नारद पुराण के अनुसार सब आश्रमों में यह गृहस्थाश्रम ही श्रेष्ठ है। उसमें भी जब सुशीला धर्मपत्नी प्राप्त हो तभी सुख होता है। स्त्री सुशीला तभी प्राप्त होती है, जब विवाहकालिक लग्न में शुभ ग्रह हांे। कन्या के माता-पिता को किसी शुभ दिन विद्वान ब्राह्मण के समीप जाकर कन्या के विवाह लग्नादि के विषय में पूछना चाहिए। ज्योतिषी को चाहिये कि वह उस समय के समयानुसार कुंडली बनाकर लग्न और ग्रह स्पष्ट करके देखे।
- प्रश्न कुंडली में यदि प्रश्न लग्न में पापग्रह हो या लग्न से सप्तम में मंगल हो तो यह अरिष्ट है, चंद्र से भी सप्तम में मंगल न हो, लग्न से पंचम भाव में पापग्रह हों और वह नीच राशि में पाप ग्रह से देखा जाता हो, तो अशुभ है।
- यदि प्रश्न लग्न से 3-5-7-10 और 11वें भाव में चंद्र हो तथा उस पर गुरु की दृष्टि हो, तो उस कन्या को शीघ्र ही पति की प्राप्ति होगी।
- यदि प्रश्न लग्न में तुला, वृष या कर्क राशि हो तथा वह शुक्र और चंद्र से युक्त हो तो प्रश्नकर्ता वर के लिये पत्नी लाभ होता है अथवा सम राशि में लग्न हो, उसमें समराशि का ही द्रेष्काण हो और सम राशि का नवमांश तथा उस पर चंद्र और शुक्र की दृष्टि हो तो वर को पत्नी की प्राप्ति होती है।
- इसी प्रकार यदि प्रश्न लग्न में पुरुष राशि और पुरूष राशि का नवमांश हो तथा उस पर पुरुष ग्रह (रवि-मंगल-गुरु) की दृष्टि हो तो पति की प्राप्ति होती है।
- यदि प्रश्न समय में कृष्ण पक्ष हो और चंद्र सम राशि में होकर लग्न से छठे या आठवें भाव में पाप ग्रह से देखा जाता हो तो (निकट भविष्य में) विवाह संबंध नहीं हो पाता है।
- वर्ष शुद्धि: कन्या के जन्म समय से सम वर्षों में और वर के जन्म समय से विषम वर्षों में होने वाला विवाह प्रेम और प्रसन्नता को बढ़ाने वाला होता है। इसके विपरीत (कन्या के विषम और वर के सम वर्ष में) विवाह वर-कन्या दोनों के लिये घातक होता है।
- विवाह विहित मास: माघ, फाल्गुन, वैशाख और ज्येष्ठ - ये चार मास विवाह में श्रेष्ठ तथा कार्तिक और मार्गशीर्ष (अगहन) ये दो मास मध्यम हैं। अन्य मास निन्दित हैं।
विवाह मुहूर्त में वर्जित योग:
- भूकम्पादि उत्पात, खग्रास सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण हो तो उसके सात दिन तक समय शुभ नहीं है।
- यदि खंडग्रहण हो, तो उसके बाद तीन दिन तक अशुभ होते हैं।
- तीन दिन तक स्पर्श करने वाली (वृद्धि) तिथि, क्षयतिथि तथा ग्रस्तास्त (ग्रहण लगे चंद्र, सूर्य का अस्त) हो तो पूर्व के तीन दिन अच्छे नहीं माने जाते हैं।
- यदि ग्रहण लगे हुए सूर्य, चंद्र उदय हो तो बाद के तीन दिन अशुभ होते हैं।
- संध्या समय में ग्रहण हो तो पहले और बाद के तीन दिन अशुभ होते हैं तथा मध्य रात्रि में ग्रहण हो तो सात दिन (तीन दिन पहले, तीन दिन बाद के तथा ग्रहण वाला दिन) अशुभ होते हैं।
- मास के अंतिम दिन, रिक्ता, अष्टमी, व्यतिपात और वैधृति योग संपूर्ण तथा परिघ योग का पूर्वार्द्ध-ये विवाह में वर्जित हैं। विवाह मुहूर्त शुभ नक्षत्र रेवती, रोहिणी, तीनों उत्तरा, अनुराधा, स्वाति, मृगशिरा, हस्त, मघा और मूल- ये ग्यारह नक्षत्र वेध रहित हों तो इन्हीं में कन्या का विवाह शुभ कहा गया है। विवाह में वर को सूर्य का और कन्या को बृहस्पति का बल अवश्य प्राप्त होना चाहिये। यदि ये दोनों अनिष्टकारक हों तो यत्नपूर्वक इनकी पूजा करनी चाहिये। गोचर, वेध और अष्टकवर्ग बल उत्तरोत्तर अधिक है।
प्रथम तो वर-कन्या के चंद्रबल और तारा (नक्षत्र) बल देखने चाहिये। तिथि में एक, वार में दो, नक्षत्र में तीन, योग में चार और करण में पांच गुने बल होते हैं। इन सबकी अपेक्षा मुहूर्त बली होता है। मुहूर्त से भी लग्न, लग्न से भी होरा (राश्यर्द्ध), होरा से द्रेष्काण, द्रेष्काण से नवमांश, नवमांश से भी द्वादशांश तथा उससे भी त्रिंशांश बली होता है। अर्थात् नक्षत्र विहित (गुणयुक्त) न मिले तो उसका मुहूर्त लेना चाहिये।
यदि लग्न राशि निर्बल हो तो उसके नवमांश आदि का बल देखकर निर्बल लग्न को भी प्रशस्त समझना चाहिए। विवाह में शुभग्रह से युक्त या दृष्ट होने पर सब राशि प्रशस्त हैं, चंद्र-सूर्य-बुध-गुरु तथा शुक्र आदि। विवाह के इक्कीस दोष
1. पंचांग-शुद्धि का न होना,
2. उदयास्त की शुद्धि का न होना,
3. उस दिन सूर्य संक्रांति का होना,
4. पाप ग्रह का षड्वर्ग में रहना,
5. लग्न से षष्ठ में शुक्र
6. अष्टम में मंगल,
(7) गंडांत होना,
(8) कत्र्तरी योग,
9. बारहवें, छठे और आठवें चंद्र का होना तथा चंद्र के साथ किसी अन्य ग्रह का होना,
10. वर-कन्या की जन्मराशि से अष्टम राशि लग्न हो या दैनिक चंद्र राशि हो,
11. विषघटी,
12. दुर्महूर्त,
13. वार-दोष,
14. खार्जूर,
15. नक्षत्रैक चरण,
16. ग्रहण और उत्पात के नक्षत्र
17. पाप ग्रह से विद्ध नक्षत्र,
18. पाप से युक्त नक्षत्र,
19. पाप ग्रह का नवमांश,
20. महापात और
21. वैधृति-विवाह में ये 21 दोष हैं।
सूर्य संक्रांति के समय से पूर्व और पश्चात् 16-16 घटी विवाह आदि शुभ कार्यों में त्याज्य हैं। लग्न से अष्टम में मंगल होने पर- मंगल उच्च का हो और तीन शुभ ग्रह लग्न में हो तो इस लग्न का त्याग नहीं करना चाहिये। सग्रह दोष: चंद्रमा यदि किसी ग्रह से युक्त हो तो ‘सग्रह’ नामक दोष होता है। इस दोष में भी विवाह नहीं करना चाहिये। चंद्र यदि सूर्य से युक्त हो तो दरिद्रता, मंगल से युक्त हो तो घात अथवा रोग, बुध से युक्त हो तो संतानहीनता, गुरु से युक्त दुर्भाग्य, शुक्र से युक्त शत्रुता आपस में, शनि से युक्त प्रव्रज्या (घर का त्याग), राहु से युक्त सर्वस्व हानि और केतु से युक्त हो तो कष्ट और दरिद्रता होती है।
पद्विद्र्वादश (2-12) और नवपंचम (9-5) दोष में यदि दोनों की राशियों का स्वामी एक ही हो अथवा स्वामी मित्र हों तो विवाह शुभ कहा गया है। परंतु षडाष्टक (6-8) में दोनों के स्वामी एक होने पर भी विवाह शुभदायक नहीं होता है।
विशेष दोष: पुत्र का विवाह करने के बाद छः मास के भीतर पुत्री का विवाह नहीं करना चाहिये। एक पुत्र या पुत्री का विवाह करने के बाद दूसरे पुत्र का उपनयन नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार एक मंगल कार्य करने के बाद दूसरा मंगल कार्य छः मास के भीतर नहीं करना चाहिये। दो बहनों का विवाह यदि छः मास के भीतर हो तो निश्चय ही तीन वर्ष के भीतर उनमें से एक विधवा होती है। अपने पुत्र के साथ जिसकी पुत्री का विवाह हो, फिर उसके पुत्र के साथ अपनी पुत्री का विवाह करना प्रत्युद्वाह दोष होता है।
किसी एक ही वर को अपनी दो कन्याएं नहीं देनी चाहिये। दो सहोदरों के साथ दो सहोदरा कन्यायें नहीं देनी चाहिए। दो सहोदरों का एक ही दिन (एक साथ) विवाह या मुंडन नहीं करना चाहिये। वधू प्रवेश: विवाह के दिन से 6-8-10 और 7वें दिन में वधू प्रवेश (पतिगृह में प्रथम प्रवेश) हो तो वह संपत्ति की वृद्धि करने वाला होता है। द्वितीय वर्ष, जन्म राशि, जन्म लग्न और जन्मदिन को छोड़कर अन्य समय में सम्मुख शुक्र रहने पर भी वधू प्रवेश शुभ होता है।