भगवत प्राप्ति का सहज साधन
भगवत प्राप्ति का सहज साधन

भगवत प्राप्ति का सहज साधन  

बसंत कुमार सोनी
व्यूस : 25030 | फ़रवरी 2011

भगवत प्राप्ति का सहज साधन बसंत कुमार सोनी भगवत प्राप्ति के लिए चाहिए भगवान से मिलने की ललक और उसे पाने की रीति है- भक्ति जिसका अर्थ है भगवान की उपासना, सेवा और शरण्यता। प्राप्ति साधनों के विस्तार का उल्लेख किया गया है इस लेख में। पढ़िए और भगवत प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़िए। भगवान से मिलने की ललक भगवद् प्राप्ति का एक अंग होती है। भगवत प्राप्ति अर्थात् भगवान या ईश्वर को पाने की रीति, भक्ति मानी गई है। भक्ति का अर्थ है भगवदोपासना अर्थात् भगवान की उपासना, सेवा और शरण्यता। इस असत संसार में लोगों के लिये सुख-शांति प्राप्ति का सरल सुगम पथ केवल ईश्वरोपासना ही है। अपने इष्ट देवता का सुमिरन, चिंतन, पूजन, भजन, कीर्त्तन, ध्यान, आराधना को उपासना कहा जाता है। अधिकांश रूप में देखा सुना गया है कि संसार में जितने भी महान पुरुष हुये हैं, वे सभी भगवद् भक्त हुये हैं यानी वे सभी ईश्वरोपासक थे।

परमहंस श्रीरामकृष्ण जी का कहना है कि ''ईश्वर के नाम और भजन के भाव अनन्त हैं, उनमें से जिस मनुष्य को जो नाम और भाव पसंद है, वह उसी से उसको पुकारता तथा उसका ध्यान करता है और उसी से ईश्वर को पाता है।'' महामना मदनमोहन जी मालवीय ने लिखा है कि ''धट-घट व्यापक उस परमात्मा की विमल भक्ति के साथ उपासना करनी चाहिये।'' स्वामी विवेकानंद ने इस बात का प्रचार किया ''नाना रूपों में जो तुम्हारे सामने है, उसको छोड़कर अन्यत्र कहां ईश्वर को खोज रहे हो। जो जीवन से प्रेम करता है वही मनुष्य 'मनुष्य' है और वही मनुष्य ईश्वर की सेवा करता है।'' बहुरूपे सम्मुखे तोमार, छाड़ि कोथा खूंजिछ ईश्वर। जीवे प्रेम करे जेइ जन सेइ जन सेविदे ईश्वर॥ उपासना शब्द के स्मृति, पुराणादि में तथा महापुरुषों की वाणी में अनेक अर्थ पाये जाते हैं। सार रूप में भगवत-प्राप्ति के निमित्त उपासना का अर्थ पूजा भक्ति है। श्री मद्भागवत के अनुसार भगवद्-प्राप्ति के लिये ईश्वर को पूर्ण भक्ति से प्रसन्न कर लेना' उपासना कहा जाता है। धर्म शास्त्रों के या यूं कहें कि स्मृतियों व पुराणों के प्रमाण से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि उपासना काल में भगवान उपासकों को दर्शन अवश्य देते हैं।

मक्का, मदीना, द्वारका, बद्री और केदार। प्रेम बिना सब झूठ हैं, कहें ''मलूक'' विचार॥ उपासना की सिद्धि के लिये भगवान के प्रति भक्ति अत्यधिक प्रेम के साथ होनी आवश्यक है। ऐसी ममता, ऐसा अनुराग या प्रेम भगवान के प्रति हो कि अपनी सब ममता हर जगह से निकालकर परम पिता परमात्मा प्रभु के पादारविंदो में ही केंद्रित हो जाये, अनुरक्त हो जाये। रामचरित मानस में भी यही बात कही गई है। जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥ सबकै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहिं बांध बरि डोरी। समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं। अस सज्जन मम उर बस कैसे। लोभी हृदय बसइ धनु जैसे॥ उपर्युक्त चौपाईयां विभीषण शरणागति के प्रसंग में सुंदर कांड के दोहे क्रमांक 47 से 48 के मध्यसे अवतरित हैं। भगवान राम और विभीषण के मध्य बातचीत का अंश हैं ये चौपाईयां। और भी कहा गया है- तुलसी दास की रामायण में- मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किए जोग तप ग्यान विरागा॥ भक्त शिरोमणि संत मीराबाई के शब्दों में भी इस बात की पुष्टि होती है कि भगवान प्रेम के द्वारा प्राप्त होते हैं (पद है - माई री मैं तो लियो गोविन्द मोल. ....) ''कोई कहै घर में, कोई कहै बन में, राधा के संग किलोल। मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आवत प्रेम के मोल॥'' भगवद् प्राप्ति के निमित्त बिना प्रेम के यदि चंचल मन को जबरन ईश्वर में लगाया जायेगा तो मन वहां अधिक देर टिक नहीं पायेगा।

चंचल मन को प्रभु के चरणों में लगाने के लिये दो प्रमुख उपाय हैं :

(1) अभ्यास व

(2) वैराग्य। अभ्यास के द्वारा मन को भगवान से प्रेम करने की आदत पड़ जाती है और भगवान में मन टिकने लगता है। वैराग्य से चित्त-विभ्रम की निवृत्ति होने लगती है।

संसार से विरक्ति और भगवान से अनुरक्ति उत्पन्न होती है। होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ-चरण अनुरागा॥ सदैव, सर्वत्र यानि सब जगह भगवद्दर्शन करने की ललक अपने को परम दैन्य, अयोग्य एवं सबका सेवक समझना यह परमोच्च कोटि की उपासना है। ऐसा करने से भगवान प्रसन्न होकर भक्त आराधक, उपासक या जातक को सदा सर्वत्र सभी सुख-दुखादि परिस्थितियों में अपना दर्शन कराने लगते हैं। ईश्वर और प्रेम को ''रसखान'' कवि ने एक वस्तु के दो रूप माना है- प्रेम हरी कौ रूप है, त्यौं हरि प्रेम स्वरूप। एक होय द्वै यों लसैं, ज्यों सूरज अरू धूप॥

विभिन्न उपासकों, भगवत प्रेमियों और भक्तों की ईश्वर प्राप्ति की रोचक कथायें धर्म-साहित्य में पढ़नें को हमें प्राप्त होती हैं और तत्संबंधी कथा वार्ताओं को लोग जानते भी हैं। उनमें से एक मुस्लिम महिला ताज का नाम भी आता है जिसे भगवद् प्रेम ने इस्लाम की राह से मोड़कर नंदनंदन की दीवानी, कृष्ण पंथ की फकीरनी बना दिया। मुगलानी ताज के हृदय के भक्ति भाव, कृष्ण प्राप्ति की झलक उसके इस कवित्त से स्वतः स्पष्ट हो जाती है। सूनाक दिलजानी, मेरे दिल की कहानी, तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूंगी मैं। देव पूजा ठानी और नमाज भी भुलानी तजे कमला कुरान, सारे गुननि गहूंगी मैं। सांवला सलौना सिरताज सिर कुल्लेदार तेरे नेह दाध में निदाघ ज्यों दहूंगी मैं॥ नंद के कुमार कुरबान तेरी सूरत पै। हौं तों मुगलानी हिंदुवानी है रहूंगी मैं॥ इस कवित्त रूपी प्याले में भगवत प्राप्ति विषयक मुगलानी ताज की प्रेम भक्ति की ही मदिरा लबालब भरी हुई है। सार यह है कि श्रद्धा भक्ति और प्रेम के द्वारा भगवत प्राप्ति हो सकती है। किसी भगवत रसिक भक्त की हृदय की धारणा इस तरह से है- नहिं हिंदु, नहिं तुरक हम, नहीं जैनी, अंगरेज। सुमन संवारत रहत नित, कुंज बिहारी सेज॥

''ईश्वर के नाम और भजन के भाव अनन्त हैं, उनमें से जिस मनुष्य को जो नाम और भाव पसंद है, वह उसी से उसको पुकारता तथा उसका ध्यान करता है और उसी से ईश्वर को पाता है।'' मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किए जोग तप ग्यान विरागा॥ तुलसी दास जी की इन अनुभूति की पुष्टि मीराबाई ने भी की यह कहकर कि भगवान प्रेम से प्राप्त होते हैं।



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