वैवाहिक विघटन के विविध आयाम और ज्योतिष शास्त्रीय संदर्भ
वैवाहिक विघटन के विविध आयाम और ज्योतिष शास्त्रीय संदर्भ

वैवाहिक विघटन के विविध आयाम और ज्योतिष शास्त्रीय संदर्भ  

राजीव रंजन
व्यूस : 5548 | नवेम्बर 2016

भारतीय ज्योतिषशास्त्र का मूल उद्देश्य ही मानव मात्र का कल्याण है। वैदिक काल से ही इस वेदाङ्ग ने विभिन्न भौतिक तथा आध्यात्मिक संतापों से मानव को मुक्ति प्रदान की है। वैवाहिक सम्बन्धों के सन्दर्भ में भी ज्योतिषशास्त्र की उपादेयता सर्वसिद्ध है। विवाह में होने वाले विलम्ब अथवा विवाह के पश्चात् होने वाले पार्थक्य, वैमनस्य, वैधव्य, विधुरता, विवाहेत्तर सम्बन्ध आदि विषयों पर भी ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में पर्याप्त चर्चा की गई है।

अतः उन ग्रहयोगों पर दृष्टिपात करना अनिवार्य हो जाता है, जिसके कारण वैवाहिक सम्बन्धों का विघटन सम्भव है ताकि समस्याओं के मूल कारणों का अन्वेषण सम्भव हो सके तथा उसके निवारणार्थ शास्त्रोक्त उपाय किए जा सकें। यहां विभिन्न वैवाहिक समस्याओं के लिए उत्तरदायी ग्रहयोगों को प्रस्तुत किया जा रहा है- वैवाहिक विलम्ब के लिए उत्तरदायी ज्योतिषीय ग्रहयोग- जन्मपत्रिका के विभिन्न भावों के साथ-साथ, भावों के अधिपति ग्रह तथा उनका अन्य ग्रहों के साथ सम्बन्ध आदि कारक ही इस समस्या के जनक माने जा सकते हैं। कुछ ऐसे ही ग्रहयोग निम्नलिखित हैं-

Û जन्मांग में मंगलीक दोष की उपस्थिति अर्थात् लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भाव में मंगल हो।

Û सप्तम भाव अथवा सप्तमेश से शनि का सम्बन्ध हो।

Û सूर्य लग्न अथवा सप्तम भाव में हो।

Û जन्माङ्ग में कालसर्पयोग की उपस्थिति विवाह में पर्याप्त विलम्ब का कारण बनती है।

Û शुक्र द्वितीय भाव में हो तथा द्वितीयेश मंगल के प्रभाव में हो।

Û शनि सूर्य के साथ युति या दृष्टि सम्बन्ध बना रहा हो।

Û शनि यदि उच्चस्थ हो पर लग्नेश या योगकारक न हो।

Û मंगल तथा शुक्र साथ हो तथा इस पर शनि की दृष्टि हो।


For Immediate Problem Solving and Queries, Talk to Astrologer Now


Û शुक्र चतुर्थ भाव में हो तथा बुध षष्ठस्थ हो।

Û सूर्य तथा शनि सम सप्तक में हों।

Û नवमेश तृतीय भाव में हो तथा सप्तमेश नवम भाव में हो।

Û चन्द्र तथा शुक्र एक साथ हों अथवा परस्पर सप्तम भाव में हों।

Û शनि वक्री हो तथा चतुर्थेश अथवा सप्तमेश होकर पाप प्रभाव में हो।

Û वक्री शनि का प्रभाव द्वितीय भाव, द्वितीयेश, सप्तम भाव अथवा सप्तमेश पर हो।

Û सूर्य शुक्र की राशियों (वृष, तुला) में हो तथा शुक्र सिंह राशि में हो।

Û चन्द्रमा और शनि एक दूसरे की राशियों या समसप्तक में हों।

Û सप्तम भाव में कर्क राशि हो और वहां शनि और चन्द्र के मध्य युति सम्बन्ध हो।

Û शनि एवं मंगल एक दूसरे को पूर्ण दृष्टि से देख रहे हों अथवा उनमें राशि विनिमय हो।

Û सप्तमेश वक्री होकर द्वितीय भावस्थ हो तथा शनि से दृष्ट हो।

Û अष्टम भाव की नवांश राशि सप्तम भाव में हो और लग्न नवांश राशि में शुक्र हो।

Û शुक्र पंचम भाव में हो और चतुर्थ भाव में राहु हो।

Û राहु तथा केतु क्रमशः लग्न-सप्तम, द्वितीय-अष्टम अथवा पंचम-एकादश भाव में हो।

Û सप्तम भाव पर वक्री ग्रहों का प्रभाव हो।

Û जन्मलग्न तथा नवांश दोनों में ही बृहस्पति शनि से दृष्ट हो।

Û बृहस्पति यदि शनि की राशियों में हो, विशेष रूप से कुंभ में।

Û शुक्र तथा सप्तमेश पर शनि दृष्टिपात कर रहा हो। इस जातक की कुण्डली में मंगल दोष उपस्थित है साथ ही साथ सप्तमेश शनि पाप ग्रह के प्रभाव में उदाहरण-1 है जिस कारण से इस जातक का विवाह 40 वर्ष से अधिक की आयु हो जाने पर भी नहीं हो पाया है। विलम्ब कारक ग्रह शनि तथा मंगल दोष की उपस्थिति ने इस जातक को वैवाहिक सुख से वंचित रखा है। विवाह प्रतिबन्धक योग- ज्योतिषशास्त्र के विभिन्न ग्रन्थों में ऐसे ग्रहयोगों के भी वर्णन मिल जाते हैं, जिनके कारण जातक अथवा जातिका का विवाह आजीवन नहीं हो पाता है। कुछ ऐसे ही ग्रहयोग द्रष्टव्य हैं-

Û शनि तथा सूर्य, लग्न या सप्तम भाव में स्थित हों तथा इन दोनों ग्रहों के अंश भी समान हों।

Û शनि तथा सूर्य का शुक्र के साथ युति संबंध हो अथवा शुक्र पर शनि तथा सूर्य दृष्टिपात कर रहे हों।

Û द्वितीय, सप्तम तथा द्वादश भाव पाप पीड़ित हों। शनि लाभेश हो तथा वक्री होकर सप्तम अथवा नवम भाव में स्थित हो।

Û चन्द्र व शुक्र एक ही राशि में हो तथा इन ग्रहों पर शनि तथा मंगल की दृष्टि हो।

Û शनि सूर्य की राशि में हो तथा सूर्य शनि की राशियों में हो।

Û शुक्र सिंह या तुला राशि में हो तथा इसके द्वितीय तथा द्वादश भाव में शनि हो।

Û द्वितीयेश, नवमेश, चतुर्थेश और सप्तमेश में से जितने अधिक ग्रह बन्ध्या राशियों (मिथुन, सिंह, कन्या) में हों, विवाह की संभावना उतनी ही क्षीण होती जाती है।


अपनी कुंडली में राजयोगों की जानकारी पाएं बृहत कुंडली रिपोर्ट में


Û चन्द्रमा और शुक्र यदि एक दूसरे की राशि में स्थित हों, साथ ही पाप प्रभाव से युक्त हों, विशेष रूप से राहु तथा केतु।

Û चन्द्रमा अथवा शुक्र यदि सप्तम अथवा लग्न भाव के अधिपति होकर बन्ध्या राशियों में स्थित हों।

कलहपूर्ण वैवाहिक जीवन- कुछ घटनाओं में देखा गया है कि विवाह के कुछ समय बाद ही पति पत्नी के मध्य लड़ाई-झगड़े, वैमनस्य आदि की अधिकता हो जाती है। वैसे कुछ सीमा तक यह सामान्य घटना ही है, परन्तु जब इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति बार-बार होने लगती है तो दोनों का जीवन नरक के समान हो जाता है।

कुण्डली क्रमांक-2 एक कन्या की है जिसका तलाक विवाह के छः दिन बाद ही हो गया था। जन्माङ्ग के सप्तम भाव में उपस्थित शनि तथा मंगल दोष इस तलाक के लिए उत्तरदायी है साथ ही साथ गुरु का शनि की राशि में होना तथा राहु उदाहरण-2 का सप्तमेश मंगल के साथ होना वैवाहिक पार्थक्य को पुष्ट कर रहा है।

कुण्डली क्रमांक-3 एक तलाकशुदा व्यक्ति की है। इस व्यक्ति के दो तलाक हो चुके हैं तथा सम्प्रति अपने तीसरे वैवाहिक जीवन को भी संघर्षपूर्वक व्यतीत कर रहा है।

उदाहरण-3 जन्माङ्ग में उपस्थित मंगल दोष, सूर्य, शनि, राहु का एक साथ होना तलाक की सम्भावना को प्रबल कर रहा है।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.