व आत्म ग्लानि कराते हैं।
6. राशि से छठवें भाव में शनि देवता कल्याणकारी होते हैं, लाभप्रद माने गये हैं, आय व्यय समायोजक होते हैं।
7. राशि से सातवें भाव में शनि जातक को अथवा उसके परिवार को रोग ग्रस्त कर लाभ की गति अवरुद्ध कर सकते हैं।
8. राशि से आठवें भाव में शनि हो तो रोगों और संघर्षों का आगमन होता है, साथ ही साथ धन का पलायन होता है।
9. राशि से 9वें भाव में शनि के आने से वैराग्य भाव उत्पन्न होता है, सुह्रदवर्ग से दुख व धन हानि होती है।
10. राशि से दसवें भाव में शनि गोचर करे तो धन का लाभ कराते हैं एवं घनिष्ठ मित्र जानी दुश्मन बन जाता है।
11. राशि से ग्यारहवें भाव में शनि संतान कष्ट से पीड़ा, लाभ में स्थिरता व हानि का ह्रास कराने वाले होते हैं।
12. राशि से बारहवें भाव में शनि का भ्रमण मन मस्तिष्क को खिन्न कर देता है एवं दोषपूर्ण फल प्रदान करता है।
शनि के देवता: शनि के देवता यानी शनि सुरभित संकट हरण देवता प्रमुख रूप में 2 हैं पहले भगवान शिव और दूसरे श्री हनुमानजी हैं। शनि पीड़ा रक्षार्थ इन देवों की शरणागति लेकर जातक इनकी पूजा अर्चना कर सदा से लाभ उठाते आये हैं और भविष्य में भी लाभ उठाते रहेंगे। इनके बाद नाम आता है भक्त वत्सल भगवान भैरव नाथ जी का जो अपने भक्त जातकों को शनि की पीड़ा से मुक्ति दिलाते हैं।
इन देवों से संबंधित निम्न स्तुतियों का पाठ शनि पीड़ा निवारक होता है।
1. शिव सहस्रनाम स्तोत्र, शिव ताण्डव स्तोत्र, अमोघ शिव कवच, रुद्राष्टक का पाठ, शिव पंचाक्षर स्तोत्र आदि एवं आवश्यकता के अनुरूप मृत्युंजय मंत्र का जप।
2. हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमानाष्टक, हनुमान बाहुक, हनुमत् सहस्रनाम स्तोत्र, विभीषण कृत हनुमत् स्तोत्र, संकट मोचन स्तोत्र, सुंदरकाण्ड रामायण का पाठ आदि।
3. भैरव अष्टोŸार शतनाम स्तोत्र, भैरव आपुदुद्धारक मंत्र जप, भैरव चालीसा आदि।
4. उपरोक्त के अतिरिक्त देवी भक्त जातक अपनी भावना के अनुरूप माता महाकाली की पूजा, प्रार्थना करते हुए शनि पीड़ा शमनार्थ काली सहस्रनाम स्तोत्र के पाठ से लाभान्वित एवं रक्षित होते हैं।
शनि पीड़ा शांति विविध उपाय: शनि पीड़ा से रक्षार्थ शनि के दान-पदार्थों का मध्याह्न काल में शनिवार के दिन किसी सुपात्र को दान दिया जाता है
कहा गया है- सर्वेषाम् उपायानां दानं श्रेष्ठतम्। दान-पदार्थ जैसे नीलम, स्वर्ण, महिषी, श्यामा गौ, कस्तूरी काले-वस्त्र, काला छाता, उड़द काली तिल, तेल, चमड़े के बने काले जूते, चिमटा आदि। सामथ्र्यानुसार एक से लेकर उन्नीस या तेईस शनिवार दान देते रहना चाहिए।
शनिदेव जो अपने को दुख दे रहे हों उन्हें पूजा-पाठ आदि के माध्यम से सर्वप्रथम मनाना ही ज्यादा अच्छा होता है ताकि वे अपने क्रोध एवं क्रूरता को त्यागकर हमें दुख देना बंद कर दें।
शनि प्रार्थना मंत्र: सूर्यपुत्रो दीर्घदेहों विशालाक्षः शिवप्रियः। मंदचारः प्रसन्नत्मा पीड़ा हरतु में शनिः।। रुद्राक्ष धारण: कष्ट रक्षार्थ सप्त अथवा चतुर्दश मुखी अथवा ये दोनों रुद्राक्ष (7 व 14 मुखी) धारण करना चाहिए।
माला धारण: शनि की महादशा, अंतर्दशा, ढैय्या, साढ़ेसाती और जन्मकालिक शनि की नीचस्थ, पापयुत, पापदृष्ट, शत्रु राशिस्थ, वक्र-स्थिति आदि के दोष परिहार्य के लिए रुद्राक्ष अथवा रक्त चंदन की माला धारण की जाती है। पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ ‘‘ऊँ नमः शिवाय’’ एवं ‘‘ऊँ शं शनैश्चराय नमः’’ मंत्र की एक-एक माला जप करते हुये ये मालायें धारण करने वाले जातक की अनिष्ट से रक्षा होती है, शांति मिलती है। रात्रि में माला उतारकर शुद्ध स्थान में टांग देना चाहिए और अगले दिन स्नानोपरांत 5 बार ‘‘ऊँ नमः शिवाय’’ बोलते हुए पुनः धारण कर लेनी चाहिए। जप करने वाली माला और पहनने वाली माला पृथक-पृथक होनी चाहिए।
उपवास रखना: पूर्ण विधि के साथ 21, 31 या 51 की संख्या में शनिवार व्रत का अनुष्ठान करने से शनि ग्रह जनित अरिष्ट फल दूर होता है एवं अनुकूल फल की प्राप्ति होती है। शनिवार का व्रत शुक्ल पक्ष में शुरु करना चाहिए। व्रत वाले दिन शनि चालीसा/शनिवार व्रत कथा पढ़ना चाहिए। दिन में एक समय भोजन का त्याग करना उपवास कहलाता है। व्रत वाले दिन दुग्धाहार व फलाहार कर सकते हैं।
मंत्र जप एवं यंत्र स्थापना: शनि ग्रह की पीड़ा से ग्रस्त जातकों को विभिन्न उपायों के माध्यम से शनिदेव से अपनी रक्षा के निमिŸा शांति कार्य करने चाहिए तभी वे बाधा मुक्त होकर सुख-पूर्वक जीवन यापन कर सकते हैं। इनमें से एक उपाय है शनि यंत्र की स्थापना करके उनके निम्न मंत्रों में से किसी भी एक मंत्र का 23000 की संख्या में स्वयं अथवा कर्मकांडी ब्राह्मण से जप का अनुष्ठान करना एवं अंत में शमी वृक्ष समिधा से दशांश हवन करना चाहिए।
शनिदेव के रक्षा मंत्र:
1. वैदिक मंत्र - ऊँ शन्नोदेवी रभीष्टय आपो भवंतु पीतये शंय्योरभिस्रवन्तुनः।
2. अरिष्ट नाशक मंत्र - ऊँ ह्रीं श्रीं ग्रहचक्रवर्तिने शनैश्चराय क्लीं ऐं सः स्वाहा।
3. पूजा आराधना मंत्र - ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं शनैश्चराय नमः।
4. शास्त्रोक्त मंत्र - ऊँ शं शनैश्चराय नमः।
5. तंत्रोक्त मंत्र - ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः।
जप के समय बीज मंत्र युक्त एवं धनुषाकार शनि यंत्र की स्थापना/प्राण प्रतिष्ठा करानी चाहिए। यंत्र की स्थापना से पुण्य फल कई गुना बढ़ जाता है और कष्ट की वेदना शनैः शनैः कम होना शुरु हो जाती है। श्ािन सातवें ग्रह हैं, उनकी उच्च राशि तुला है जो सातवीं राशि है अतएव यथासंभव कम से कम यंत्र का आकार 7’’ग7’’ का होना अति उŸाम है।
अन्य उपाय: सात शनिवार भैंसे को सतनाजा खिलाना, शनिश्चरी अमावस्या को शनिदेव का अभिषेक करना, 23 शनिवार दारु, हल्दी, जल में डालकर स्नान करना, 19 शनिवार काली गाय को गुड़, रोटी आदि खिलाना। शनिवार के दिन संध्या समय पीपल के समीप तिल तेल का दिया जलाना, बंदरो को चना चुगाना, वृद्ध भिक्षुक को काले रंग का कंबल देना, सिद्ध शनि मंदिर बिना जूता चप्पल पहने, खुले सिर रखे हर शनिवार दर्शन पूजन जाना और गूगल की धूप जलाना, शनिवार दोपहर अपने भोजन का कुछ अंश निकालकर कौओं को खिलाना, पाली हुई काली मछलियों को शनिवार के दिन जलाशय में छोड़ देना, काले रंग की 2 चिड़ियां खरीदकर आकाश की ओर हाथ करके उन्हें उड़ा देना, घोड़े की नाल का छल्ला धारण करना, शनि पुष्य नक्षत्र में दाईं भुजा में शमी वृक्ष की जड़ काले कपड़े में बांधकर पहनना, शनिवार को रात्रि में हाथ पैर के नाखूनों में सरसों का तेल लगाना और 7 शनिवार लौह पात्र में भरे सरसों के तेल में मुंह देखकर डकौत को छाया दान के रूप में देना और शनिदेव से उपरोक्त उपाय करते समय कष्ट शमन हेतु प्रार्थना करते हुए ‘‘शनिदेव रक्षा करें’’ बोलना चाहिए।